मंगलवार, 24 नवंबर 2015

मील के पत्थर (११)




घर में वेद हो,पुराण हो, नवरस की खान हो, 
तो शब्द कई मील के पत्थर बनाते हैं  ....... 

आशीष राय जी की 

युग दृष्टि  कलम से मिलते हैं - 



किसी रोज मैं भी,
दवात में, अम्मा के 
पैरों की धूल,
भर लाऊंगा।
उस दिन लिखेगी,
कलम महाग्रंथ कोई।
मैं भी वाल्मीकि,
बन जाऊँगा।  … हैं न कमाल के एहसास ? :)


विश्व वैचित्र्य


कही अतुल जलभृत वरुणालय
गर्जन करे महान
कही एक जल कण भी दुर्लभ
भूमि बालू की खान

उन्नत उपल समूह समावृत
शैल श्रेणी एकत्र
शिला सकल से शून्य धान्यमय
विस्तृत भू अन्यत्र

एक भाग को दिनकर किरणे
रखती उज्जवल उग्र
अपर भाग को मधुर सुधाकर
रखता शांत समग्र

निराधार नभ में अनगिनती
लटके लोक विशाल
निश्चित गति फिर भी है उनकी
क्रम से सीमित काल

कारण सबके पंचभूत ही
भिन्न कार्य का रूप
एक जाति में ही भिन्नाकृति
मिलता नहीं स्वरुप

लेकर एक तुच्छ कीट से
मदोन्मत्त मातंग
नियमित एक नियम से सारे
दिखता कही न भंग

कैसी चतुर कलम से निकला
यह क्रीडामय चित्र
विश्वनियन्ता ! अहो बुद्धि से
परे विश्व वैचित्र्य.



विश्व छला क्यों जाता ?


तारो से बाते करने 
हँस तुहिन- बिंदु है आते 
पर क्यों प्रभात बेला में 
तारे नभ में छिप जाते ?

शशि  अपनी उज्जवलता से 
जग उज्ज्वल करने आता 
पर काले बादल का दल
क्यों उसको ढकने जाता ?

हँस इन्द्रधनुष अम्बर में 
छवि राशि लुटाने आता 
पर अपनी सुन्दरता खो
क्यों रो -रोकर मिट जाता

खिल उठते सुमन -सुमन जब 
शोभा मय होता उपवन 
पर तोड़ लिए जाते क्यों 
खिल कर खोते क्यों जीवन ?

दीपक को प्यार जताने 
प्रेमी पतंग है जाता 
पर हँसते  हँसते उसको 
क्यों अपने प्राण चढ़ाता ?

सहृदय जीव  ही आखिर क्यों 
तन मन की बलि चढ़ाता 
विश्वास शिराओं में गर बहता 
फिर  विश्व छला क्यों  जाता ? 


शनिवार, 21 नवंबर 2015

मील के पत्थर (१०)





किसी की बेहतरीन रचना मुझे वैसे ही लुभाती है
जैसे चॉकलेट्स 
फूल 
झरने 
किसी की बेहतरीन नम रचना मुझे वैसे ही रोकती है 
जैसे -
कोई रोता बच्चा उँगली पकड़के खींचे  … 

आइये आज यहाँ रुकते हैं  … 
Alive Hopes


१) 

ये जो देह है 
कुदरत के लिफ़ाफ़े हैं 
.
.
अंदर दो चार तहों में लिपटी चिठ्ठी सी आत्मा 
उम्र भर बांचनी होती हैं 
पते ठिकाने के लिए नाम दर्ज़ है 
और धर्म /मज़हब की मोहर का ठप्पा 
बाख़ूब पैबस्त 
.
.
किन्हीं सादे लिफाफों में खूबसूरत संदेशे हैं 
कहीं लिपे पुते लिफ़ाफ़े महज भरमाते हैं 
कोई चिट्ठी देह की खिड़की से झांकती 
कोई निर्दोष मुस्कानों में से 
कोई अंदर चिंदी चिंदी हो चुकी 
तो कोई गुमसुम मायूस है 
कोई लिफ़ाफे तो बहुत बड़े हैं 
जिनमें नन्हीं सी चिट्ठी होते हुए भी नदारद है 
और कहीं चिट्ठियां देहों को ओछा कर देती हैं
इन चिट्ठियों में सुन्दर लेखे से भाग्य सिमटे हैं 
कहीं इबारतों में दर्द के मुल्कों के हलफनामे हैं 
कहीं प्रेम के तराने हैं 
कहीं उम्मीदों के पंख बिंधे पंछी फड़फड़ाते हैं
ये देह 
कुदरत के लिफ़ाफ़े हैं
लिफाफो के बर ख़िलाफ़ 
एक कौम पोस्टकार्ड के फ़क़ीरों की है 
अंदर -बाहर की जद्दोजेहद से अलग 
एक दम सरल , सहज , स्पष्ट !
कई डाकिये के क़िरदार हैं 
लिफ़ाफ़ा देख मज़नून जान लेते हैं 
कई तमाम उम्र संग करती देहों की वेदना से बहरे हैं
कई सरे वक़्त देह आचमनों के लोलुप हैं 
कई मौहब्बत के फाहे लिए बेहद फिक्रमंद हैं 
कई चाक़ू कैंचियों की स्टेनगनों से लिफाफों को भूनने को आतुर 
कई आँखों की पनियाली आग से चिट्ठिओं को सुलगा रहे हैं 
कई सफ़र के संग के वादों के इंतज़ार में हैं
ये देह 
कुदरत के लिफ़ाफ़े हैं
पूरी दुनिया एक डाकघर 
जिसमें बहुत सारी चिट्ठिओं की सॉर्टिंग बाकी है 
कुछ बंटने को बाकी हैं 
कुछ बैरंग टीसों के शोकेस में महफूज़ हैं 
कुछ जरुरी रजिस्ट्रियां हैं 
कोई कबीर भी हैं 
लिफाफे की सूरत 
जस की तस धर देने के हुनरबाज !
ये देह 
कुदरत के लिफ़ाफ़े हैं




