मंगलवार, 11 नवंबर 2014

सरस्विता पुरस्कार से सम्मानित श्रेष्ठ कहानी 2014




रचनाकार का नाम : डॉ स्वाति पांडे नलावडे 
पता :इ ७०४, केप्रिशियो , दत्त मंदिर रोड़ , वाकड़ , पुणे ४११०५७ 
मोबाइल नंबर : ९९७५४५७०१२
ईमेल एड्रेस : swati.nalawade@gmail.com
रचना का शीर्षक : पंद्रह यादव कॉलोनी 
विधा : कहानी 

पंद्रह यादव कॉलोनी 
(१)
 चटोरी रूही 
“ ‘और मुझे ताल के पास खड़े होकर सिंघाड़े समेटने हैं ...हरे हरे कच्चे सिंघाड़ों को अपनी फ़्रोक में लपेट कर लाती थी मैं और फिर... वैसे उन्हें छील के नमक मिर्च लगा के खाने में कितना मज़ा आता है ...तुम बम्बई वाले लोग क्या जानो ताल तलईया के बारे में !”’
“ ‘रूही , रूही ...’”
“ ‘आं ..क्या हुआ, सुभा ?”’
“ ‘रूही , तुम क्यों ये सब बातें करती हो ? और फिर क्या तुम भूल गयी कि मैं भी तो तुम संग यादव कॉलोनी  जबलपुर की ही तो पैदाइश हूँ ? क्या मैं कभी सिंघाड़ों का स्वाद भूल पाया ?”’
“ ‘हाँ हाँ, भूले नहीं तो कभी याद भी तो नहीं किया !” - कुछ इठलाते हुए रूही बोली |’
“ ‘खैर , ये बताओ तुम्हें और क्या करने को मन करता है ?”’
“ ‘पता है, भोपाल जाने के बाद मेरा चटोरापन और भी बढ़ गया था”’ कहते कहते रूही की आँखों में एक बदमाशी भरी चमक कौंध गयी | 
“ ‘मतलब?’”
“ ‘मुझे खट – मीठे बेर कितने पसंद थे , ये तो तुम जानते ही हो ..फिर मैंने भोपाल के अपने स्कूल के बाहर कितनी तरह की इमलियाँ खायीं क्या बताऊँ ...चपटी छोटी एकदम हरी कन्च खट्टी इमली , बाहर से हरी और भीतर से लाल कन्च, तेज खट्टी- बड़ी इमली , बाहर से भूरे छिलके वाली और अंदर से हरी हरी बेहद खट्टी मोटी इमली, और फिर सूखे हुए इमली के खट्टे मीठे गदराए बूटे जिसे बेचनेवाला भैया नमक मिर्चे में लपेट के देता था ..आह क्या मज़ा आता था उन्हें चूसते रहने में! फिर एक होती थी इलायची इमली ..वो ना तो इलायची थी और ना ही उसमे इमली के कोई गुण ! मीठी सी फीकी सी इमली की तरह दिखनेवाली इलायची इमली बहुत कम ही पसंद आती थी लेकिन फिर भी सभी बड़े चाव से खाते थे ! ये तो हुआ इमली पुराण , इसके अलावा गंडेरी (गन्ने के छोटे कटे टुकड़े ) जिस पर कभी गुलाब जल छिडक के तो कभी मलाई डलवा के हम लोग मजे से खाते थे ! फिर, बेर ..मारवाड़ी बेर, हरे बेर, लाल उबले बेर, जाम ..माने अमरूद ..कचोरियाँ आइसक्रीम ..जीरा गोली , हर्पर रेवड़ी ...”’
‘चटोरी रूही !” सुभा चिढ़ाते हुए बोला !’
“ ‘आं ? क्या ,क्या कहा तुमने ?”’
 ‘“चटोरी कहीं की ...चटोरी रूही !! भोपाल जाकर तुम पूरी चटोरी बन गयी .. अच्छा कहो तो मैं यदि तुम्हें ये सब ला दूँ तो तुम खुश हो जाओगी ?”’
 ‘“नहीं, मुझे और भी बहुत कुछ चाहिये !”’
 ‘“बोलो क्या ?”’
 ‘“बंगी जम्पिंग..
लेह लद्दाख की बाइक ट्रीप...
पब में जाकर बेख़बर होकर थिरकना चाहती हूँ मैं ... हाँ , जानती हूँ तुम कहोगे कि  “इस कल्चर को तो बिलकुल पसंद नहीं करती हो!” लेकिन फिर भी .. जो पसंद न हो उसे भी तो कर के देख लेना चाहिए कभी !”’
“ ‘और??”’
“ ‘और ....हज़ारों हज़ार लाल गुलाब, पैरिस .... पैरिस की सैर ..” कहते कहते उसके गोरे गाल गुलाबी हो गये |’
 ‘“रूही तुम्हें ठण्ड लग रही होगी , चलो कमरे में चलते हैं ...”’
 ‘“आं ... हाँ .. न न अभी नहीं कुछ देर बाद ..” “हाउ अन-रोमान-टिक” रूही मन में बोल पड़ी |’
 ‘“अच्छा और क्या करने का मन है ?”’
 ‘“मुझे वो स्वेटर की अधूरी पड़ी बाँहें बुननी हैं ..माँ के घर में किसी अलमारी में शायद अभी भी वो पोलीथीन पड़ा होगा जिसमें अधूरा बुना सामान  पड़ा है ...”’
“ ‘और ?”’
 ‘“और मुझे बर्फ में खेलने जाना है ...”’
 ‘“रूही , तुम सचमुच में पागल हो गयी हो”’
 ‘“क्यों? क्योंकि मैं अब नानी बन गयी हूँ और मुझे ये सब शोभा नहीं देता ?”’
 ‘“नहीं बाबा ...”’
 ‘“फिर? क्या मेरी बीमारी के कारण ?”’
 ‘“हे ..कुछ भी बकवास मत करो तुम ! तुम्हें सिर्फ बुखार हुआ है जो एक दो दिन में ठीक हो जायेगा”’
‘“ठीक है , फिर बताओ ..क्यूँ नहीं मैं ये सब कर सकती ?”
“मैं ये सब करुँगी मिस्टर सब्यसाची दत्ता , माई डियर दोस्त सुभा ...और तुम्हें अपने संग लेकर जाऊँगी उन सभी जगहों पे और वो सब खिलाने जिनका मैंने तुम्हें ज़िक्र किया है ! तुम बस देखते जाओ ...”’
“ ‘हाँ हाँ ...जरुर ...”’
मासूमियत या तो होती है या नहीं होती ... मासूम ख़्वाब, मासूम तमन्नायें , मासूम भावनाएं ... मासूम बच्चा , मासूम प्रेमी .. इन सबमें मासूम शब्द कितना सुन्दर लगता है, अद्भुत भाव जगाता है ! कहते हैं ना कोई भी बात इस जग में स्थायी नहीं होती ... और जहाँ तक मासूमियत का सवाल है, लोगों का मानना है कि यह उम्र-दराज़ वाकया नहीं होता .. इंसान बड़ा होता है और उसकी मासूमियत पीछे छूटती जाती है | बहुत कम ही ऐसा होता है कि ये मासूमियत अंत तक ऐसे ही बनी रहे ! रूही को देखकर आज ये कहना मुश्किल हो गया है की ये सच में बड़ी हो गयी है या वही चार साल की मासूम रूही रह गयी है ... सुभा सोचने को मजबूर हो गया |
“ ‘रूही, चलो अब अंदर चलते हैं ओके! अब तो मुझे भी ठण्ड लगने लगी है, तुम्हारी तो कुल्फ़ी बन रही होगी ! तुम्हें तो उतनी बचपन में भी साल भर जबलपुर में ठण्ड  लगती थी ! सारे सारे वक़्त वो कार्डिगन – पीले – नीले रंग का पहने घुमा करती थी” !’
 रूही ने हँसते हुए अपने कांधे पर हल्का नीला नरम शाल लपेटा और उसे सुभा को दिखा कर चिढाने लगी | सुभा बिस्तर पर लेटा  हुआ था सो उसके पैरों को उसने हौले से बिस्तर पर ठीक किया ,बिस्तर के सिरहाने रखा ब्लेंकेट उठा कर उसे ठीक तरह से सुभा के पैरों पर ओढ़ाया | हौले से सुभा के माथे पर गिर आयी बालों की लट  को सँवारते हुए रूही ने बगीचे से कॉरिडोर  जाने वाली पगडंडी पर उसके पहिये लगे बिस्तर को गोल घुमा कर धीरे धीरे ठेलना शुरू किया | 
“ ‘अरे बाबा ब्रदर को बुला लो ना ....तुम क्यूँ धक्का दे रही हो, थक जाओगी?”’ 
 ‘“क्यूँ , मेरे धक्का देने पर डर लगता है तुम्हें ?”’
 ‘“नहीं ऐसी बात नहीं है रूही!” सुभा की आवाज़ अचानक नरम हो गयी थी |’
 ‘“हेल्लो सब्या, हाउ आर यू फीलिंग नाऊ ?’” कैंसर केयर ट्रस्ट के वरिष्ठ चिकित्सक एवम संस्थापक  डॉ श्रीमाली अक्सर शनिवार को अपने सभी मरीज़ों से पर्सनली मिलने आते थे |
“ ‘आई एम फाइन डॉक ! आजकल मुझे बहुत अच्छा लग रहा है ---- मेरी जन्मों की बिछड़ी दोस्त जो मुझे मिल गयी ! रूही , इनसे मिलो , ये हैं मेरे मित्र , डॉ श्रीमाली ! हम दोनों ने सीएटल के फ्रेड हचिन्सन कैंसर रिसर्च सेंटर से एक साथ पढ़ाई की थी , बोन मेर्रो ट्रांसप्लांटेशन में और साथ ही वापस भारत लौटे थे ये सोच कर की देस में हम जैसे चिकित्सकों की बहुत जरुरत है | दोनों ने बीकानेर के कैंसर हॉस्पिटल से अपने करियर की शुरुआत की थी और फिर साथ ही पुणे में इस कैंसर केयर ट्रस्ट की स्थापना की | दोस्त तो आज भी सबकी सेवा कर रहा है ....मैं सेवा का मज़ा लूट रहा हूँ .. हा हा हा’ ....”  डॉ श्रीमाली ये सुनकर सब्यसाची के  गले मिले और एक ज़ोरदार ठहाका लगाया |
“ ‘और डॉक , ये हैं रूही ...”’
“ ‘मिसेज़ रूही लोखंडे.. नमस्ते !”’ रूही ने हाथ जोड़, कुछ अचकचाते हुए कहा |
“ ‘हाँ ... रूही मेरे बचपन की दोस्त हैं .. इत्तेफ़ाक़न यहाँ मिल गयी ... बस पिछले हफ्ते, इतवार को .. यहाँ सोशल वर्क करती हैं और बचपन में मेरे संग यादव कॉलोनी जबलपुर में खेला करती थी ....”’
ये सुनकर डॉ श्रीमाली ने बायीं तरफ की  भौं ऊपर करते हुए सब्या की ओर प्रश्न करते हुए देखा !
“ ‘अरे भाई , बातों बातों में बात चली तो पता पड़ा .. अब मैं इसकी भी सेवा का मज़ा लूट रहा हूँ ! खुद तो बच्ची सी है और देखो कैसे ख्याल रखती है --   जैसे मैं कोई छोटा बच्चा हूँ !”’
 ‘“हेल्लो रूही , तुमसे मिल कर बहुत बहुत अच्छा लगा ! वैसे यकीन करो , मैं सब्या को ये सारे मज़े ज्यादा दिन नहीं लेने दूँगा ....”’
 ‘“मतलब ?” रूही ने डरते हुए पूछा’
 ‘“अरे मतलब ये कि बस जल्दी से जल्दी इनका ऑपरेशन करूँगा , इन्हें कीमो - मेडिसिन देकर, फिजियोथेरेपी देकर, फटाफट आराम करवाऊँगा और वापस काम पर लेकर आऊँगा !”’
 ‘“ओह्ह अच्छा !” कहते हुए रूही मुस्कुरा दी ...’
 ‘“डॉ श्रीमाली, मुझे भी बहुत अच्छा लगा आपसे मिल कर |आपसे ज़िंदा दिल दोस्त तो बहुत बड़ी नेमत है सुभा के लिए !”’
“ ‘ये सुभा वाला क्या किस्सा है भाई सब्या ? हम तो बचपन ही से तुझे सब्या बुलाते आये हैं... तू सुभा भी है ? खैर, मैं अपने राउंड खत्म कर आप दोनों से मेस में लंच के वक्त मिलता हूँ , चलेगा ?”’
 ‘“ठीक है डॉक , मैं भी तब तक आराम करता हूँ ...”’
“ ‘तुम बहुत सोने लगे हो सुभा !”’
“ ‘हाँ कभी कभी नींद आना भी चाहिए !” दुर्गा दीदी की मौत को ज़िम्मेदार माननेवाला सुभा जैसे जन्मों से सोया ही ना था  ... इन दिनों दवाईयों का असर कुछ ऐसा था की उसे कयी बार नींद आ जाती थी |’
रूही कहने लगी थी , “’सुभा , तुम्हें तो अभी वो छिपा छायी वाला खेल खेलना है, याद है .... हम दोनों ने मिलकर उसे बनाया था ..”’ लेकिन रूही चुप हो गयी | दुर्गा का ख्याल आकर रूही चुप हो गयी ... साथ ही  कैंसर के कारण सुभा को राइट पाँव में बहुत बड़ा सिस्ट नुमा घाव हो गया था जिसका ऑपरेशन करना आवश्यक था—सुभा अब वो खेल क्या ही खेल पायेगा | सुभा को भी इस बात का पूरा इल्म था लेकिन वो इससे कतई परेशान नहीं था |
सुभा को नींद आने लगी ये देख कर रूही अपने कमरे की ओर लौट गयी | क्या सुभा दुर्गा दी की मौत से कभी उबर पाया था ? इसकी पत्नी, बच्चे और वो छोटी बहन कहाँ हैं ? रूही को जल्दी थी की कब लंच की बेल बजे और कब सुभा से ये सारे सवाल पूछे !

