शनिवार, 26 दिसंबर 2015

मील के पत्थर (१४)




इस दृष्टिकोण को कहेंगे मील का पत्थर 

डॉ हेमंत कुमार 

सान्ताक्लाज से------।

सबके
दुनिया भर के बच्चों के
प्यारे सान्ताक्लाज़
एक बार आप
हमारी बस्ती में जरूर आओ ।
हमें नहीं चाहिए
कोई उपहार
कोई गिफ्ट
कोई खिलौना रंग बिरंगा
आपसे
हमें तो बस
किसी बच्चे की
पुरानी फटी गुदड़ी
या फ़िर कोई
उतरन ही दे देना
जो इस हाड़ कंपाती
ठंडक में
हमें जिन्दा रख सके ।
हमारी असमय
बूढी हो चली माँ
झोपडी के कोने में
टूटी चरपैया पर पडी
रात रात भर खों खों खांसती है
बस एक बार
आप उसे देख भर लेना
सुना है
आपके
देख लेने भर से
बड़े से बड़े असाध्य
रोग के रोगी
भी ठीक हो जाते हैं ।
हमारी बडकी दीदी
तो अम्मा के हिस्से
का काम करने
कालोनियों में जाते जाते
पता नहीं कब
अचानक ही
अनब्याही माँ बन गयी
पर छुटकी दीदी के हाथ
हो सके तो
पीले करवा देना ।
हमारे हाथों में
साइकिलों स्कूटरों कारों के
नट बोल्ट कसते कसते
पड़ गए हैं गड्ढे (गांठें)
अगर एक बार
छू भर लोगे आप
तो शायद हमारी पीड़ा
ख़तम नहीं तो
कुछ काम तो जरूर हो जाएगी ।
चलते चलते
एक गुजारिश और
प्यारे सान्ताक्लाज़
हमारी बस्ती को तो
रोज़
उजाडा जाता है
हम प्रतिदिन
उठा कर फेंके जाते gSa
फूटबkल के मानिंद
शहर के एक कोने से दूसरे
दूसरे से तीसरे
तीसरे से चौथे
और उजkडे जाने की यह
अंतहीन यात्रा है
की ख़तम ही नहीं होती ।
चलते चलते
भागते भागते
हम हो चुके हैं पस्त/क्लांत/परास्त
सान्ताक्लाज़
हो सके तो हमारे लिए भी
दुनिया के किसी कोने में
एक छोटी सी बस्ती
जरूर बना देना ।
सबके
दुनिया भर के
बच्चों के
प्यारे सान्ताक्लाज़
एक बार आप
हमारी बस्ती में जरूर आना ।
000000

मंगलवार, 15 दिसंबर 2015

मील के पत्थर (१३)



जब मन पर बोझ पड़ा था 
आँसू थमते नहीं थे 
तब सब खामोश थे 
जिस दिन बोझ की आदत पड़ी 
आँसू ही मुस्कान बन गए 
तब सब कुछ न कुछ बोलने लगे 
.... !!!

किरण आर्य



कल मैं मिली 


कल मैं मिली मौत से पहले मरे हुए आदमी से, 
जो पूरी सभ्यता को भद्दी गालियों से गरियाता है, 
और अपने पार्थिव शरीर को ढ़ोता लतियाता है,
वो अपनी ही धुन में रमता हठी सा योगी है, 
घुम्मकड प्रवृति का, रह्गिरी के गुण में माहिर जोगी है I

उसके अन्दर है एक आग, जो जीवित रखे है उसे आज भी,
वो है उसका सतत विचारों से जूझना,
भटकना निरंतर भटकना और भटकना,
फिर एक दिन कवितायेँ फूटतीं है अचानक,
सोतों सी उसके अंतस से,
और वो कविताओं का जखीरा लिए विजयी भाव से,
कोलंबस सा मुस्कुराता है, 
जैसे उसकी खोज हुई पूरी, उसकी बेचैनी को विराम मिला,
और फिर वो हो जाता है रीता सूखे घड़े सा,
बदरंग गरियाता अपनी लाश को लात से ठेलता,
तिल-तिल मरता अपने पार्थिव शरीर को ढ़ोता I