2)

कितना महान है !
तिनका होना !!!
तिनका यानि कि डूबते हुए की आख़िरी इकलौती उम्मीद !
किसी का सहारा बनना है तो पहले तिनका होना पड़े
तिनका है ही तीन का -- खुद का , खुदा का , उम्मीदों बाधें दूसरों का
तिनका अर्थात बित्ता से वज़ूद लिए किसी का किसी के लिए खुदा होना
तिनका होना अर्थात उस बित्ते से वज़ूद का भी ग़रूर न होना
गर वज़ूद का ग़रूर होगा 
तो उस के बोझ से भारी से हो ख़ुद ही न डूब जायेंगें
और डूबने का ख़ौफ़ लिए कोई कैसे किसी का सहारा हो सके !
सहारा बनने के लिए कोई भी ग़रूर काम न आ सके 
ग़रूर छोड़ते ही , मुर्दा भी तिनका सा तैरने लग जाता है
.
सवाल ये भी है 
कि जिसका ख़ुद कोई वज़ूद ही न हो 
वो कैसे किसी का सहारा बन सकेगा !
ज़वाब सवाल में ही कहीं समाया हुआ कहता है 
कि जो ख़ुद किसी सहारे (आधार ) का मोहताज़ नहीं 
वही सहारा बन सकता है !
डूबने वाला भी सारे अपने डूब गए सामान की फिक्र से खुद को जुदा कर 
ख़ुद के डूबते जाते शरीर की भी परवाह किये बग़ैर 
अपनी ही साँसों की रस्सियों को हाथों से पकडे रहने की हरचंद कोशिश करता 
जेहन में किन्हीं भूले बिसरे खुदाई मिसरों को हड़बड़ाहट में बुदबुदाता
तिनके को तैरते देख लेता है तो हिम्मत बंधती है 
तिनके का कुछ और खोने के ख़ौफ़ से परे हल्का हो तैर पाते देखना ही उसका सहारा पाना है

तिनका होना अलग बात है 
तिनका होकर सहारा बनना अलग
********************************.


बुधवार, 18 नवंबर 2015

मील के पत्थर (९)





कभी प्यार किया है शब्दों से
जो जेहन में उभरते हैं
और पन्नों पर उतरने से पहले गुम हो जाते हैं
उन शब्दों से रिश्ता बनाया है
जो नश्तर बन
दिल दिमाग को अपाहिज बना देते हैं ...
इन शब्दों को श्रवण बन कितना भी संजो लो
इन्हें जाने अनजाने मारने के लिए
कई ज़हरी्ले वाण होते हैं
लेकिन शब्द = फिर भी पनपते हैं
क्योंकि उन्हें खुद पर भरोसा होता है ……
इंसान जन्म ना ले,शब्द ना जन्म लें - तो न सृष्टि की भूमिका होगी,नहीं जागेगा सत्य और ना ही होगा कोई उत्थान या अवसान, ना होगा कहीं मील का पत्थर !

पनपते शब्द भावों के धागों में आज पिरोती हूँ मैं आपको चंचला पाठक की सोच से  


1)

प्रेम में
जब 
देह पर 
बांचा जा रहा होगा
"गरूड़पुराण" 
तुम्हारी आँखों से 
झर रहे 
"तर्पण" के
स्वरों का 
जलाशय 
उत्ताल तरंगों में 
विस्फारित हो रहा होगा
.........................
रोम -रोम के दाह को
संस्कार में 
नहीं गिना जाता
और 
बेकल करवटें 
युगवर्तन का परिसाध्य भी नहीं
अरी ओ युगार्थिनी!
"शीतांग" से लथपथ 
तुम्हारी ज्वाला का 
मर्मभेदी पुरुष 
आखिर किस 
अघोर निद्रा में 
लीन -विलीन
हुआ पड़ा है ...........?
आखिर कौन 
गतिबद्ध है
प्रेम के बंधन में
मुक्ति के अद्वैत को 
साधने के निहितार्थ ...............!!!