(२)
 सुकून रूह का
  ‘“अच्छा बताओ तो निधि कहाँ है इन दिनों ? और तुम्हारा परिवार ?”’ सूप पीते हुए मेस में रूही ने सुभा से पूछा|
“  ‘हा हा वो ...हमार छुटकी बहना  .. वो बड़ी हो गयी है रूही ... हम सभी में छोटी होने के बावजूद वो ही आज बड़ा काम कर रही है | पुदुचेरी के आश्रम में सोशल वर्क करती है , तुम्हारी तरह ...”’
“ ‘मेरी तरह ?”’
 ‘“हाँ , जैसे तुम यहाँ सोशल वर्क करने आई हो !”’
 ‘“ओह हाँ हाँ ...” रूही ने खुद को संयत कर कुछ अनमने भाव से कहा |’ 
मेस में सादा किन्तु स्वादिष्ट भोजन मिलता था ...बिलकुल सात्विक | दोनों ही भोजन करने में जुट गये और पुरानी बातों का सिलसिला फिर शुरू हो गया |
“ ‘मेरे एकठो बेटा है ... इन दिनों यहीं मुंबई में काम करता है | पहले गुडगाँव में बड़ी कम्पनी में था | कहता हूँ उसे की तू भी पुणे आकर बस जा तो कहता है बाबा, रिटायर होकर आना ही है, आपका सहारा बन ! बेचारे की माँ बचपने ही में एक दुर्घटना में जाती रही, सो उसका माँ और बाबा मैं ही हूँ  ...”’
 ‘“मतलब तुम्हारे यहाँ भी सब के सब बैरागी ही हैं !’” खाना खाकर, हथेली पर सौंफ़ साफ़ करते हुए रूही ने पूछा |
 ‘“क्या मतलब ?”’
सुनते ही रूही ज़ोरों से हँस पड़ी और साथ ही उसे ज़ोरों से खाँसी आ गयी | इतनी खाँसी की जैसे उसकी जान ही निकल रही हो ... साथ ही उसे चक्कर भी आने लगे ...आजू बाज़ू से सिस्टर लोग दौड़ कर आयीं और उन्हें सहारा देकर अन्दर ले गयी |
“ ‘सुनो तो, की होबे ? क्या हुआ रूही को ?’” सुभा ने बेचैन होकर पास खड़ी  सिस्टर से पूछा |
 ‘“किछु न दादा ... ठसका लग गया ताई को लगता है !कितनी बार कहा है सौंफ़ ना खाया करो ....बस आती ही होंगी ...”’
उतने में रूही को आता देखकर सुभा कुछ आश्वस्त हुआ | 
‘“कहा था न, ठण्ड लग जायेगी .. बिलकुल ख्याल नहीं रखती हो अपना ..”’
रूही को अपनी शाल ठीक से लपेटते देख सुभा को उसे देखते रहना अच्छा लगा... चालीस साल बाद उस पाँच साल की बच्ची-सी अपनी दोस्त को याद करना अच्छा लगा!
उस रात रिक्रिएशन रूम में कैरम बोर्ड खेलने डॉक्टर श्रीमाली कुछ देर के लिए उनकी टेबल पर आये| अभी गपशप का दौर शुरू ही हुआ था की किसी पेशंट की तबियत ख़राब हो जाने से उन्हें तुरंत जाना पड़ा | उस जगह सोने का वक़्त तय था ... और दोनों ही वक़्त के बड़े पाबंद इंसान थे सो बेल होते बराबर दोनों एक दूसरे को गुड नाईट कह अपने अपने डोर्म में सोने चले गए |
सोते हुए उसका प्यारा शरारती चेहरा आँखों के सामने घूमता रहा | उस चेहरे ने मासूमियत और शरारत से उठकर किस तरह परिपक्वता के अनगिन पर्चे दिए होंगे ... किस तरह उसके लावण्यमयी सौंदर्य को यूँ संजीदगी की झालर आकर चिपक गयी होगी ? आज भी वो कितनी मोहक है | पत्नी की अचानक हुई मृत्यु ने सुभा को इस ओर से उदासीन कर दिया था | अपनी बाल-सखि को देख न जाने क्यों वो इन सारी बातों पर फिर सोचने लगा था ! अचानक सुभा को याद आया की रूही ने अपने बारे में अब तक कुछ नहीं बताया है ... सिवा इसके की वो अब नानी बन गयी है | “सुबह उसकी खबर लेता हूँ” कहते कहते उसे नींद आ गयी |
सुबह योगा करती हुई रूही सहज सी दिव्यता से आलोकित हो रही थी | सुभा अपनी व्हील चेयर में बैठा हाथ और गर्दन के एक्सरसाइज करता रहा |
“ ‘चलो नाश्ता करने चलते हैं ...”’
 ‘“तुम्हें बड़ी भूख लगती है ...”’
 ‘“जानती हो न कुछ मामलों में मैं पक्का बंगाली हूँ !!”’
 ‘“इश्श”..’
 ‘“अच्छा रूही , तुम्हारी नातिन क्या करती है ?”’
“ ‘नातिन नहीं , मुझे दो नाती हैं ..मेरी एक बेटी की शादी कलकत्ते में हुई है ... बंगाली से शादी की है”’ 
तिरछी नज़र के वार से सुभा बच नहीं सका और हँस दिया !
“ ‘वो छोटी वाली है आम्रपाली !’
 ‘उसे दो बेटे हैं ..रोज़ बतियाती है फ़ोन पे ... पति बिज़नेस करते हैं , और बड़ी वाली बेटी, वैशालिका फैशन मॉडल है ...दुनिया भर घूमती फिरती है ...शो पे शो करती है और जब फुरसत मिलती है तो उसके पापा ने दिए पैरिस के फ्लेट में आराम करती है |”’ हल्की सी मुस्कान और भीतर घुमड़ आये दुःख को दबाते हुए रूही बोली |
रूही ने अपने हाथों से टेबल पर रखे मोज़े लिए और धीरे से झुकते हुए खुद ही पहनने लगी .. 
 ‘“मेरे पति एनवायरनमेंटलिस्ट हैं ... देश का समाज का वातावरण न बिगड़े इसका ख़याल रखते हैं |”’ सुभा की ओर देखते हुए रूही बोली, ‘“इन दिनों ओम्कारेश्वर में जल सत्याग्रह में लगे हुए हैं ... आज शायद दसवाँ दिन है ... अन्य ग्रामीण बंधुओं संग नर्मदा मैया की गोद में खड़े हैं ... पिछले पाँच  सालों से नर्मदा बचाओ आन्दोलन और टेहरी बाँध के बीच बहते रहे हैं ... उन्हें माँ नर्मदा से बहुत प्यार है !”’
 ‘“तुम्हें भी तो है रूही ...”’
 ‘“हाँ बहुत ज़्यादा !”’
कुछ संजीदा होते हुए रूही बोली , ‘“पहले लोखंडे साहब एक बहुत बड़ी पॉवर कंपनी में बहुत बड़े पद पर कार्यरत थे ... एक रोज़ घर आये और बोले रूही , ये सब बेबुनियाद बातें हैं ... ये शिमला - देहरादून में बड़े मकान , ये मर्सिडीज़ में घूमना , पैरिस में अपना फ्लेट ... बस अब और नहीं .. अब मैं कुछ ऐसा करना चाहता हूँ जिससे मेरी रूह को सुकून मिले !”’
“ ‘और क्या उन्होंने ऐसा कुछ किया जिससे उनकी ‘रूही’ को सुकून मिले ?”’ 
 ‘“हाँ ..क्यूँ नहीं!! खूब ख़याल रखा मेरा हमेशा ...कभी किसी बात की कमी नहीं होने दी | मुझे आवाज़ देने की ज़रूरत नहीं पड़ती और ...”’
 ‘“और वो दौड़े चले आते!”’
 ‘“हा हा, वो नहीं , चार चार नौकर ! उनके पास सालों साल वक़्त नहीं रहा मेरे लिए ... लेकिन फिर भी देखो ना ...उन्होंने मुझे ख्वाब देखने की आज़ादी दी ... सिंघाडों , बेर को चखने की याद के ख्वाब .... बंगी जंपिंग और स्कूबा डाइविंग करने के ख्व़ाब! घर पर रहने वाली ‘होम मेकर्स’ को उनके पति अक्सर ये सबसे बड़ी नेमत देते हैं ... ख़्वाब देखने की आज़ादी की नेमत ! बस एक बात है, इसमें ख्वाब पूरा करने की शर्त नहीं होती !”’
बात शायद गंभीर हो चली थी , रूही ने जैसे ही सुभा की ओर देखा, वो दहल पड़ी .... सुभा का मुँह एक ओर को लटक गया था! वो ज़ोर से चीख़ी ... ब्रदर, ब्रदर ...प्लीज़ कम ..प्लीज़ हेल्प !
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(३)
 छिपा छिपायी, ये जीवन!
ऑपरेशन थिएटर से बाहर निकलते हुए डॉक्टर श्रीमाली ने अपनी पेशानी पे आये पसीने को बाँह ही से पोछते हुए सब्या के बेटे संबरन की ओर देखा और कहा,  ‘“तुम्हारे बाबा अब खतरे से बाहर हैं बेटा ! अच्छा हुआ तुम जल्दी से पहुँच गए , ये सब्या हमेशा से ही मुझे ऐसा ही दौड़ाता रहता है ...अचानक ही चौंका देने की आदत जाती नहीं कमबख्त की... कितने खेल खेलता है !”’
 ‘डॉक्टर अंकल, “इन्हें अब आगे की मेडिसिन ....”’
 ‘“बस इसे कुछ महीने फुल बॉडी कीमो देना होगा , कुछ साल तक दवाईयाँ और साल में दो बार मेरे पास चेक अप और हाँ ..फिजियो थेरेपी भी !”’
 ‘किन्तु बाबा तो आमार पाशे …’
 ‘जानता हूँ, वो तुम लोगों संग रहना पसंद नहीं करेगा... सोचता है क्यूँ तुम सभी को तकलीफ़ दी जाये! वैसे तुम्हें चिंता करने की कोई बात नहीं बेटा.. इसका मेडिकल का सारा ख़र्चा हम लोग उठायेंगे | इसने इस हॉस्पिटल को इतना दिया है , क्या ये हॉस्पिटल इसके लिए इतना भी नहीं कर सकता ?’” 
 ‘लेकिन बाबा यहाँ, अकेले ? वो भी अब बिना राईट लेग के ..”’
 ‘हाँ सो तो है लेकिन संबरन, वो यहाँ अकेले नहीं हैं .. उन्हें यहाँ एक साथी मिल गया है !”’
 ‘साथी? कौन??’ डॉक्टर संग चलते चलते संबरन कुछ खुश सा हुआ लेकिन चौंक भी गया |
 ‘एक भली सी स्त्री हैं ... क्या नाम बताया याद नहीं आता लेकिन कह रही थी की तुम्हारे बाबा की जबलपुर की दोस्त हैं !’” संबरन को क्यों बेफ़जूल कुछ ज्यादा बताया जाये, डॉक्टर सोच रहे थे |
  ‘ओह्ह .. जबलपुर की ? फिर तो वो वोही होंगी ..”’
 ‘कौन ?’
 ‘बाबा उन्हें बड़े अरसे से ढूँढ रहे थे .. क्या नाम था , जूही ? नहीं नहीं रूही ... रूही फडणीस. बाबा के घर के सामने रहती थी”’ कहते हुए संबरन हौले से मुस्कुरा पड़ा |
