मंगलवार, 8 अक्तूबर 2013

मेरी नज़र से कुछ मील के पत्थर - 10)




शब्दों को ओस में भिगोकर ईश्वर ने सबकी हथेलियों में रखे .... कुछ बर्फ हो गए,कुछ नदी बन जीवन के प्रश्नों की प्यास बुझाने लगे .................. शब्दों की कुछ नदियाँ, कुछ सागर मेरी नज़र से =

शिप्रा की लहरेंवहाँ हरगिज़ नहीं जाना(प्रतिभा सक्सेना)


जहां के लिये उमड़े मन वहाँ हरगिज़ नहीं जाना
न आओ दिख रहा लिक्खा जहाँ के बंद द्वारों पर 
फकत बहुमंजिलों की भीड़ में सहमा हुआ सा घर 
खड़े होगे वहां जाकर लगेगा कुयें सा गहरा 
ढका जिस पर कि बस दो हाथ भर आकाश का टुकड़ा ,
हवायें चली आतीं मन मुताबिक जा न पाती हो
सुबह की ओस भी तो भाप बन फिर लौट जाती हो
नये लोगों ,नई राहों ,नये शहरों भटक आना ,
पुराने चाव ले पर उस शहर हरगिज़ नहीं जाना
*
घरों में गुज़र मत पूठो कि पहले ही जगह कम है ,
ज़रा सी बात है यह तो, हुई फिर आंख क्यों नम है 
किसी पहचान का पल्ला पकड़ना गैरवाजिब है ,
किसी के हाल पूछो मत, यहाँ हर एक आजिज़ है 
वहां पर जो कि था पहले नहीं पहचान पाओगे 
निगाहें अजनबी जो है उन्हें क्या क्या बताओगे !
बचपना भूल जाना सदा को मत लौट कर जाना,
कि मन को अन्न-पानी चुक गया उस ठौर समझाना
*
बदलती करवटों जैसी सभी पहचान मिटजाती 
यहाँ तो आज कल दुनिया बड़ी जल्दी बदल जाती 
रहोगे हकबकाये से कि उलटे पाँव फिर जाये 
कि चारो ओर से जैसे यही आवाज़ सी आये ,
अजाना कौन है यह क्यों खड़ा है जगह को घेरे 
पराया है सभी ,अपना नहीं कुछ भी बचा है रे !
वहाँ कुछ भी नहीं रक्खा लगेगा अजनबी पन बस 
यही बस गाँठ बाँधो फिर वहाँ फिर कर नहीं जाना
*
पुरानेी डगर पर धरने कदम हरगिज़ नही जाना !
बज़ारों में निकल जाना ,दुकाने घूम-फिर आना 
कहीं रुक पूछ कर कीमत उसे फिर छोड़ बढ़ जाना ,
बज़ारों का यहां फैलाव कितना बढ़ गया देखो ,
दुकानों में नहीं पहचान .स्वागत है सभी का तो 
दुबारा नाम मत लेना कि चाहे मन करे कितना 
वहां कुछ ढूँढने अपना न भूले से निकल जाना !
बचा कर आँख अपनी उन किनारों से निकल जाना 
*
नयों के साथ धुँधला - सा,न जाने क्या सिमट आता !
वहाँ अब कुछ नहीं है ,सभी कुछ बीता सभी रीता ,
हवा में रह गया बाकी कहीं अहसास कुछ तीखा ।
गले तक उमड़ता रुँधता , नयन में मिर्च सा लगता 
बड़ा मुश्किल पड़ेगा सम्हलना तब बीच रस्ते में 
लिफ़ाफ़ा मोड़ वह सब बंद कर दो एक बस्ते में 
समझ में कुछ नहीं आता मगर आवेग सा उठता ।
घहरती ,गूँजती सारी पुकारों को दबा जाना ! वहाँ हर्गिज़...
*
अगर फिर खींचेने को चिपक जाये पाँव से माटी 
छुटा दो आँसुओं से धो नदी तो जल बिना सूखी
महक कोई भटकती ,साँस में आ कर समा जाये 
किसी आवाज़ की अनुगूँज कानो तक चली आये 
हवा की छुअन अनजानी पुलक भर जाय तन मन में 
हमें क्या सोच कर यह टाल देना एक ही क्षण में 
समझना ही नहीं चाहे अगर मन ,मान मत जाना !
तुम्हारा वह शहर उजड़ा वहाँ हर्गिज़ नहीं जाना 
नई जगहें तलाशो ,सहज ग़ैरों में समा जाना ! 
*
वहां बिल्कुल नहीं जाना ,वहां हरगिज़ नहीं जाना ,


