सोमवार, 2 सितंबर 2013

मेरी नज़र से कुछ मील के पत्थर - 9 )



शब्दों को ओस में भिगोकर ईश्वर ने सबकी हथेलियों में रखे .... कुछ बर्फ हो गए,कुछ नदी बन जीवन के प्रश्नों की प्यास बुझाने लगे .................. शब्दों की कुछ नदियाँ, कुछ सागर मेरी नज़र से =

कुछ उदास सी चुप्‍पियाँ
टपकती रहीं आसमां से
सारी रात...

बिजलियों के टुकडे़
बरस कर
कुछ इस तरह मुस्‍कुराये
जैसे हंसी की खुदकुशी पर
मनाया हो जश्‍न

चाँद की लावारिश सी रौशनी
झाँकती रही खिड़कियों से
सारी रात...

रात के पसरे अंधेरों में
पगलाता रहा मन
लाशें जलती रहीं
अविरूद्ध सासों में
मन की तहों में
कहीं छिपा दर्द
खिलखिला के हंसता रहा
सारी रात...

थकी निराश आँखों में
घिघियाती रही मौत
वक्‍त की कब्र में सोये
कई मुर्दा सवालात
आग में नहाते रहे
सारी रात...

जिंदगी और मौत का फैसला
टिक जाता है
सुई की नोक पर
इक घिनौनी साजि़श
रचते हैं अंधेरे

एकाएक समुन्‍द्र की
इक भटकती लहर
रो उठती है दहाडे़ मारकर
सातवीं मंजिल से
कूद जाती हैं विखंडित
मासूम इच्‍छाएं

मौत झूलती रही पंखे से
सारी रात...

कुछ उदास सी चुप्‍पियाँ
टपकती रहीं आसमां से
सारी रात...



एक रोज़ उठी
बात एक मन में,
जीवन को एक जगह पर रख..
कुछ ऊपर उठकर,
हवाओं में हम रहते!
कोई सुनता तो हम भी कुछ कहते!!

अपने आप से ही
परे जाकर,
लम्बी यात्रा के बाद..
अपनी ही आत्मा संग,
कुछ देर बहते!
कोई सुनता तो हम भी कुछ कहते!!

लगता है जैसे
रोज़ पुनरावृति हो रही,
आगे कहाँ बढ़ते है..
बस एक खम्भा है और बीत रही है जिंदगी,
उसी पर चढ़ते और उतरते!
कोई सुनता तो हम भी कुछ कहते!!

बाहर भटक रहा है मन
तब.., जब विधाता ने सहेज रखे हैं,
सारे मोती अन्दर..
बाहर की यात्रा चल रही है.. चले,
कितना अच्छा होता गर भीतर भी टहलने को मचलते!
कोई सुनता तो हम भी कुछ कहते!!

सूर्योदय की बेला में
फैला चहुँ ओर है हर्ष,
उषाकाल के माधुर्य में किसने जाना..?
जीवन में अभावों का चरमोत्कर्ष,
अपने-पराये कितने आंसुओं संग हैं हम प्रतिपल बहते!
कोई सुनता तो हम भी कुछ कहते!!

जीवन में छिपने-छिपाने का दस्तूर है
छिपते हैं हम औरों के गम से,
और छिपाते हैं सबसे अपने गम..
यहीं अगर शुरू हो जाए बांटने की परिपाटी,
तो सोचो, कितना हो आनंद.. फिर मिल कर हम सारे गम सहते!
कोई सुनता तो हम भी कुछ कहते!!

अंधियारी रातों का एक किनारा पकड़ कर
सुबहों की देहरी तक का सफ़र,
रोज़ आसानी से तय होता..
जीवन इतना नहीं विषम होता,
गर बीते दिनों में आस्था के मौसम न यूँ बदलते!
कोई सुनता तो हम भी कुछ कहते!!

जो एक रिश्ता है इंसानियत का
वही अगर प्रार्थना होता.. गीत होता,
हर रूप में.. हर धूप में फिर संगीत होता..
ज़िन्दगी ख़ुशी ख़ुशी निकलती,
रोज़ मानवता के प्रतिमान न यूँ ढहते!
कोई सुनता तो हम भी कुछ कहते!!

चलो हमारे सपनों से कोई सरोकार नहीं
हमारी बातों पर ऐतबार नहीं,
पर फिर भी मेरी बातें गुननी ही होगी..
एक कविता तो आपको सुननी ही होगी
जिससे.. हम कह सकें, कोयल अमराई में गायी!
किसी ने सुनी.. और हमने कह सुनायी!!

हर हृदय की अबोली बात यही
संध्या बेला से यही अपेक्षा.. सपनों का प्रात यही
कि-
काश! बीतते न युग चुप ही चुप रहते,
जीवन को प्यार भरी दृष्टि से निरखते परखते!
कोई सुनता तो हम भी कुछ कहते!!

ये सार्वभौम सी सच्चाई है
हमने सुनी,
आपके भी हृदय से..
अभी-अभी यही आवाज़ आई है
तिलमिलाती धूप में छाँव को न तरसते!
अगर होते अंतस्तल में बादल, ऐसे में खूब बरसते!!

खुल जाती सारी गांठे.. भावों में बहते बहते
मिल जाते सारे उत्तर.. प्रश्नों को कहते कहते
मौन का संवाद भी खुल जाता तब
सारा दर्द बातों में घुल जाता तब
फिर होती भोर.. हम मस्त पवन सम बहते!
कोई सुनता तो हम भी कुछ कहते!!!


मैं बरतती हूँ तुम्हे ऐसे
जैसे
हवा बरतती है सुगंध को
और दूब की नोक से चलकर
पहुचती है शिखर पर ,
मैं बरतती हूँ तुम्हे ऐसे
जैसे
जल बरतता है मिठास को
और घुलकर घनी भूत होकर
मिटाता है युगों की प्यास ,
मैं बरतती हूँ तुम्हे ऐसे
जैसे
धरती बरतती है हरी घास को
और उसकी हरियाली में 
लहालोट हो छुपा लेती है चेहरा ,
मैं बरतती हूँ तुम्हे ऐसे
जैसे
उमंगें बरतती है उद्दाम को
और अपनी बाहों में
भर लेना चाहती हैं समूचा आकाश

कुछ रेगिस्तान,कुछ गीली मिटटी,कुछ दहकते एहसास - खोजने के दरम्यान मैं मैं नहीं रह जाती - कतरा कतरा एक कलम बन जाती हूँ