 ‘तेरे बाबा को फिलहाल होश आने में तीन से चार घं'टे लग सकते हैं | तुम उतनी देर मेरे केबिन में आराम करो |’” डॉ श्रीमाली उसे अपने केबिन में  बैठा कर दूसरे डॉक्टर्स से बातें करने चले गए |
कुछ देर बाद डॉ साहब अपने साथ कॉफ़ी के दो बड़े मग लेकर आये | इसके साथ ही संबरन और उनके बीच गहरी बातें होने लगी | कॉफ़ी का मग साइड टेबल पे रखते हुए संबरन बोला ,‘और आपको पता है , बाबा और रूही जी इकट्ठे इतनी शैतानी करते थे की पूछो मत ! ताल से सिंघाड़े जमा कर के लाना, यादव कॉलोनी के मोड़ पर जो परचून वाला था उससे चूरण की बड़ी बड़ी गोलियाँ नहीं , बम गोले लेकर आते थे ये लोग और फिर बाबा की चार मंजिला चौल की छत पे जाते, एक जगह जहाँ मुंडेर टूट गयी थी और जहाँ से रेत-गारा नीचे गिरता रहता था, वहीं बैठते और मज़े ले लेकर चूरण खाते थे ...”’
 ‘ “अच्छा ? क्या उम्र रही होगी दोनों की तब ?’
 ‘“उमर ? बाबा और रूही जी दोनों एक ही स्कूल में पढ़ते थे – सेंट थॉमस स्कूल में, एक ही साइकिल रिक्शा में जाते , एक ही क्लास में पढ़ते थे ... कभी बाबा फर्स्ट आते और रूही जी सेकंड तो कभी ठीक इसका उल्टा ! सिर्फ पाँच या शायद छे साल तक की उमर तक साथ रहे ये.. और फिर भी बाबा को ये सारी बातें ऐसे याद रहती हैं जैसे कल ही की बात हो !’
 ‘“अच्छा फिर, फिर क्या हुआ ?’” डॉक्टर साहब ने उठ कर खिड़की का पर्दा हल्के से पूरी खिड़की पर फैला दिया ... दोपहर की तेज़ धूप अचानक भीतर आने लगी थी !
 ‘“इनकी शरारतों के किस्से सारे मोहल्ले में मशहूर थे डॉक्टर अंकल | सुबह सुबह पाँच बजे के आसपास इनकी कॉलोनी के सभी संघी लोक इकट्ठा होकर प्रभात फेरी निकालते थे जिसमें राष्ट्र प्रेम के गीत गाये जाते थे | कॉलोनी के अधिकांश घरों से छोटे छोटे बच्चे हर रविवार को इस प्रभात फेरी में हिस्सा लेने जाते थे | बाबा बताते थे ये दोनों जान बूझकर उन  संघी कार्यकर्ताओं की ख़ाकी हाफ पैंट पे धूल मिट्टी उछालते फिरते थे ... जब पकड़ा जाते तो खूब डाँट पड़ती थी लेकिन इन दोनों को कोई परवाह नहीं थी ज़माने की .. ये क्षमस्व-क्षमस्व कहते हुए अगले रविवार वोही मिट्टी धूल कंकर का खेल शुरू कर देते थे ! हाउ डेरिंग एंड एडवेंचरस ऑफ़ देम, राईट ?”’
 ‘तो गोया की इन्हें शुरू से ही धूल मिट्टी में खेलने का शौक रहा है .. यहाँ भी बागीचे का सारा काम ये दोनों ही देखते हैं !”’
 ‘अरे अंकल धूल मिट्टी का अब क्या बतायें ..”’
 (संबरन अब तक निश्चिंत मन से डॉक्टर साहब से बात करने लगा था पिछले कुछ घंटों की गुफ्तगू में वो उसके लिए घनिष्ट , मित्रवत अंकल बन गए थे|)
‘“बाबा और रूही जी ने मिल कर बचपने में ही हमारे चिर-परिचित छिपा छिपायी खेल को बहुत नया आयाम दे डाला था | ये खेल कुछ ऐसा था ...
 दस से बारह छोटे बड़े बच्चों के समूह में , एक कोई दाम देता था – दाम देना माने उसे दूसरों को ढूँढना /पकड़ना होता था | अब ये आम तरीके का ढूँढना नहीं था .. उस दाम देने वाले बच्चे की आँखों पे कसके पट्टी या रूमाल बाँधा जाता .. फिर बाकि बच्चों में से कोई एक उसे थोड़ा सा घुमा फिराकर पास पड़ी मिट्टी का ढेर हाथों में दे देता था ... दूसरा कोई और आकर उस मिट्टी के ढेर पे एक बड़ी सी टहनी या डंगाल लगा जाता (बिलकुल पताका की तरह ) और फिर उस दाम देने वाले को गोल गोल घुमाया जाता ... उसकी आँखों पे पट्टी बंधी होती, उसके दोनों हाथों की अंजुलि में मिट्टी ,उस पर टहनी रूपी पताका ...और तब कोई एक आकर उसे हौले से ‘धक्का’ देता और कहता, पकड़ो !!’
डॉक्टर श्रीमाली अब तक पूरी तरह इस किस्से में डूब चुके थे ... बोले, ‘“फिर??”’
  ‘हाँ फिर , फिर वो दाम देने वाला, अपने हिसाब से दिशा का आकलन करता, तालियों की आवाज़ में दौड़ता और ज्योंही उसे लगता कोई नजदीक है , उस पर वो मिट्टी का ढेर और टहनी फेंक देता ... जिसे भी वो मिट्टी और टहनी छू जाती, उसे आउट क़रार दिया जाता और उस पर दाम आता ...’”
  ‘ये तो बड़ा दिलचस्प खेल मालूम होता है , सब्या ने हमें कभी नहीं सिखाया’” एक ठंडी सांस छोड़ते हुए संबरन बोला, ‘बाबा ने वो गेम खेलना बंद कर दिया था अंकल| जिस टूटी हुई मुंडेर पर बैठना इन दोनों ही को बहुत पसंद था, उसी टूटी मुंडेर के अरक्षित हिस्से पर एक रोज़ मेरी बड़ी बुआ, दुर्गा दी खड़ी थीं .. उन पर दाम आया था , पच्चीसों बच्चों का हुल्लड़ मचा हुआ था ! यह खेल अक्सर छत पर ही खेला जाता ताकि दिशाओं का अंदाज़ा मिलता रहे और नीचे सड़क पर लोग भी परेशान ना हो ! उस रोज़, छोटी सी रूही ने दुर्गा बुआ की आँखों पे कस के पट्टी बाँधी ..किसी ने हाथ में मिट्टी का ढेर दिया  और उस पर टहनी लगायी ... गोल गोल घुमाया और छोड़ दिया | तब सब्या बोला, ऐसे कैसे छोड़ दिया तुमने दी को .. और हँसते हँसते ‘धक्का’ दे दिया !!” पाँच साल के सब्या को इस बात का इल्म ही न था की उसकी प्यारी दुर्गा दी उसी टूटी मुंडेर के मुहाने पे खड़ी थी ...’
“ ;दुर्गा दी ओ ओ ओ ओ ओ माँआआ चीखते हुए चौथे माले से नीचे बेर की कँटीली झाड़ियों में गिर पड़ी !शायद उन बेर की झाड़ियों को दया आ गयी होगी .. एक बार को लगा की दीदी उन झाड़ियों में फँस जायेंगी ....ताड़ सी लड़की की देह किंतु उन झाड़ियों को चीरते हुए धम्म से एक बड़े से पत्थर पे आ गिरी .. सीधे माथे पे ही चोट लगी थी !”  
सब्या, रूही और तमाम सारे बच्चे जितनी देर में चार मंजिलें फलांगते हुए नीचे  पहुँचते ..’” संबरन की इतना कहते कहते रुलाई फूट गयी |
डॉक्टर साहिब ने उठकर उसकी पीठ पे हाथ फेरा और खुद के आँसू पोंछकर उसे पानी का ग्लास पकड़ाया |
“ ‘मेरी दादी माँ दुर्गा बुआ की लाश को गोद में लिए ज़ोर ज़ोर से रोती रहीं ... सारा खेल ख़त्म हो चुका था !”’
कमरे में कुछ देर के लिए सन्नाटा छाया रहा | चालीस साल पहले की घटना जिसे उन दोनों ने ही देखा नहीं था ... आज उनके समक्ष अपनी पूरी क्रूरता संग दोनों के ह्रदय को मथ रही थी ..
“ ‘उसके बाद बाबा के जीवन से जैसे सब कुछ छिन गया .. वो शरारतें , वो नटखट-पना, वो हँसी ठिठोली ..जीवन के उस क्रूर खेल के समक्ष अब उन्हें कोई खेल नहीं सूझता था ... रही सही कसर रूही जी की माँ के भोपाल ट्रान्सफर हो जाने ने पूरी कर दी ... उन गर्मियों में रूही जी अपनी माँ के साथ, अपने पिता  संग भोपाल रहने चली गयीं | हम सभी को बाबा के बचपन की बस इतनी ही बातें पता हैं | इसके बाद तो वो हमें हमारे बाबा के रूप में ही मिले !’ 
...............................................
(४)
 आमी छेये छेये देखी शारा दिन
“ ‘देट गेम ऑफ़ छिपा छिपायी ... जिस पे दाम आता था तो पीछे वाला उसे ‘धक्का’ देता था .... और फिर आँखों पे बंधी पट्टी लिए और हाथों में मिट्टी का ढेर उठाये दाम देने वाले को किसी और को पकड़ना पड़ता था … सुभा , तुम्हें नहीं लगता हम फिर से वोही गेम खेल रहे हैं ... वो गेम जिसे हमने चार साल की उम्र में मिल कर बनाया था , आज पैतालीस  साल की उम्र में हमें वोही गेम फिर से एक दफा खेल कर उसका हिसाब चुकाना होगा !’”
“ ‘रूही, दुर्गा दी की उस खौफनाक मौत ने मेरी ज़िन्दगी को ही दहला दिया ... मेरे संग ज़िन्दगी ने तो तभी हिसाब चुकता कर लिया था !”’
  ‘माँ हमेशा समझाती रही , “सब्या , खुद को दोषी मत समझ .... तेरी उसमें कोई गलती नहीं थी ... तू क्यूँ पश्चाताप करता है ?’” 
 ‘“सच मानो रूही , मैं सारी ज़िन्दगी खुद को कुसूरवार मानता आया हूँ .. दुर्गा दी को धक्का मारने की सज़ा मेरे दिल ने सारी ज़िन्दगी भोगी है ...”’
रूही ने सुभा का हाथ अपने हाथों में लेते हुए कहा , “ ‘वो परिस्तिथि थी सुभा , और परिस्तिथियाँ तो इंसान से जाने किस किस खेल का बदला चुकाया करती हैं ... कई बार हमें ऐसे खेल का भी दोषी क़रार दे दिया जाता है हम जिसका हिस्सा ही न रहे हों ! तुमने जो भी किया , जानकर नहीं किया, इस बात की मैं साक्षी हूँ ! सुभा, आओ इस दफ़ा हम दोनों मिल कर दाम दें ! चिंता मत करो , मैं हूँ न तुम्हारे संग !”’
 ‘“दाम तो दे देंगे रूही ..लेकिन वो मिट्टी ... वो मिट्टी का ढेर किस पर फेंकेंगे?”’  