2)

किसी 
उत्ताल लहर पर
लिखा होगा 
'आग'
और 
तुम्हारी 
चिता की
अग्नि शिखा पर 
विलाप करता 
अंजुरी भर
'झरना'
तुम्हारे 
निर्भय
मौन पर
हहराती 
ठाठें मारती
अघोर रौरव पर
सम्मोहन छिड़कती 
काशी के 
नीरव का अर्थ
बघारती .........
ओ मेरे पिता !
इस 'मणिकर्णिका' का
उदात्त वैभव
तुम्हारे शवासन में
समाधिलीन
मेरी
अमलीन
स्मृतियाँ हैं.........


3)

तुम इतने मुमुग्ध 
क्यों हो मरुगंध !
सहज तो न थी
तुझ तक की 
सुदीर्घ यात्रा
अब
जब लौट आई हूँ 
मैं
तो निकलते क्यूँ नहीं. .....
नागौरण की 
विष-प्रवास तंद्रा से
महकना था मुझे. ...
पोर-पोर से झरती 
विषम्भरी की 
असांद्र बूंदों से 
उतर जाना था 
उस तल तक 
जहाँ गाते हो 
तुम
अनाहत सुगंध
हमारे मिलन के स्वर में
अक्षर -अक्षर उन्मुक्त 
मंद्र - मन्थर 
पिघल जाता है 
जब
हिमनद का चरम
नदी की 
शिराओं में

सोमवार, 16 नवंबर 2015

मील के पत्थर (८)




मन की कई परतें होती हैं 
चेहरे की शुष्कता में 
नमी हाहाकार करती है 
खुदाई करो, अवशेषों से पहचान होगी 
कुछ कथा ये लिखेंगे 
कुछ कथा वे लिखेंगे 
कुछ अनकहे,अनपढ़े रह जायेंगे  .... 

मेरी यात्रा की कोशिश है, हर पड़ाव पर एक विशेष मुलाकात हो  - आज मैं लाई हूँ विमला तिवारी 'विभोर' जी की कल्पनाओं को http://vimlatiwari.blogspot.in/


पीड़ा तेरे रूप अनेक


कौन बताये क्या है भेद
पीड़ा तेरे रूप अनेक 
पहले पता खोजती फिरती
फिर है मिलती निमित्त विशेष
हाथ पकड़ करती आलिंगन
बनती स्वयं का ही प्रतिवेष
पीड़ा तेरे रूप अनेक

पहले तो करती हो स्वागत
बढ़ कर फिर करती हो अभिषेक
पीड़ा तेरे रूप अनेक

पहली लगती हो रोमांचक
फिर हो जाती हो अभिप्रेत
पहले अनदेखी अनजानी
चहुँदिशि अब तुम ही सर्वेश
पीड़ा तेरे रूप अनेक

वाष्प मेघ जल, वाष्प मेघ जल
अद्भुत विश्व रचयिता एक
यह कैसा अनिकेत निकेतन
दृष्टि एक और दृश्य अनेक
पीड़ा तेरे रूप अनेक

सिन्धु सिमिट कर बिन्दु
पलक में सुन्दर है मुक्तेश
प्रति पद घात बिलखती फिरती
अब सुन्दर मूरत सुविशेष
जाग्रत स्वप्न देखती पलकें
परिचित परिचय में क्या भेद
पीड़ा तेरे रूप अनेक



मधुर नाम है राम तुम्हारा


मधुर नाम है राम तुम्हारा।
परम मंत्र है नाम तुम्हारा॥

राम नाम है, राम राह है, राम लक्ष्य है, राम मंत्र है।
सुन्दर नाम है राम तुम्हारा, सुन्दरतम है रूप तुम्हारा।
मधुर नाम है राम तुम्हारा।

राम भाव है, राम स्तोत्र है, राम आदि है, राम अन्त है।
दिव्य नाम है राम तुम्हारा, दिव्य रूप है राम तुम्हारा।
मधुर नाम है राम तुम्हारा।

राम शक्ति है, राम विजय है, राम प्रेम है, राम इष्ट है।
शुभारम्भ है नाम तुम्हारा, इष्टमंत्र है राम तुम्हारा।
मधुर नाम है राम तुम्हारा।

दिव्य गान है नाम तुम्हारा, जन्म दिवस है नाम तुम्हारा।
आज धन्य लिख लिख नाम तुम्हारा।
आज मुग्ध लख रूप तुम्हारा।
मधुर नाम है राम तुम्हारा।
परम मंत्र है नाम तुम्हारा।।