बचपन से सिखाया गया हमें
रिक्त स्थानों की पूर्ति करना
भाषा में या गणित में
विज्ञान और समाज विज्ञान में
हर विषय में सिखाया गया
रिक्त स्थानों की पूर्ति करना
हर सबक के अन्त में सिखाया गया यह
यहाँ तक कि बाद के सालों में इतिहास और अर्थशास्त्र के पाठ भी
अछूते नहीं रहे इस अभ्यास से

घर में भी सिखाया गया बार बार यही सबक
भाई जब न जाए लेने सौदा तो
रिक्त स्थान की पूर्ति करो
बाजार जाओ
सौदा लाओ

काम वाली बाई न आए
तो झाड़ू लगा कर करो रिक्त स्थान की पूर्ति

माँ को यदि जाना पड़े बाहर गांव
तो सम्भालो घर
खाना बनाओ
कोशिश करो कि कर सको माँ के रिक्त स्थान की पूर्ति
यथासम्भव
हालांकि भरा नहीं जा सकता माँ का खाली स्थान
किसी भी कारोबार से
कितनी ही लगन और मेहनत के बाद भी
कोई सा भी रिक्त स्थान कहाँ भरा जा सकता है
किसी अन्य के द्वारा
और स्वयम आप
जो हमेशा करते रहते हों
रिक्त स्थानों की पूर्ति
आपका अपना क्या बन पाता है
कहीं भी
कोई स्थान

नौकरी के लिए निकलो
तो करनी होती है आपको
किसी अन्य के रिक्त स्थान की पूर्ति

यह दुनिया एक बडा सा रिक्त स्थान है
जिसमें आप करते हैं मनुष्य होने के रिक्त स्थान की पूर्ति
और हर बार कुछ कमतर ही पाते हैं आप स्वयं को
एक मनुष्य के रूप में
किसी भी रिक्त स्थान के लिए

उत्तम पुरुष: मैं उससे कह रहा था(विमलेन्दु द्विवेदी)


मैं उससे कह रहा था
कि तुम्हें नींद न आती हो
तो मेंरी नींद में सो जाओ
और मैं
तुम्हारे सपने में जागता रहूँगा ।

असल में
यह एक ऐसा वक्त था
जब बहुत भावुक हुआ जा सकता था
उसके प्रेम में ।

और यही वक्त होता है
जब खो देना पड़ता है
किसी स्त्री को ।

यह बात तब समझ में आयी
जब मुझ तक
तुम्हारी गंध भी नहीं पहुँचती है
और भावुक होने का
समय भी बीत चुका है ।

एक दिन देखता हूँ
कि सपने
व्यतीत हो गये हैं
मेरी नींद से ।

सपने न देखना
जीवन के प्रति अपराध होता है
कि हर सच
पहले एक सपना होता है ।

यह सृष्टि
ब्रह्मा का सपना रही होगी
पहले पहल,
और उसी दिन
लिखा गया होगा
पहला शब्द- प्रेम ! 

शब्दों की यात्रा में बहुत कुछ ऐसा मिलता है,जिनसे एहसासों के बंद कपाट खुलते हैं  ……. 


7 टिप्‍पणियां:

  1. प्रतिभा जी को पढ़कर लगा था जैसे हम लिखने में नौसिखिये हों , बड़ी दया आई थी अपनी कलम पर :)
    वे वाकई शारदा पुत्री हैं !!
    आभार आपका !

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  2. यह दुनिया एक बडा सा रिक्त स्थान है....
    उत्‍कृष्‍ट प्रस्‍तुति के लिये आभार

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  3. सभी खूबसूरत रचनायों और लिंक्स के लिए आभार रश्मि दीदी

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  4. आपकी इस उम्दा रचना को "हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल {चर्चामंच}" चर्चा अंक -२२ निविया के मन से में शामिल किया गया है कृपया अवलोकनार्थ पधारे

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  5. सभी खूबसूरत प्रस्‍तुति के लिये आभार...रश्मि जी

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  6. मील का पत्थर-----

    दी- आपके सृजन और सोच का बिलकुल अलग और नया ही रंग रहता है
    फिर उसका प्रस्तुतिकरण तो कमाल का

    प्रभावशाली और सार्थक रचनायें
    साधुवाद

    सादर

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