 ‘“मिट्टी फेंकेंगे इस मरदूद केंसर पे जो शरीर को नहीं, दिल को, मन को जकड लेता है ! अब ये लाइलाज़ बीमारी नहीं रही ... देखो तुम्हारे आस-पास ..कितने लोग इस में से उबर कर आज ख़ुशी ख़ुशी ... शायद ज्यादा ख़ुशी से जी रहे हैं ! धूल झोकेंगे हम इस कमबख्त बेनूर सी मौत के मुँह पर और हम जीत के दिखायेंगे ...’”
रूही के तमतमाये चेहरे को देख सुभा दो पल के लिये कहीं खो गया ..
रूही के  चेहरे पर खिल आयी एक लट को हौले से उसके कानों के पीछे टांक कर गाने लगा  .. 
“ ‘आमी छेये छेये देखी शारा दिन , आज ओई चोखे शागोरीरो नील 
आमी गाईची गान गाईची, बुझी मोने मोने होए गेलो मिल..”’
“ ‘माने ?”’
“ ‘ये बहुत पुराना बांग्ला गीत है प्रिये ..इसका मतलब है मैं सारे सारे दिन तुम्हारी आँखों को देखता रहता हूँ जिनमें मुझे नीला नीला सागर दिखाई देता है ... और फिर , और फिर मैं एक गीत गाता हूँ और ऐसा जाना पड़ता है जैसे हम एक हो गए हों .. आमी छेये छेये ..”’
सुभा के इस रोमांटिक मूड को देख रूही लरज़ गयी .. बात बदलने की गरज़ से बोली , “ ‘तुम्हें याद है , इस गेम को कोई जीत नहीं पाता था ?”’
 ‘“हाँ ! हर दफ़ा दाम देने वाला या तो किसी को पकड़ नहीं पाता या खुद ही पकड़ा जाता था! लेकिन इस दफा हम, दाम देने वाले ही जीतेंगे ..है न ?”’
“  ‘सुभा , आज जयपुर फुट वाले लोग आकर तुम्हारे पाँव का नाप लेकर जायेंगे और बस महीने भर में तुम फिर एक बार चल फिर सकोगे और बहुत जल्द दौड़ भी पाओगे ...’” कहते कहते रूही की आँखें भर आई थी ..
“ ‘अच्छा , तुम्हें किस्मत पर इतना भरोसा है?’”
“ ‘मुझे तुम पर भरोसा है, मिस्टर सब्यसाची दत्ता, माई डियर दोस्त सुभा !”’
“ ‘हम्म और फिर हम दोनों दोस्त ढ़ेरों अधूरे काम पूरे करेंगे ...सबसे पहले ताल के पास खड़े होकर सिंघाड़े समेटेंगे !!”’
“यकीनन ...” रूही ने तुरंत नज़र फेरते हुए कहा’  आँखों से बेलगाम आँसुओं का सैलाब बाहर उमड़ने को आतुर हो चला था ..
“ ‘सोच लो, मैं लोखंडे साहब से कहूँगा जनाब आप तो वातावरण और समाज का ख्याल रखते हैं ... हमें रूही का ख्याल रखने दीजिये ...!”’
सुनकर दोनों ही ने एक ठहाका लगाया | आँसू जिस रास्ते बाहर आने को बेताब थे, दो पल में जैसे दुम दबाकर कहीं भाग गए|
शाम हो चली थी और दोनों ही टहल रहे थे रूही सुभा की व्हील चेयर को एक हाथ से हौले से संभाले थी ... पुणे के खुशनुमा मौसम में मंद मंद हवा बह रही थी और ट्रस्ट के सुन्दर बागीचे में लगाये ऊँचे पेड़ों पर रंग बिरंगे फूलों की छटा देखते ही बनती थी | रूही को लग रहा था जैसे वो किसी ऊँचे टीले पे बैठ के गन्ने छील कर खा रही है  और मज़े से पैर हिलाते हुए उसका पसंदीदा गाना गा रही है ... “पुरवैय्या ले के चली मेरी नैय्या ...जाने कहाँ रे ... और नेपथ्य से एक आवाज़ आती है , -- मैं भी यहाँ रे, तू भी यहाँ रे ...”
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(५)
सत्याग्रह
“ ‘रूही , उठो रूही , प्लीज़ ...तुम्हें खुदा का वास्ता !!”’
हॉस्पिटल के आई. सी. यू. में रूही के बेड के पास व्हील चेयर पे बैठे सुभा की आवाज़ उसे सुनाई देती है ... सुभा उसे हौले हौले जगाने का प्रयत्न कर रहा है| 
रूही धीरे से आँखें खोलती है , सुभा को अपने सम्मुख पाकर हलकी सी स्मित उसके चेहरे पे आ जाती है ... रात अचानक रूही की तबियत बहुत ज्यादा खराब हो जाने से उसे आई. सी. यू. में शिफ्ट करना पड़ा था | पिछले तीन घंटों की मशक्कत के बाद डॉक्टर्स उसे होश में ला पाए हैं |
“ ‘रूही , यू स्काऊँडरल !! तुमने मुझे पहले क्यूँ नहीं बताया ? तुमने मुझसे झूठ कहा की तुम यहाँ सोशल वर्क करने आई हो !! मैं तुम्हें कभी माफ़ नहीं करूँगा ...जाओ मैं तुमसे कट्टी ... बड़ी वाली कट्टी !!’” कहते हुए कब सुभा की आँखों से आँसूओं की धार बह चली उसे ही पता न पड़ा |
“ ‘तुमने तो कहा था हम दोनों को वो गेम खेलना बाकी है ...संग खेलने वाली थी न तुम तो, फिर बीच ही में क्यूँ साथ छोड़ के जा रही हो ? बोलो ?”’
 ‘“सुभा , कहाँ साथ छोड़ के जा रही हूँ ? तुम्हें मेरा धक्का देना बुरा नहीं लगता न ? सो मैंने तुम्हें ‘धक्का’ दिया ना ... मैंने तुम्हें ज़िन्दगी की ओर ‘धक्का’ दिया ... तुम्हें फिर चलना होगा , दौड़ना होगा ... ये बाज़ी, ज़िन्दगी की मौत पे शह दिखानी होगी ...”’
“ ‘रूही ...प्लीज़”’
“’और रही बात मेरी , तो अब ‘धक्का’ देने की बारी तुम्हारी है सुभा ... तुम पीछे नहीं हट सकते इससे !”’ कहते कहते रूही फिर एक बार सुस्ताने लगी थी’ ... सुभा उसे कंधे से हिलाता उतने में डॉक्टर श्रीमाली और संबरन अन्दर आ गए | 
“ ‘डॉक्टर ..देखो न रूही को ...”’
“ ‘सुभा (सब्या अब सब्या कहाँ रह गया था ...पिछले कुछ दिनों में वो सभी के लिए ‘सुभा’ ही हो गया था!), अब इसे आराम करने दो ... इसके पास अब कुछ ही दिन और हैं ..या शायद कुछ घंटे ...”’ डॉ ने अपने दोस्त के कानों में नीचे झुकते हुए कहा|
“ ‘डॉक्टर !!!!”’
“ ‘हाँ सुभा , शी इज़ अ टर्मिनल केस ऑफ़ ब्लड केंसर .... उसके पति सामाजिक कार्यकर्त्ता हैं शायद ..घर के किसी पुराने नौकर के साथ आयी थी दो सप्ताह पहले | खुद से ही रजिस्टर किया खुद को ..नौकर को वापस भेज दिया था तभी| एक रोज़ तुम्हें शायद बगीचे में काम करते देखा तो मुझसे तुम्हारे बारे में पूछ ताछ की ..उसे तभी पता चल गया था की तुम ही उसके पुराने मित्र ‘सुभा’ हो | हमसे कहा तुम्हारी सेवा करेगी ... उसने तुम्हें कुछ भी बताने से मना  कर दिया था इस लिए हम सभी को ये खेल करना पड़ा, उसकी बीमारी छुपानी पड़ी’
“ ‘हा हा ... शी हेज़ बीन अ मास्टर माईंड ... वो हमेशा से ही खेल बनाने में माहिर रही है .. ओह रूही !! ठीक है , लेकिन मेरी बारी बाकि है ... मेरा उसे ‘धक्का’ देना अभी बाकी है डॉक्टर |”’
एक स्पेशल वैन में रूही को जबलपुर ले जाया जा रहा था ... साथ में थी एक अति विशिष्ठ एम्बुलेंस ... 
जबलपुर के यादव कॉलोनी में शायद अब वो चार मंज़िला चौल जहाँ सब्यसाची दत्ता अपने माँ-बाबा और छोटी बहन निधि के साथ रहता था, वो टूटी मुंडेर जहाँ से उसकी बड़ी बहन दुर्गा की मौत हुई थी, वो बेरी की झाड़ियाँ , वो सानेज़ बंग्लो जिसमें रूही रहा करती थी ... वो सब होगा या नहीं, पता नहीं लेकिन सुभा की ज़िद थी की वो रूही को ताल के किनारे से सिंघाड़े समेट कर जरुर देगा , उस सड़क से ज़रूर ले जायेगा जिस पर हर इतवार वो लोग प्रभात फेरी पर जाते थे .... बाकी सारे काम अगले जनम के लिए मुल्तवी ! खुद ही से हँसते देख संबरन ने अपने बाबा को  दिलासा दिया ! सुभा ने भी उसके हाथ को अपने हाथों में ले लिया और वैन में अपने सामने लेटी हुई रूही को निहारने लगा|
चार दिनों बाद संबरन का जबलपुर से फोन आया था -- गत दिवस , रविवार को सुबह पाँच बजकर दस मिनट पर, पंद्रह यादव कॉलोनी, सानेज़ बंग्लो से रूही ने उसके बाबा, सब्यसाची दत्ता के समक्ष साँसों की अंतिम प्रभात फेरी ली थी ! परसों उसके मर्त्य अवशेष नर्मदा के लमेटा घाट के नजदीक उसके प्रिय स्थान से प्रवाहित करने जा रहे थे वो लोग | घर से कोई नहीं आ पाया था ... ख़बर सभी को कर दी थी |
डॉक्टर श्रीमाली ने मोबाईल पर बात करते हुए खुद को संभाला ... भरी हुई आँखों से हौले से कहा – “ ‘ओह, रूही !!’”
न्यूज़ चेन्नल पर देर रात एक छोटी सी ख़बर आ रही थी ... नर्मदा बचाओ आन्दोलन में प्रसिद्द पर्यावरण शास्त्री श्री लोखंडे ने आज अन्य ग्रामीणों संग ओम्कारेश्वर में जल सत्याग्रह के चौदह दिन पूरे किये ... सरकार इस मामले पर चिंतित है किन्तु इस बारे में कोई हल निकलने के संकेत नहीं आ रहे हैं ... आन्दोलनकर्ता अपने आन्दोलन से नहीं हटेंगे ....
डॉक्टर श्रीमाली ने रिमोट का बटन दबा टी वी बंद कर दिया और मन ही मन हठात बोल पड़े ... रूही, लमेटा में नर्मदा का धुआंधारी और आक्रामक रूप तुम्हें क्यूँ पसंद था, समझ सकता हूँ लेकिन लमेटा से नर्मदा संग बहते बहते थक जाओगी .... आगे चल ओम्कारेश्वर में कुछ पल विश्राम कर लेना ... शायद वहाँ दीप हाथों में लिए कोई तुम्हारा इन्तेज़ार कर रहा है !
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सोमवार, 29 सितंबर 2014