उसके मृत शरीर से एक तीव्र सड़ांध है उठती,
जो नथुनों से है टकराती, नाक के बाल तक है जला जाती,
असहनीय सी दुर्गन्ध जो मन को विचलित कर जाती,
अपान वायु के प्रभाव से उपजे वैराग्य भाव सी,
लेकिन उसके विचारों की उर्जा उस दुर्गन्ध को दबा जाती,
और वो सड़ांध हो विलीन कहीं, यथार्थ के धरातल को है घूरती,
यकायक गड्डों में धंसी वो आंखें है मुस्कुराती,
और तब आता है समझ, कि कैसे मर चुका वो शरीर,
आज भी जीने की चाह को करता पोषित है,
और मौत से नज़रे चुराता है 
गरियाता है लतियाता है लेकिन जब बात आती है जिन्दगी की,
तो पोपले से गालों टूटते हुए दांतों बिखरे बेतरतीब से बालों में,
मुस्कुराता जिन्दगी के नगमे गाता है I

कभी आसमान में धान रोपने में तल्लीन,
कभी अपनी कविताओं में 
उपनिषदों का आत्मवाद, बुद्धिष्ट अनात्मवाद, 
भक्तों का मानवतावाद और कम्युनिष्टों का समतावाद,
समाहित करने की तत्परता के साथ विश्व संस्कृति की बात करता वो, 
कभी ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार कर उसमे लीन होने को आतुर,
कर्मठता का यहीं भाव है, जो उसे मरने नहीं देता I

घूरकर देखना और फिर पागल समझे जाने की बात सोच,
शरमा जाना और फिर हिचकते हुए मन के इस भाव की व्याख्या करना,
और खुलकर मुस्कुराना उसका कर जाता है चकित,
ऐसी निश्चलता सहजता सरलता और विचारो की गूढता,
क्या दिखती है तथाकथित बुद्धिजीवी सभ्य समाज में ?
जो मुखौटों के आवरण ओढे अपने दंभ में आसमां की तरफ मूह कर,
थूकने को अमादा है, इस सत्य से अनभिज्ञ की वो थूक गिरेगा उनके ही मूह पर I

वो मात्र अभिनय है नहीं करता नेता होने का,
केवल चिल्लाकर आश्वासन के टुकड़े नहीं है फेंकता,
वो परचम है लहराता उस विश्वास का, 
जो उसकी धंसी आँखों में जिन्दा है, कि बदलेगा सब,
सिर्फ आग चाहिए, और वो उसी आग को पाने की ललक में,
प्रयास है करता फूंक मारता निरंतर बुझी राख में,
चिंगारी पैदा करने के अथक प्रयास में लीन !

वो संत परंपरा और मौखिक परंपरा का उतराधिकारी कहलाता है,
और इस बात से उसके मन में फैलाव का एक सागर लहराता है,
वो चूहे पर हाथी के सवार होने की बात को जायज़ ठहराता है,
वहीँ चूहे पर हाथ के सवार होने को सिरे से खारिज है करता,
जो ये दर्शाता है, कि उसकी संवेदनाये अभी सजीव है,
और ये जीवंतता जो यकायक उसके मुख पर पसर जाती है, 
शरीर की नश्वरता को ठेंगा दिखाती 
उस मरे हुए आदमी में जीने की ललक जगा जाती है .............

गुरुवार, 10 दिसंबर 2015

मील के पत्थर (१२)




चलते चलते  .... रास्ते सपनों के हों 
या कर्तव्यों के 
ईश्वर का वजूद मिलता है 
प्रार्थना के बोल 
अपनी मनःस्थिति के अनुसार निःसृत होते हैं  ......... 