मंगलवार, 10 नवंबर 2015

मील के पत्थर (७)




धरती का चप्पा चप्पा छानो तभी कोलंबस और वास्कोडिगामा बनने की उम्मीद है, कहते हैं, चाह है तो राह है - मुझे पढ़ने की चाह है, ख़ास कलम की तलाश में निकल पड़ती हूँ, ढूँढ ही लेती हूँ  … 
आज की ख़ास कलमकार हैं, 



और प्यार हो गया

यद्यपि मेरे जीवन में
पूर्वनियोजन था प्रारब्ध का
तुम्हारा पदार्पण
तथापि प्रतिक्षण
प्रति पदचाप
कान जा टिकते हैं
द्वार पर
सुनने को
करने को अनुभूत
तुम्हारा आगमन
जाने क्या परिचय है
तुम्हारे पदचापों का
मेरे कानो से
अनाम है
परन्तु
सर्वथा अंतरंग
कुछ अनाम अंतरंगता भी
बिखेर देती है जीवन में
भीनी सी सुगंध
मादकता से परिपूर्ण
अविदित, अवर्णित
परन्तु अभूतपूर्व तुष्टिदायक
यह विचार मन में आते ही
चिंतन छोड़ कर
जुट जाती हूँ मैं फिर से
तुम्हारी प्रतीक्षा में
और मेरे चहुँ ओर
फूलने लगती हैं
सुगंध की क्यारियाँ
जब हुआ था
हमें परस्पर प्रेम
कहा था तुमने
एक रस-कुण्ड है तुम्हारा प्रेम
निमग्न होना जिसमे
रुचा था मुझे
कहा था तुमने
एक भाव-गिरि है तुम्हारा प्रेम
जिस पर आरोहण
मुझे देता था सुख
कहा था तुमने
तुम अब तक हो
धरातल प्रेम का
और वहीं के होकर
चाहते हो रहना
मैंने कहा था प्रिय
तुम मुझ से ही हो
और 
प्यार हो गया



शायद दुनिया फिर बस जाए ....


जंगल-जंगल तुमको ढूँढा
तुम पानी में बैठे थे 
जब बारिश का मौसम आया 
तब तुम मुझको आये नज़र
जीवन कश्ती 
रूह खेवैया 
जिस्म समन्दर पार करें
आओ फिर तस्वीर बनाएँ
साँसों का कोलाज भरें
इस दुनिया में इतना कुछ है
इतने रंग कि हैराँ हूँ
तुम तो एक मुकम्मल दुनिया
कौन से इसमें रंग बहें
आड़ी-तिरछी रेखाओं में
हमने सड़कें ढूँढी थीं
कितने ख्वाब सजाये मिलकर
और लकीरों के जंगल में
महलदुमहले ढूंढें हमने
लेकिन जिस्म पसीना बनकर
नदियों से जा मिलता था
नदियाँ रेत बहाती रहतीं
हर चौराहा जंगल-जंगल
हर मैदान में दलदल-दलदल
खुश्क ज़मी को आओ तलाशें
फिर से इसमें फूल खिला दें
फिर से इसमें खुशबू भर दें
शायद फिर से बौर आ जाए
शायद दुनिया फिर बस जाए ............


उसका सच
*********

तुम्हे बता दूँ एक सच?
जब खिड़की से पलाश का रंग 
धूप के साथ इठलाता हुआ 
मेरे बिस्तर पर आता है 
जब बालकनी में झुक कर चाँद 
झूला झुला जाता है 
तुम्हारे श्रृंगारदान पर छोड़ी हुई तुम्हारी चूड़ियाँ 
जब मेरे हाथों से उलझ कर फर्श पर खनखना कर 
बिखर जाती हैं
गोया हर वह चीज 
जो है अस्तित्व में 
धूप,खुशबू या 
तेरे लिए मेरी कसमसाहट 
सब कुछ सिमटती हुई 
हमेशा जाती हैं तुम्हारी ही तरफ 
मानो तुम मेरे लिए ही बनी हो
चलो अब तुमने जब 
मुझे अब प्यार करना कम करना शुरू कर ही दिया है 
तो मुझे भी अब 
अपना थोड़ा प्यार बचा लेना चाहिए 
मेरी जिंदगी के मकामों से 
गुजरती है जो हवा 
तुमसे लसी हुई होती है 
और मुझे 
ले जा पटकती है 
दिल के ऐसे किनारे पर 
जहाँ तुमने इरादा कर लिया है 
मुझे अकेला छोड़ देने का 
उसी किनारे पर 
जमी हुई हैं मेरी जड़ें 
भूलना मत
तुम ऐसा क्यों सोचती हो 
कि तुम मेरी नियति हो 
और हर दिन एक फूल 
सुबह-सुबह एडियाँ ऊँची कर के 
तुम्हारा मुँह चूम लेगा?
ओह मेरी प्यार, 
मेरी अपनी 
मेरे भीतर 
कुछ बुझा नहीं है अब भी 
समझो इस सच को
जिन्दा है मेरा प्यार 
तुम्हारे प्यार के ही दम पर 
अब जब तुम बंद कर रही हो 
मुझे प्यार करना 
तो सोचता हूँ 
मैं भी समेट लूँ अपना प्यार का पिटारा 
बंद हो जा सिम सिम 
खेल खत्म |