सरस्विता पुरस्कार से सम्मानित श्रेष्ठ काव्य 2014






संभावनाओं के कैक्टस
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शुष्क जलाशय तट का केंकड़ा 
आखिरकार 
बना ही लेता है 
किसी बलुआ खड्ड में 
अपने संघर्ष का 
शिविर घर 
मस्तिष्क के मरुथल में 
बलुआ हवाऐं चलती 
तन रोम रोम तपता 
मन धू धू कर जलता 
तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद भी 
कैक्टस हरे हैं 
हमारी संभावनाओं के 
जीवन का अगला 
नया परिच्छेद लिखना चाहता हूं 
करना चाहता हूँ अट्टहास 
न जाने किस हथौड़ों से फोड़कर 
जमा रहा हूं 
पाषाण हो चुके 
मन,मस्तिष्कों कों 
जहां 
पाषाण हैं 
देवी-देवालय,पूजा-पुजारी,प्रथा-परम्परायें 
वहां 
सुलगा रहा हूं 
बारुद अस्मिता की 
डरा रहीं हैं 
अपनी ही पाषाण भूमि पर
अपनी ही छायायें   
अंधेरों के स्याह जंगल में भटकती हुई 
पाषाण भूमि के तले 
बहती है 
जीवन की अविरल नदी 
और हम 
पाषाण भूमियों पर खड़े 
प्यासे आकाश से 
बारिश मांगते हैं 
काश 
दृष्टियां आकाशीय ऊंचाईयों पर 
नहीं टिकती 
अपने पैरों की जमीन को 
नहीं खोदतीं 
मुमकिन था 
मिल जाती जीवन की अविरल नदी 
तो क्यों ?
यातनायें होती 
आत्मकुंठाओं से जूझते 
विक्षुब्ध अंधेरों में ना जन्मते 
ना अपना खून 
पानी कर पी रहे होते 
मर रहे हर घड़ी हम
और जीवन है कि 
सरपरस्त घोषणायें करते नहीं थकता 
कि 
"धरती पर जिया जा रहा है जीवन बेहतर" 
इस समय का सत्य यह है कि 
पाषाण खंडों से 
टूट-फूट कर 
छोटी-छोटी गिट्टियों की 
शक्ल में ढल रहें हैं 
कंक्रीट बनकर 
छतों-छज्जों पर चढ़ रहें हैं 
हमारी महत्वकांक्षायें 
आकाशीय ऊंचाइयों की ओर हैं 
क्योंकि 
अब भी 
हरिया रहें हैं 
हमारी संभावनाओं के कैक्टस ------


नाम ----- ज्योति खरे 
जन्म ---- 5 जुलाई 1956 
शिक्षा ----- एम.ए हिंदी साहित्य 
संप्रति ----- भारतीय रेल, डीजल शेड नयी कटनी में तकनीशियन के 
                       पद पर कार्यरत-
 प्रकाशन ----- 1975 से देश की लगभग सभी पत्र पत्रिकाओं में 
                            रचनायें प्रकाशित 
प्रसारण ------ 1…  आकाशवाणी जबलपुर में नियमित काव्य पाठ 
                             2… दूरदर्शन में काव्य पाठ 
विशेष -------- 1....  प्रगतिशील लेखक संघ के पूर्व अध्यक्ष                  
                            2… पाठक मंच के पूर्व संयोजक 
                            3 … म.प्र साहित्य परिषद के रचना शिवरों में सम्मलित 
सम्मान ------ 1--- प्रखर व्यंगकार सम्मान 1998 
                            2.... मध्यप्रदेश गौरव 1995 
                            3 … रेल राजभाषा सम्मान 1999 