वंदना गुप्ता 


तुम क्या हो ...एक द्वन्द 
**********************
मैं स्वार्थी
जब भी चाहूँगी
अपने स्वार्थवश ही चाहूँगी
तुम्हारे प्रिय भक्तों सा नहीं है मेरा ह्रदय
निष्काम निष्कपट निश्छल
जो द्रवित हो उठे तुम्हारी पीड़ा में
और तुम उनके लिए नंगे पाँव दौड़े चले आओ
जो तुम्हें दुःख न पहुंचे
इसी सोच के कारण साँस लेते भी डरे 
या फिर तुम्हारे मानवीय अवतार लेने से
पृथ्वी पर दुःख सहने से
खुद भी अश्रु बहाने लगें 
और कहने लगें
प्रभु ! मुझे अधम , पापी के कारण बहुत दुःख पाया आपने
न , न , मोहन ऐसा नहीं चाह सकती तुम्हें
नहीं है मुझमे मेरी चाहतों से परे कुछ भी
जानते हो क्यों
क्योंकि
ज्ञान की डुगडुगी सिर उठाने लगती है
कि तुम तो निराकार , निस्पृह , निर्विकार परम ब्रह्म हो
तो तुम्हें कैसे कोई दुःख तकलीफ पीड़ा छू सकती है
तुम कैसे व्यथित हो सकते हो
और मैं दो नावों में सवार हो जाती हों
जब भी तुम्हारे दो रूप पाती हूँ
साकार और निराकार
और हो जाती हूँ भ्रमित
बताओ ऐसे में कैसे संभव है
तार्किक और अतार्किक विश्लेषण
कैसे संभव है
एक तरफ तुम्हें चाहना
तुम्हारी मोहब्बत में बेमोल बिक जाना
तो दूसरी तरफ
तुम्हारे निराकारी निर्विकारी स्वरुप को आत्मसात करते हुए चाहना
क्योंकि
हूँ तो अज्ञानी जीव ही न
जो तुम्हारा पार नहीं पा सकता
और मेरा प्रेम स्वार्थी है
पहले भी कह चुकी हूँ
आदान प्रदान की प्रक्रिया ही बस जानती हूँ
एकतरफा प्रेम करना और निभाये जाना मेरे लिए तो संभव नहीं
उस पर तुम दो रूपों में विराजमान हों
ऐसे में तुम्हारे भ्रमों की उलझन में उलझे
मेरे दिल और दिमाग दोनों ही
द्वन्द के सागर में अक्सर डूबते उतरते रहते हैं
और मैं इस भंवर में जब खुद को घिरा पाती हूँ
सच कहती हूँ
तुम्हारे अस्तित्व से ही निष्क्रिय सी हो जाती हूँ
कभी तुम्हें तो कभी खुद को बेगाना पाती हूँ
तभी तो कहती हूँ मोहन
तुम्हें चाहना मेरे वश की बात नहीं ..
तुम क्या हो 
एक द्वन्द 
या उससे इतर भी कुछ और 
बता सकते हो ?




मैं कोई अतिश्योक्ति नहीं 
***********************

अभी तो मैं खुद अपने आप को नहीं जानती 
फिर कैसे कर सकते हो तुम दावा 
मुझे पूरी तरह जानने का 
जबकि 
मुझे जानने के लिए 
तुम्हें नहीं पढने कोई कायदे 
फिर वो प्रेम के हों 
या द्वेष के
कभी जानने की इच्छा हो 
तो छील लेना मेरी मुस्कराहट को 
कतरे कतरे में उगी रक्तिम दस्तकारियाँ 
बयां कर जायेंगी ज़िन्दगी के फलसफे
कभी किवाड़ों की झिर्रियों से 
बहती हवा को देखा है 
नहीं न ...... बस वो ही तो हूँ मैं 
क्या फर्क पड़ता है 
फिर वो गर्म हो या ठंडी
जब ढह जाएँ 
तुम्हारी कोशिशों के तमाम पुल 
तब खटखटाना दरवाज़ा 
मेरी नज्मों का 
मेरे लफ़्ज़ों का 
मेरी अभिव्यक्ति का 
जहाँ मिलेगा लिखा 
' मुझे जानने को 
बस जरूरत है तो सिर्फ इतनी 
तुम संजीदा हो जाओ 
और पढ सको 
कर सको संवाद 
मूक अभिव्यक्तियों से '
क्योंकि 
यहाँ कोई दरवाज़ा ऐसा नहीं 
जिसे खोला न जा सके 
फिर वो खुदा ही क्यों न हो
मैं कोई अतिश्योक्ति नहीं 
कि जिसके बाद कोई विकल्प न बचे