शुक्रवार, 6 नवंबर 2015

मील के पत्थर (६)





पढ़ते हुए मीलों की दूरी तय करते हुए ठिठकती हूँ - नायाब पत्थरों पर खुदे एहसास मेरा सुकून बन जाते हैं, और क्षितिज पर अपना नाम दर्ज करते हैं !
कौन कहता है क्षितिज भ्रम है 
वहाँ तक पहुँचने के लिए 
प्रकृति की प्राकृतिक बातों को समझना होता है 
तब क्षितिज पास होता है  … 


क्षितिज पर दर्ज एक नाम सुरेश चन्द्र 
https://www.facebook.com/sureshchandra.sc

(१)
बचपना कौंधता है... 
अचानक ही... 
उम्र की स्लाइड से... 
मैं पीछे फिसलता हूँ...
मोंटेसरी की प्रार्थनाओं मे... 
जा गिरता हूँ... 
हाल्फ़ शर्ट की बाईं तरफ... 
रुमाल पिन किए हुये... 
'सिस्टर क्रिसपिन' हंस देती हैं... 
मेरी तोतली 'छोर्री' पर...
'व्रूम' की आवाज़ निकालता हूँ... 
हाथ से 'स्टीएरिंग' घूमाता हूँ... 
दौड़ पड़ता हूँ, स्कूल तक... 
लकड़ी की बेंच पर... 
चुरमुर करते हुये... 
पार करता हूँ 'अडोलोसेंस'
'बोर्ड्स' की चिंता पेशानी पर लिये... 
नहीं दे पाता लाल गुलाब, 'नुज़्ज़त' को... 
बेस्ट ऑफ लक कहते हुये, झेंप जाता हूँ... 
मेरी प्रैक्टिकल की कॉपी, सोख लेती है, 
उसी गुलाब की सूर्ख, दर्दीली पंखुरियाँ ... 
मेरा कोई निशान नहीं छूटता उसकी नोटबुक मे... 
बस वो मुझमे, कहीं 'दबी' रह जाती है...
पापा के सोंधे सपने... 
मुझे उड़ा ले जाते हैं विदेश... 
जहां हर 'डिग्री' के एंगल बनाती है... 
मंसूबे कातती जवानी... 
'करियर' और 'कॉरिडॉर' के बीच... 
कॉलेज की लड़की, जिसे... 
चूमना नहीं आता... 
कुतरती है मुंह मेरा...
अचानक चौंक कर उठता हूँ... 
और गिनती से वापस... 
आ पहुंचता हूँ गणना मे... 
नौकरी से 'बिज़नेस' तक... 
चश्मे के काँच पर भाप सा जमता हूँ... 
और पोंछ देता हूँ सारी हसरतें... 
अधेड़ होती मजबूरियों के लिये...
वो गाने, वो किताबें, वो मंसूबे, वो चाहतें... 
वो लोग सारे जो बीत कर, मुझमे पैठे हैं... 
कहते हैं... एक बार मुड़ कर, लौट आ 'बेरहम'... 
कुछ तो पूरा कर जा, 'अधूरी' कसकती टीस मे... ... .... !! 


(२)
कई बार ऐसा होता है...
हम निहायत अकेले होते हैं... 
रिश्तों की ठसाठस भीड़ मे... 
उम्मीद का बैरियर 
एक झटके से टूटता है...
और हम अपने अंदर... 
भगदड़ मे कुचले जाते हैं...
कई बार ऐसा होता है...
हम वो कह देना चाहते हैं... 
जिसे कह देना... 
संस्कार की घुट्टी पर... 
नीला फ़ेन ला देता है... 
और हम बेहद सेंसिबल हो जाते हैं... 
हमारे होने की 'हद' लिए...
कई बार ऐसा होता है...
जब हम बहुत अशांत होते हैं... 
स्क्रोल करते हैं... 
मोबाइल की पूरी कांटैक्ट लिस्ट... 
और किसी एक नंबर को मिला पाना... 
तय नहीं कर पाते... 
क्यूंकी हम पूरे 'मिले' होते हैं...
अपने ही, हर 'अधूरे द्वंद' से...
कई बार ऐसा होता है...
हम कोई मखौल नहीं बनाते... 
तमाशाई दुनिया का... 
और उसकी हर खिल्ली पर... 
मुस्कुरा देते हैं...
दम घुटते माहौल मे...
क्यूंकी बने रहना वहाँ बेहद ज़रूरी है... 
जहां के हम कभी, 'ज़रूरी नहीं' होते...
... कई बार ऐसा होता है... ... ... !! - 