बुधवार, 24 सितंबर 2014

सरस्विता पुरस्कार से सम्मानित श्रेष्ठ संस्मरण 2014


ॐ 
मेरे पापा को विश्व पंडित नरेंद्र शर्मा के नाम से पहचानता है। पापा जी हिन्दी के 
सुप्रसिद्ध  गीतकार हैं जिन्होंने ' ज्योति कलश छलके ' और ' सत्यम शिवम सुंदरम ' जैसे अविस्मरणीय, शुद्ध हिन्दी गीत हिन्दी फिल्मों के लिए लिखे और लोकप्रियता के नए आयाम रचे। पूज्य पापा जी ने रेडियो के यशस्वी कार्यक्रम ' विविधभारती ' का नामकरण भी किया और उसके अंतर्गत आनेवाले कई कार्यक्रमों के अभिनव नाम रखे। जैसे बंदनवार मंजूषा, मनचाहे गीत , बेला के फूल , हवामहल इत्यादि जो आज भी श्रोताओं के मन में अपना प्रिय स्थान बनाये हुए हैं। ' महाभारत ' टीवी सीरियलों के पापा जी के लिखे दोहे और शीर्षक गीत ने भारत के हर प्रदेश में शंखनाद सहित प्राचीन भारतीय इतिहास को टीवी के पर्दे पर सजीव किया। पास पड़ौस, परिवार के सगे सम्बन्धियों के अनेक नन्हे मुन्ने शिशुओं के नामकरण भी पापा जी ने सर्वथा अनोखे नाम देकर किये हैं। जैसे युति , विहान सोपान , कुंजम और  इनमे एक नाम और जोड दूँ , तो स्वयं मेरा नाम '  लावण्या '  भी पापा जी का प्रसाद है। 
      हिन्दी काव्य की प्रत्येक विधा में लिखी उनकी कविताएँ  १९ पुस्तकों में समाहित हैं। अब पंडित नरेंद्र शर्मा - सम्पूर्ण रचनावली भी प्रकाशित हो चुकी है। ' द्रौपदी खंड काव्य हो या अप्रयुक्त छंदों में ढली कविताएँ जो ' शूल फूल , ' बहुत रात गए ', ' कदली वन, '  प्रवासी के गीत ' व ऐतिहासिक काव्य कृतियाँ ' सुवीरा' ,' सुवर्णा' एवं 'उत्तर जय', आदि में समाहित हैं और 'कड़वी मीठी बातें' तथा 'ज्वाला परचूनी ' कथा संग्रह , असंख्य रेडियो रूपक, निबंध आदि रचनावली में संगृहीत हैं। रचनाकार नरेंद्र शर्मा ने ६० दशक पर्यन्त साहित्य के अभिनव सोपानों पर सफलता पूर्वक अनवरत प्रयाण कर हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया  है। रचनाकार , सर्जक और कवि श्री नरेंद्र शर्मा की विद्वत्ता के बारे में, मेरा अधिक कहना ' छोटे मुंह बड़ी बात ' ही होगी। मैंने रचनाकार से अधिक  पिता रूप को ही समझा है और मेरी उम्र बढ़ने के साथ मेरे ' पापा जी को गुरु रूप से पूजने में मैं स्वयं को धन्य समझती हूँ।  
ptnarendrasharma, bachchan,pantji
सन १९४० श्री सुमित्रानंदन पंत जी, डा हरिवंशराय बच्चन व पंडित नरेंद्र शर्मा 
     मेरी अम्मा श्रीमता सुशीला नरेंद्र शर्मा गुजराती परिवार से थीं। अत्यंत सौम्य, यथा नाम गुण ऐसी  सुशील और सुघड़ गृहिणी थीं मेरी अम्मा ! चित्रकला में पारंगत और गृहकार्य में दक्ष पाककला में अन्नपूर्णा  और हम चारों भाई बहनों के लिए अम्मा ममतामयी माँ थीं ! 
      मई १२ , १९४७ के शुभ दिन कविश्रेष्ठ  सुमित्रानंदन पंत जी के आग्रह एवं आशीर्वाद से  कुमारी सुशीला गोदीवाला और कवि नरेंद्र शर्मा का पाणिग्रहण  संस्कार मुम्बई शहर में सुन्दर संध्या  समय संपन्न हुआ था। मानों कवि की कविता सहचरी मूर्तिमंत हुई थी।  

श्रद्धेय पन्त जी अपने अनुज समान कवि नरेंद्र शर्मा के साथ बंबई शहर के उपनगर माटुंगा के शिवाजी पार्क  इलाके में रहते थे। हिन्दी के प्रसिध्ध साहित्यकार श्री अमृतलाल नागर जी व उनकी धर्मपत्नी प्रतिभा जी ने कुमारी सुशीला गोदीवाला को गृह प्रवेश  करवाने का मांगलिक  आयोजन संपन्न किया था। 
      सुशीला , मेरी अम्मा अत्यंत  रूपवती थीं और  दुल्हन के वेष में उनका चित्र आपको मेरी बात से सहमत करवाएगा ऐसा विश्वास है।

विधिवत पाणि -- ग्रहण संस्कार संपन्न होने के पश्चात वर वधु नरेंद्र व सुशीला को 
सुप्रसिध्ध गान कोकिला सुश्री सुब्बुलक्ष्मी जी व सदाशिवम जी की गहरे नीले रंग की गाडी जो सुफेद फूलों से सजी थी उसमे बिठलाकर घर तक लाया गया था।     
        
द्वार पर खडी नव वधु सुशीला को कुमकुम  से भरे एक बड़े थाल पर खड़ा किया गया और एक एक पग रखतीं हुईं लक्ष्मी की तरह सुशीला ने गृह प्रवेश किया था। तब दक्षिण भारत की सुप्रसिध्ध गायिका सुश्री सुब्बुलक्ष्मी जी ने मंगल गीत गाये थे। मंगल गीत में भारत कोकिला सुब्बुलक्ष्मी जी का साथ दे रहीं थें उस समय की सुन्दर नायिका और सुमधुर गायिका सुरैया जी ! 
      
            विवाह की बारात में सिने  कलाकार श्री अशोक कुमार, दिग्दर्शक श्री चेतन आनंद, श्री  विजयानंद, संगीत निर्देशक श्री अनिल बिस्वास, शायर जनाब सफदर आह सीतापुरी, श्री रामानन्द सागर , श्री दिलीप कुमार साहब जैसी मशहूर कला क्षेत्र की हस्तियाँ शामिल थीं। 
      
सौ. प्रतिभा जी ने नई दुल्हन सुशीला को फूलों का घाघरा फूलों की चोली और फूलों की चुनरी और सारे फूलों से  बने गहने, जैसे बाजूबंद, गलहार, करधनी , झूमर पहनाकर सजाया था। 
     
कवि शिरोमणि पन्त जी ने सुशीला के इस फुल श्रुंगार से सजे  रूप को,  एक बार देखने की इच्छा प्रकट की और नव परिणीता सौभाग्यकांक्षिणी  सुशीला को देख कर  कहा था   'शायद , दुष्यंत की शकुन्तला कुछ ऐसी ही होंगीं ! '       
      
ऐसी सुमधुर ससुराल की स्मृतियाँ सहेजे अम्मा हम ४ बालकों की माता बनीं उसके कई बरसों तक मन में संजोये रख अक्सर प्रसन्न होतीं रहीं और  ये सुनहरी यादें हमारे संग बांटने की हमारी उमर हुई तब हमे भी कह कर  सुनाईं थीं। जिसे आज दुहरा रही हूँ। 

सन  १९४८ अप्रेल ३ तारीख को शर्मा दम्पति की प्रथम संतान वासवी का जन्म हुआ। 
उसे अस्पताल से घर तक सुप्रसिद्ध कलाकार श्री दिलीप कुमार जी अपनी बड़ी सी गाड़ी लेकर लिवा लाये थे। सन १९५० नवंबर की २२ तारीख को मेरा जन्म हुआ। १९५३ में मुझ से छोटी बांधवी और १९५५ में परितोष मेरे अनुज का आगमन हुआ।  
सन १९५५ से कवि  श्री नरेंद्र शर्मा  को ऑल  इंडिया रेडियो के ' विविध भारती ' कार्यक्रम जिसका नामकरण भी उन्हींने किया है उसके प्रथम प्रबंधक, निर्देशक , निर्माता के कार्य के लिए भारत सरकार ने अनुबंधित किया। इसी पद पर वे १९७१ तक कार्यरत रहे। 

उस दौरान उन्हें बंबई से नई देहली के आकाशवाणी कार्यालय में स्थानांतरण होकर कुछ वर्ष देहली रहना हुआ था। कविता लेखन यथावत जारी थी। बॉम्बे टाकिज़ के लिए फिल्म गीत लिखे परन्तु आकाशवाणी और विविधभारती में कार्यकाल के दौरान फिल्मों के गीत यदाकदा ही लिखे गए। उसी कालखण्ड में फिल्म ' भाभी की चूड़ियाँ'  मीना कुमारी और बलराज साहनी द्वारा अभिनीत चित्रपट के सभी गीत नरेंद्र शर्मा की स्मृति को हर संगीत प्रेमी के ह्रदय में अपना विशिष्ट स्थान दिलवाने में सफल रहे हैं। 
  
हमारे भारतीय त्यौहार ऋतु अनुसार आते जाते रहे हैं। सो  एक वर्ष ' होली ' भी आ गयी। उस  साल होली का वाकया कुछ यूं हुआ।  