(३)
तुम जब... 
जानना चाहते हो... 
मेरी 'उम्र' कि 'ऊंचाई'... 
पूछ बैठते हो... 'किस' तरह, इतने बसंत' ???
मैं नहीं दिखा पाता तुम्हें... 
मेरे अंदर
'पतझड़' का 'झड़का'... 
किसी भी 'पत्ते का संहार'...
तुम जब... 
जानना चाहते हो... 
मेरे 'रहस्यों' की 'गहराई'... 
'गिनते' हो मेरे 'अवसाद'... 
सुनने से 'अधिक'... 'बुनते' हो 'प्रमाद'... 
मैं नहीं जता सकता तुम्हें... 
अपनी 'जड़ों' कि 'जिजीविषा' पर... 
एक भी 'प्रहार'...
तुम जब... 
जानना चाहते हो... 
मेरी परिधि, मेरे वृत का आकार... 
गणना करते हो, त्रिज्या का आधार... 
मैं मोल कर औपचारिकता, शिष्टाचार... 
कहता हूँ... 
तुम्हारी धारणाओं के अनुपात मे, सरकार...
... तुम्हारी जिव्हा के... स्वादानुसार... ... .... !! 

बुधवार, 4 नवंबर 2015

मील के पत्थर (५)




जीवन में हास्य हो तो मकसदों के रास्ते लहूलुहान होकर भी मंज़िल को पाते हैं  … एक नन्हीं मुस्कान बहुत ताकतवर होती है !

आज इस मीलों की जीत में एक नन्हीं मुस्कान दे रही हैं -
सुनीता शानू 


व्यंग्य नरक में डिस्काऊंट ऑफ़र का कविता रुप



सेल की दुकान देखते देखते
एक आदमी 
नरक के दरवाजे आ गया
यमराज को देख घबरा गया
बोला हे महाराज
इतनी जल्दी क्यों मुझे बुलाया
अभी तो मेरा समय नही आया
यमराज बोला 
तुम्हें बुलाया नही गया है
तुम खुद चले आये हो 
लालच मे फ़ँस कर
हमने जो नाइनटी पर्सेंट ऑफ़र का
बोर्ड लगाया
ऎ मानव तूं उसी में फँसा आया
पर हुजूर नरक तो है यातना गृह जैसा
फिर ये ऑफ़र ये डिस्काऊँट कैसा???
यम्रराज झल्लाया
अरे क्या हमे मूर्ख समझ रखा है
तुम रोज अपनी रणनीति बदलते हो
नये-नये ऑफ़र देते हो
और तो और सुना है
आजकल तुहारी जेलो मे
कैदियों को मोबाईल से लेकर एसी तक
सारे सुख मिलते हैं
तुमने चोरो अपराधियों को इतना सम्मान दिया है कि
आजकल वो टी वी पर दिखते हैं 
छोटे चोर हो या बड़े चोर
सब अपना कैरियर बनाते हैं
इसीलिये हमने
ये तरीका अपनाया है
सेल का ऑफ़र दे
तुम्हें बुलाया है
और सोच विचार कर
विशेष फ़ेसिलिटी देने का निश्चय किया है
ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग परिवार सहित
नरक मे आयेऔर 
हमारे नरक का नाम रोशन करें
अच्छा ऎसी बात है
तो क्या ऑफ़र है बताईये
यमराज बोला
जवान आने वाले के साथ
एक के साथ एक फ़्री होगा
रूम विद अकोमोडेशन मिलेगा
फ़ार्म धरती पर भिजवा दिये गये हैं
जो जल्दी भर देगा उसका नम्बर पहला
आदमी फोरन रहने के लिये तैयार हो गया
बोला मै तो शरीफ़ आदमी हूँ सरकार
चोरो के लिये वार्ड अलग बने होंगे न
उन्हे तो आप जरूर यातना ग्रह में डालेंगे
यमराज बोला अरे मानव 
तू सचमुच पक्का बिजनेस मैन है रे
तेरी धरती पर भी
क्या चोरो का मुह काला होता है
क्या अब भी उन्हे गधे पे बिठाया जाता है
आजकल चोर तो वाह वाह करते नजर आते हैं
चोरी करके इनाम पाते है
चोरो के करिश्मे इतने मशहूर हुए हैं
कि चोर सेलिब्रिटी बन जाते हैं
जब तुम्हे चोरो को अपनाने में एतराज नही तो हमें क्यूं होगा
हमने फ़ैसला किया है
धरती के जैसे ही यमराज की जेल
पूरी तरह से सुख सुविधाओं से लैस होगी
ताकि प्रकृति के नियम को न बदले आदमी
समय-समय पर नरक में भी आ जा सके
आदमी खुशी से झूम उठ
पूरे परिवार के साथ स्पेशल डिस्काऊँट पा गया
धरती से दौड़ता हुआ नरक में आ गया 