नरेंद्र शर्मा को बंबई से सुशीला का ख़त मिला! जिसे उन्होंने अपनी लेखन प्रक्रिया की बैठक पर , लेटे हुए ही पढने की उत्सुकता से चिठ्ठी फाड़ कर पढने का उपक्रम किया किन्तु, सहसा , ख़त से ' गुलाल ' उनके चश्मे पर, हाथों पे और रेशमी सिल्क के कुर्ते पे बिखर , बिखर गया ! उनकी पत्नी ने बम्बई नगरिया से गुलाल भर कर पूरा लिफाफा  भेज दिया था और वही गुलाल ख़त से झर झर कर गिर रहा था और उन्हें होली के रंग में रंग रहा था ! आहा ! है ना मजेदार वाकया ?
नरेंद्र शर्मा पत्नी की शरारत पे मुस्कुराने लगे थे ! इस तरह दूर देस बसी पत्नी ने,अपने पति की अनुपस्थिति में भी उन के संग  ' होली ' का उत्सव ,  गुलाल भरा संदेस भेज कर त्यौहार पवित्र अभिषेक से संपन्न किया ! कहते हैं ना , प्रेम यूं ही दोनों ओर पलता है।   
पूज्य पापाजी के घर , १९ वाँ रास्ता , खार , जब हम रहने आये थे तब मेरा अनुज परितोष, वर्ष भर का था। मैं पांच वर्ष की थी। उस घर से पहले, हम माटुंगा उपनगर के शिवाजी पार्क इलाके में रहे। 
मैं तीन वर्ष की थी तब पू पापाजी ने सफेद चोक से काली स्लेट पर ' मछली ' बनाकर मुझे सिखलाया और कहा ' तुम भी बनाओ '  
मछली से एक वाक्या याद आया। हम बच्चे खेल रहे थे और मेरी सहेली लता गोयल ने मुझ पर पानी फेंक कर मुझे भिगो दिया। मैं दौड़ी पापा , अम्मा के पास और कहा  ' पापा , लता ने मुझे ऐसे भिगो दिया है कि जैसे मछली पानी में हो !'  मेरी बात सुन पापा खूब हँसे और पूछा ,' तो क्या मछली ऐसे ही पानी में भीगी रहती है ? 'मेरा उत्तर था ' हाँ पापा , हम गए थे न एक्वेरियम , मैंने वहां देखा है।' पापाजी ने अम्मा से कहा  ' सुशीला।  हमारी लावणी बिटिया कविता में बातें करती है ! ' 
          एक दिन अम्मा हमे भोजन करा रहीं थीं।  हम खा नहीं रहे थे और उस रोज अम्मा अस्वस्थ भी थीं तो नाराज़ हो गईं। नतीजन , हमे डांटने लगी।  तभी पापा जी वहां आ गए और अम्मा से कहा ' सुशीला खाते समय बच्चों को इस तरह डाँटो नहीं।' अम्मा ने जैसे तैसे हमे भोजन करवाया और एक कोने में खड़ी होकर वे चुपचाप रोने लगीं। मैंने देखा और अम्मा का आँचल खींच कर कहा ,' अम्मा रोना नही। जब हम zoo [ प्राणीघर ] जायेंगें तब मैं ,पापा को शेर के पिंजड़े में रख दूंगीं।  ' इतना सुनते ही अम्मा की हंसी छूटी और कहा ' सुनिए , आपकी लावणी आपको शेर के पिजड़े में रखने को कह रही है ! ' पापा और अम्मा खूब हँसे। तो मैं, पापा की ऐसी बहादुर बेटी हूँ ! अक्सर पापाजी यात्रा पर देहली जाते तब अवश्य पूछते ' बताओ तुम्हारे लिए क्या लाऊँ ? '  मैंने कहा ' नमकीन ' पापा मेरे लिए देहली से लौटे तो दालमोठ ले आये। उसे देख मैं बहुत रोई और कहा ' मुझे नमकीन  चाहिए ' पापाने प्यार से समझाते हुए कहा ' बेटा यही तो नमकीन है ' 
अम्मा ने उन से कहा ' इसे बस ' नमकीन ' शब्द पसंद है पर ये उसका मतलब समझ नहीं रही।  ' 
      हमारे घर आनेवाले अतिथि हमेशा कहा करते कि आपके घर पर ' स्वीच ओन और ऑफ़ ' हो इतनी तेजी से गुजराती से हिन्दी और हिन्दी से गुजराती में बदल बदल कर बातें सुनाई पड़तीं हैं। पापाजी का कहना था ' बच्चे पहले अपनी मातृभाषा सीख ले तब विश्व की कोई भाषा सीखना कठिन नहीं। सो हम तीनों बहनें , बड़ी स्व वासवी , मैं लावण्या , मुझ से छोटी बांधवी हम तीनों गुजराती माध्यम से पढ़े। पाठ्यक्रम में संत नरसिंह मेहता की प्रभाती ' जाग ने जादवा कृष्ण गोवाळीया ' 
और ' जळ कमळ दळ छांडी जा ने बाळा स्वामी अमारो जागशे ' यह कालिया मर्दन की कविता उन्हें बहोत पसंद थी और पापा हमसे कहते ' सस्वर पाठ करो।  ' 
      हमारे खार के घर हम लोग आये तब याद है पापा अपनी स्व रचित कविता तल्लीन होकर गाते और हम बच्चेउनके  सामने नृत्य करते। वे अपनी नरम हथेलियों से ताली बजाते हुए गाते ~~ 
' राधा नाचैं , कृष्ण नाचैं , नाचैं गोपी जन ,
 मन मेरा बन गया सखी री सुन्दर वृन्दावन ,
 कान्हा की नन्ही ऊँगली पर नाचे गोवर्धन ! '   
उस भोले शैशव के दिनों में हमे बस इतना ही मालूम था कि ' हमारे हैं पापा ! ' 
वे एक असाधारण  प्रतिभाशाली व्यक्ति हैं, जिन्होंने अपने कीर्तिमान स्वयं रचे, यह तो अब कुछ कुछ समझ में आ रहा है।विषम या सहज परिस्थिती में स्वाभिमान के साथ आगे बढ़ना, उन्हीं के सम्पूर्ण जीवन से हमने पहचाना। नानाविध विषयों पर उनके वार्तालाप, जो हमारे घर पर आये कई विशिष्ट क्षेत्र के सफल व्यक्तियों के संग जब वे चर्चा करते , उसके कुछ अंश सुनाई पड़ते रहते। आज , उनकी कही हर बात, मेरे जीवन की अंधियारी पगडंडियों पर रखे हुए झगमगाते दीपकों की भाँति जान पड़ते हैं और वे मेरा मार्ग प्रशस्त करते हैं।  पूज्य पापाजी से जुडी हर छोटी सी घटना भी आज मुझे एक अलग रंग की आभा लिए याद आती है।  
           मैं जब आठवीं कशा में थी तब कवि शिरोमणि कालिदास की ' मेघदूत ' से एक अंश पापा जी ने मुझसे पढ़ने को कहा। जहां कहीं मैं लडखडाती , पापा मेरा उच्चारण शुद्ध कर देते। आज मन्त्र और श्लोक पढ़ते समय , पूज्य पापाजी का स्वर कानों में गूंजता है।
यादें , ईश्वर के समक्ष रखे दीप के संग, जीवन में उजाला भर देतीं हैं।  उच्चारण शुद्धि के लिये यह भी पापा जी ने हमे सिखलाया था 
' गिल गिट  गिल गिट गिलगिटा , 
 गज लचंक लंक पर चिरचिटा ' ! 
                        मुझे पापा जी की मुस्कुराती छवि बड़ी भली लगती है। जब कभी वे किसी बात पर खिलखिलाकर हँस पड़ते, मुझे बेहद खुशी होती। पापाजी का ह्रदय अत्यंत कोमल था। करूणा और स्नेह से लबालब ! वैषणवजन वही हैं न जो दूसरों की पीड़ा से अवगत हों ? वैसे ही थे पापा ! 
                कभी रात में हमारी तबियत बिगड़ती, हम पापा के पास जा कर धीरे से कहते ' पापा  , पापा ' तो वे फ़ौरन पूछते ' क्या बात है बेटा ' और हमे लगता अब सब ठीक है। 
' रख दिया नभ शून्य  में , किसने तुम्हें मेरे ह्रदय ?
 इंदु कहलाते , सुधा से विश्व नहलाते 
 फिर भी न जग ने जाना तुन्हें , मेरे ह्रदय ! ' 
और 
' अपने सिवा और भी कुछ है, जिस पर मैं निर्भर हूँ  
  मेरी प्यास हो न हो जग को, मैं , प्यासा निर्झर हूँ ' 
ऐसे शब्द लिखने वाले कवि के हृदयाकाश में, पृथ्वी के हर प्राणी, हर जीव के लिए अपार प्रेम था। मन में आशा इतनी बलवान कि, 
 ' फिर महान बन मनुष्य , फिर महान बन 
  मन  मिला अपार प्रेम से भरा तुझे
  इसलिए की प्यास जीव मात्र की बुझे 
  अब न बन कृपण मनुष्य फिर महान बन ! ' 