अठन्नी तो बचाओ (चवन्नी प्रकरण)



सुबह-सुबह की खबर पर
पड़ी जब नज़र
प्यारे ने पुकारा
प्रभु! तेरा ही सहारा...
आज संसार का तुमने
क्या हाल कर दिया
मंहगाई को जवान
और
प्याज को बदनाम कर दिया

कितने सुखी थे हम
इकन्नी दुअन्नी के जमाने में
एक उम्र बीत गई थी
चवन्नी कमाने में
आज उसी चवन्नी को
कर दिया आऊट
क्या आयकर विभाग को था
मेरी चवन्नी पर डाऊट?

हे सर्वशक्तिमान
कोई उपाय बतलायें
सरकारी चंगुल से मेरी
चवन्नी को छुड़वायें...

सुनकर प्यारे की चिल्ल पौं
पत्नी दौड़ी आई
तुमको भी न प्यारे जी
कभी अकल न आई
बेवजह इतना चिल्लाते हो
सुबह सुबह बेचारे
पडौसियों को जगाते हो...

सुनकर पत्नी की फ़टकार
प्यारे लाल बोले
सुनो मेरी सरकार
क्या जमाना आ गया
मेरी चवन्नी को ही
खा गया...

पत्नी बोली प्यारे जी
चवन्नी तो जाने कब से
खो गई थी बाज़ारों में
लुटते-लुटते लुट गई थी
भिखमंगों की कतारों में
और अब तो
भिखमंगो ने भी पल्लू छुड़ा लिया
जाने कबसे
सम्पूर्ण चवन्नी को ही गटका लिया

चवन्नी का तो बस
रह गया था नाम
अस्तित्व तो कबका
सिमट गया श्रीमान...

प्यारे हुए परेशान बोले भाग्यवान
चवन्नी भर की चवन्नी ने
कितनी दौड़ लगवाई थी
तब जाके एक चवन्नी
अपनी जेब में आई थी।
इस छोटी सी चवन्नी ने
कितनों को बना दिया
चवन्नी छाप
कैसे भूल गई हैं
 इसकी गरिमा को आप?

रोते हुए प्यारे को
पत्नी ने समझाया
चवन्नी खोने का गम
है उसे भी बतलाया

जो होना था हुआ प्यारे मोहन
खुद को अब समझाओ
हो सके तो अपनी
अठन्नी को बचाओ...

मंगलवार, 3 नवंबर 2015

मील के पत्थर (४)




भावनाओं के रास्ते अंतहीन होते हैं, कई भाव स्तम्भ की तरह मिलते हैं, जिनसे टेक लगाकर बैठना, उनसे अपनी भावनाओं के तार जोड़ना असीम सुकून देता है  … 


आज भावों का स्तम्भ हैं 
© आशा चौधरी,  संपादक- भारतकोश

सपने


एक डग रख कर 
जब डग दूसरा
बढ़ाया था
जाने अनजाने 
एक गठरी सी 
बंध गयी थी 
मेरे साथ 
सपनों की

पता ही नहीं चला 
कि कब 
इस ज़िन्दगी के 
सफ़र में चलते चलते 
वज़न बढ़ता गया
सपनों का
जब तक समझ में आया
सपने बहुत भारी हो गये थे
और सफ़र मुश्किल...

धीरे धीरे सपनों का
वज़न कम करना 
शुरू कर दिया
हर मोड़ पर उतार रखा
एक सपने को 
और उम्र के इस पडाव पर
जब सपनों की सुध ली
तो देखा 
वो सपने तो मेरे 
थे ही नहीं…

अपने सपने तो सबसे पहले
उतार कर रख दिए थे
किसी मोड पर
और जो साथ थे
वो ना मेरे थे
और ना ही उनकी
थी ज़रूरत अब…

आँख खुली तो
सपने नहीं हैं
और जब सपने थे
तो एहसास ही नहीं था...
सपनों का...



मैं तो कृष्ण हूँ


तू मेरी राधा
मेरी मीरा
मेरी रूक्मणी
मेरी सत्यभामा
तू जामवंती, सत्या,
भद्रा, लक्ष्मणा,
मित्रविंदा और कालिंदी भी
और गोपियाँ भी

सारा प्यार तुम्हारा
समर्पण तुम्हारा
प्यार तुम्हारा
विश्वास तुम्हारा
सब तुम्हारा
पर मैं ?