अम्मा को पहली २ कन्या संतान की प्राप्ति पर, पापा ने उन्हें माणिक और पन्ने  के किमती आभूषण, उपहार में दिए। तीसरी कन्या [ बांधवी ] के जन्म पर अम्मा उदास होकर कहने लगीं ' नरेन जी लड़का कब होगा कहिये न ! आपकी ज्योतोष विद्या किस काम की ? मुझे न चाहिए ये सब ! '
पापा ने कहा , ' सुशीला तीन कन्या रत्नों को पाकर हम धन्य हुए। ईश्वर का प्रसाद हैं ये संतान! वे जो दें सर माथे ! '
आज भारत में अदृश्य हो रही कन्या संख्या एक विषम चुनौती है। काश, पापा जी जैसे पिता, हर लड़की के भाग में हों तब मुझ सी ही हर बिटिया का जीवन धन्य हो जाए ! 
मुझे याद आती है बचपन की बातें जब कभी पापा मस्ती में, बांधवी जिसे हम प्यार से मोँघी बुलाते हैं उसे पकड़ कर कहते ' वाह ये तो मेरा सिल्क का तकिया है ! ' तो वह कहती ' पापा , मैं तो आपकी मोँघी रानी हूँ , सिल्क का तकिया नहीं हूँ ! ' 
देहली से पापा हमे नियम से पोस्ट कार्ड लिखा करते थे। सम्बोधन में लिखते ' परम प्रिय बिटिया लावणी ' या ' मेरी प्यारी बिटिया मोँघी रानी ' ऐसा लिखते, जिसे देख कर, आज भी मैं मुस्कुराने लगती हूँ। 
बड़ी वासवी जब १ वर्ष की थी बीमार हो गई तो डाक्टर के पास अम्मा और पापा उसे ले गए।  बड़ी भीड़ थी। वासवी रोने लगी। एक सज्जन ने कहा ' कविराज एक गीत सुना कर चुप क्यों नहीं कर देते बिटिया को ! ' पापा हल्के से गुनगुनाने लगे और वासवी सचमुच शांत हो गई। कुछ समय पहले पापाजी की लिखी एक कविता देखी; 
' सुन्दर सौभाग्यवती अमिशिखा नारी 
 प्रियतम की ड्योढ़ी से पितृगृह सिधारी 
 माता मुख भ्राता की , पितुमुखी भगिनी 
 शिष्या है माता की , पिता की दुलारी ! ' 
ऐसे पिता को गुरु रूप में पाकर , उन्हें अपना पथ प्रदर्शक मान कर  मेरे लिए , जीवन जीना सरल और संभव हुआ है। मेरी कवितांजलि ने बारम्बार प्रणाम करते हुए कहा है 
' जिस क्षण से देखा उजियारा 
  टूट गए रे तिमिर जाल 
  तार तार अभिलाषा टूटी 
  विस्मृत गहन तिमिर अन्धकार 
 निर्गुण बने, सगुण वे उस क्षण 
 शब्दों के बने सुगन्धित हार 
 सुमनहार अर्पित चरणों पर 
 समर्पित जीवन का तार तार ! ' 
सच कहा है  ' सत्य निर्गुण है। वह जब अहिंसा, प्रेम, करुणा के रूप में अवतरित होता है तब सदगुण कहलाता है।'   
एक और याद साझा करूँ ? हमारे पड़ौस में माणिक दादा के बाग़ से कच्चे पके नीम्बू और आम हम बच्चों ने एक उमस भरी दुपहरी में, जब सारे बड़े सो रहे थे, तोड़ लिए।  हम किलकारियाँ भर कर खुश हो रहे थे कि पापा आ गए , गरज कर कहा
' बिना पूछे फल क्यों तोड़े ? जाओ जाकर लौटा आओ और माफी मांगो ' क्या करते ? गए हम, भीगी बिल्ली बने, सर नीचा किये ! पर उस दिन के बाद आज तक , हम अपने और पराये का भेद भूले नहीं। यही उनकी शिक्षा थी।  
          दूसरों की प्रगति व उन्नति से प्रसन्न रहो। स्वाभिमान और अभिमान के अंतर को पहचानो। समझो। अपना हर कार्य प्रामाणिकता पूर्वक करो। संतोष, जीवन के लिए अति आवश्यक है। ऐसे कई दुर्गम पाठ, पापाजी व अम्मा के आश्रम जैसे पवित्र घर पर पलकर बड़ा होते समय हम ने कब सीख लिए, पता भी न चला।  
       सन  १९७४ में विवाह के पश्चात ३ वर्ष , लोस - एंजिलिस , कैलीफोर्निया रह कर हम, मैं और दीपक जी लौटे। १९७७ में मेरी पुत्री सिंदूर का जन्म हुआ। मैं उस वक्त पापा जी के घर गई थी। मेरा ऑपरेशन हुआ था। भीषण दर्द, यातना भरे वे दिन थे। रात, जब कभी मैं उठती तो फ़ौरन पापा को वहां अपने पास पाती। वे मुझे सहारा देकर कहते ' बेटा , तू चिंता न कर , मैं हूँ यहां ! ' 
         आज मेरी पुत्री सिंदूर के पुत्र जन्म के बाद, वही वात्सल्य उँड़ेलते समय, पापा का वह कोमल स्पर्श और मृदु स्वर कानों में सुनाई पड़ता है और अतीत के गर्भ से भविष्य का उदय होता सा जान पड़ता है।                   
        मेरे पुत्र सोपान के जन्म के समय, पापा जी ने २ हफ्ते तक, मेरे व शिशु की सुरक्षा के लिए बिना नमक का भोजन खाया था।  
ऐसे वात्सल्य मूर्ति  पिता को किन शब्दों में , मैं , उनकी बिटिया , अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करूँ ? कहने को बहुत सा  है - परन्तु समयावधि के बंधे हैं न हम ! 
हमारा मन कुछ मुखर और बहुत सा मौन लेकर ही इस भाव समाधि से, जो मेरे लिए पवित्रतम तीर्थयात्रा से भी अधिक पावन है, वही महसूस करें।  
        चिर तरुण , वीर, निडर , साहसी , देशभक्त , दार्शनिक , कवि और एक संत मेरे पापा की छवि मेरे लिए एक आदर्श पिता की छवि तो है ही परन्तु उससे अधिक ' महामानव ' की छवि का स्वरूप हैं वे !
पेट के बल लेट कर , सरस्वती देवी के प्रिय पापा की लेखनी से उभरती, कालजयी कविताएँ मेरे लिए प्रसाद रूप हैं।  
 ' हे पिता , परम योगी अविचल , 
  क्यों कर हो गए मौन ? 
  क्या अंत यही है जग जीवन का 
  मेरी सुधि लेगा कौन ? ' 
बारम्बार शत शत प्रणाम ! 
- लावण्या 

Tel. Cell No : 513 - 233 - 7510

इ मेल : lavnis@gmail.com 
Add : Mrs Lavanya Shah 
6617, Cove Field Court
 Mason, OHIO 45040
          U.S. A.
परिचय : 
हिंदी -साहित्य की सुपरिचित कवयित्री लावण्या शाह सुप्रसिद्ध कवि स्व० श्री नरेन्द्र शर्मा जी की सुपुत्री हैं और वर्तमान में अमेरिका में रह कर अपने पिता से प्राप्त काव्य-परंपरा को आगे बढ़ा रही हैं। समाजशा्स्त्र और मनोविज्ञान में बी. ए.(आनर्स) की उपाधि प्राप्त लावण्या जी प्रसिद्ध पौराणिक धारावाहिक  ”महाभारत” के लिये कुछ दोहे भी लिख चुकी हैं। इनकी कुछ रचनायें और स्व० नरेन्द्र शर्मा और स्वर-साम्राज्ञी लता मंगेशकर जी से जुड़े संस्मरण रेडियो से भी प्रसारित हो चुके हैं। 
इनकी  पुस्तक “फिर गा उठा प्रवासी” प्रकाशित हो चुकी है जो इन्होंने अपने पिता जी की प्रसिद्ध कृति  ”प्रवासी के गीत” को श्रद्धांजलि देते हुये लिखी है। 
उपन्यास -’ सपनों के साहिल’ प्रकाशित हो चुका है।  कहानी संग्रह ‘ अधूरे अफ़साने ‘, और ' संस्मरण ' प्रकाशाधीन हैं। 
स्वरांजलि अमरीका के ओहायो प्रांत के रेडियो से प्रसारित कार्यक्रम 


सोमवार, 19 मई 2014

मेरी नज़र से 2


कुछ चेहरे - जिनके लिए 'पुराना' शब्द मौन है और 'नया' मुखर :)  … कुछ बातें, कुछ चेहरे, कुछ गीत,कुछ दृश्य कभी पुराने नहीं होते  … 



नूतन (24 जून 1936 - फ़रवरी 1991) सामर्थ हिन्दी सिनेमा की सबसे प्रसिद्ध अदाकाराओं में से एक रही हैं। नूतन का जन्म २४ जून १९३६ को एक पढे लिखे और सभ्रांत परिवार में हुआ था। इनकी माता का नाम श्रीमती शोभना सामर्थ और पिता का नाम श्री कुमारसेन सामर्थ था। नूतन ने अपने फ़िल्मी जीवन की शुरुआत १९५० में की थी जब वह स्कूल में ही पढ़ती थीं।
        नूतन के सौन्दर्य को मिस इंडिया पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वह इस पुरस्कार को पाने वाली पहली महिला थीं। 
उनके सन्दर्भ में उनके बेटे मोहनीश बहल का कहना है कि  मैं उनकी फिल्में ज़्यादा नहीं देखता. क्योंकि जितना मैं देखूंगा उतना ही उन्हें मिस करूंगा. और उन्होंने काफी गंभीर फिल्में भी की हैं.

वैजयंती माला का जन्म 13 अगस्त1936 को मद्रासतमिलनाडु के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ। ये दक्षिण से आकर बंबई फ़िल्म इंडस्ट्री में भाग्य चमकाने वाली पहली अभिनेत्रियों में ये एक हैं। उनकी माँ वसुंधरा देवी भी तमिल फ़िल्मों की एक प्रमुख नायिका रही हैं। वैजयंती माला का बचपन धार्मिक वातावरण में बीता। उनके पिता का नाम ए. डी. रमन था।
1956 में फ़िल्म 'देवदास' के लिए पहली बार वैजयंती माला को सर्वश्रेष्ठ सहअभिनेत्री का फ़िल्मफेयर पुरस्कार।
1958 में फ़िल्म 'मधुमती' के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फ़िल्मफेयर अवार्ड।
1961 में फ़िल्म 'गंगा-जमुना' के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फ़िल्मफेयर अवार्ड।
1964 में फ़िल्म 'संगम' के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फ़िल्मफेयर अवार्ड।
1996 में फ़िल्मफेयर लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड।

गीता बाली हिन्दी फिल्मों की एक प्रसिद्ध अभिनेत्री हैं । गीता बाली का जन्म विभाजन के पूर्व के पंजाब में हरकिर्तन कौर के रूप में हुआ था । वह सिख थीं और उनके फ़िल्मों में आने से पहले उनका परिवार काफी गरीबी में रहता था। १९५० के दशक में वह काफी विख्यात अदाकारा थीं।
1955 में उन्होंने अपने से २ वर्ष छोटे शम्मी कपूर से विवाह किया था 

21 जनवरी 1965 को उनकी चेचक की बीमारी से मौत हो गई।

का जन्म 23 अगस्त 1941 को मसूरी में हुआ। सायरा की नानी शमशाद बेगम दिल्ली की मशहूर गायिका थी। सायरा की शिक्षा-दीक्षा लंदन में हुई है। छुट्टियाँ मनाने सायरा जब भारत आती, तो दिलीप कुमार की फिल्मों की शूटिंग देखने घंटों स्टुडियो में बैठी रहती थी। सायरा बानो ने एक साक्षात्कार में यह माना है कि जब वह बारह साल की थी, तब से अल्लाह से इबादत में माँगती थी कि उसे अम्मी जैसी हीरोइन बनाना और श्रीमती दिलीप कुमार बनकर उसे बेहद खुशी होगी। 





मधुबाला का जन्म १४ फरवरी १९३३ को दिल्ली में एक पश्तून मुस्लिम परिवार मे हुआ था। 
   मुगल-ए-आज़म में उनका अभिनय विशेष उल्लेखनीय है। इस फ़िल्म मे सिर्फ़ उनका अभिनय ही नही बल्की 'कला के प्रति समर्पण' भी देखने को मिलता है। इसमें 'अनारकली'  की भूमिका उनके जीवन की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका है। उनका लगातार गिरता हुआ स्वास्थय उन्हे अभिनय करने से रोक रहा था लेकिन वो नहीं रूकीं। उन्होने इस फ़िल्म को पूरा करने का दृढ निश्चय कर लिया था। फ़िल्म के निर्देशक के. आशिफ़ फ़िल्म मे वास्तविकता लाना चाहते थे। वे मधुबाला की बीमारी से भी अन्जान थे। उन्होने शूटिंग के लिये असली जंज़ीरों का प्रयोग किया। मधुबाला से स्वास्थय खराब होने के बावजूद भारी जंज़ीरो के साथ अभिनय किया।


क्रमशः