मैं तो कृष्ण हूँ
राजनीति मेरी
चालें मेरी
व्याख्याएँ भी मेरी
मैं किसी एक का नहीं
इसीलिए
मेरा कोई सहचर नहीं
मेरे पास ज्ञान है
महाभारत है
गीता है
ब्रह्माण्ड है
मैं कभी मरता नहीं
इसलिए कभी जीता भी नहीं
मेरे पास हृदय नहीं
सिर्फ़ मस्तिष्क है
साम दाम दण्ड भेद
कुछ भी करना हो
अंत में जीतता तो
मैं ही हूँ
जीतता हूँ
योग से
शक्ति से
छ्ल से
माया से
छाया से।
उद्देश्य नहीं
मेरे लक्ष्य होते हैं
छ्ल, प्रपचं
सब रचता हूँ
और इस सब में
मैं भी हारता हूँ
मैं ही हारता हूँ...

सोमवार, 2 नवंबर 2015

मील के पत्थर (३)




कई चेहरे जीवंत पांडुलिपियाँ होती हैं, जिनका प्रकाशन मस्तिष्क करता है,  !.... 
पढ़ते हुए शब्द धमनियों में प्रवाहित होते हैं, और बीमार मन, अकेले मन के सहयात्री बन जाते हैं ! मीलों रास्ते पल भर में बदल जाते हैं, एक सारांश सा मिल जाता है अपनी सोच, अपनी चाह का  .... 
मिलिए अंजना टंडन से 

(1 )
सुनो
अगर तुमसे पहले
कभी मैं चला जाऊँ
तो,
मेरी कब्र पर, तुम
रोज़ मत आना,
फूल भी मत लाना,
सिर्फ
घर बैठ कर
चार काम करना....!!!!
सुबह सुबह
अपने बिस्तर पर
मेरी वाली साईड के
तकिये को गले से लगा,
अपनी मधुर श्वासों
से भर देना.....
......
फिर चढी दोपहरी
मेरी कमीज़ की
तह खोल,हाथ फिराना
सूँघना ,सहलाना
फिर से तहाना
और, साथ ही
बाईं तरफ की जेब में
जरा सा हाथ डाल देना,
मेरा धड़कता सा दिल
तुम वहीं पाओगी....
..........
शाम ढले
बाहर बगिचे में
मेरी पसंद के
पेड़ों के झुरमुट तले बैठ
फुदकती, घर लौटती
गिलहरियों को देखना,
उनकी धारियाँ गिनना,
तुम कहती थी ना, कि
" जितनी धारियों वाली
दिखाओगे, उतनी बार मैं
तुमको प्यार करूँगी "
चीटिंग मत करना......
............
और, देर रात
उसी तरह तैयार होकर
एक एक कर जूड़े में से
पिन निकालना,
बुन्दे खोलना
इत्र लगाना
और फिर, आइने में
देख, अपनी आँखों के
सारे शून्य
एक एक करके
जमा करना,
उनसे पहले मेरी
एक खनकती सी, प्यार भरी
मुसकराहट लगा देना,
पूरी रात के लिए वो
काफी होगी.....!!!
और हाँ,
सुबह होने से पहले
पोरों से हथेली पर मेरा नाम लिख
अपनी पलकें रख देना
चार थमे से, घुटते हुए से
आँसू बहा देना...!!!
मेरी कब्र पर
तुरन्त से
चार फूल उग आयेंगें.....
बस और कुछ नहीं करना 
मेरी कब्र पर तुम मत आना...!!!



(2 )
उम्र की सीढ़ियाँ चढ़ते चढ़ते
पहुँच गई थी
उस घाट तक , जहाँ
निर्लिप्तता का एकान्त था,
सरोवर में व्याकुलता नहीं
एक निस्संग तल्लीनता थी,
उस पल में अटकी थी सालती सी
एक लुढ़कते आत्मविश्वास की गंध,
किनारे पर खड़े बरगद के
शुष्क पत्ते निस्पृहता से
पानी की कगार पर
डूबक डूबक के
अंतिम यात्रा पर थे,
दूर दूर तक फैली थी एक
उदास धूप की पीली सुगंध,
इसके पहले कि
अवसाद का विलाप
मुझ पर आलम्बित होता,
सुनाई दिया
जल की सतह पर
फूटते बुलबुलों का हास्य,
ये कैसा एक
हवा का ताजा झोंका,
शायद
जीवन था कहीं तली में,
बस ज़रूरत थी
फेफड़े भर के
एक
गहरी डुबकी की,
इस छोर पर मैं
मंथर ही सही
पर गतिमान हो
निगल लेती हूँ
वो अटकते
हलक के काँटें,
उलटी कलाई से आँखें पौंछ
समुन्दर के वक्षस्थल को
सौंप देती हूँ
अपनी कृशकाया सी नाव ,
कितना कुछ पाना है
कितना कुछ मिलता है
एक और कोलम्बस जन्मता है,
दूर तक फैली थी 
आमंत्रित करती
गुनगुनाती धूप, 
कितना आसान था वो सफर....!!!