शनिवार, 9 फ़रवरी 2013

जैसे.. फासले से


बाह्य बोल रहा है - निरंतर 
अन्दर की ख़ामोशी चट्टान हो गई है 
तुम किससे मिलना चाहते हो 
उससे जो उदासीन है दर्द से 
या उससे जिसके भीतर दर्द ने पनाह ले ली है गहरे रिश्ते की तरह ...
उदासीनता तुम्हें हास्यास्पद लगेगी 
पर जिस दिन तुम चट्टान से टेक लगाओगे 
तुम्हें तुम्हारे खोये आंसू मिल जायेंगे !

                 रश्मि प्रभा 


हारे हुए ख्वाब की
प्रतिध्वनि के बीच
तुम आते हो जब...
खसलत की बेदिली में 
गल्प का अम्बार लिए
अश्कों की कतारों में  
लिख जाते हो  
मेरा आदिम सच  ?
खुली हवा के  
बंधे पांव से पूछो 
कब घूमना हुआ ?
हम दोनों के
परिमोक्ष के साथ
तुम आते हो जब... 
पोर-पोर में रचे
ऐतबार के साथ
छोड़ जाते हो 
अपनी असीमता ?
 फिजाओं में बहकते
शुष्क सन्नाटों के बीच  
 अनछुए पल
वापस करने को  
तुम आते हो जब..
बंद दरवाजों की
सांकल बजाते
अपने-पराये की
तर्क-समीक्षाओं से
अलग-थलग
तब सहेजकर रखी जाती है
यातनाएं
जैसे ..करीने से
रखा जाता है स्पर्श
जैसे.. फासले से  
रखी जाती है आग
जैसे.. सुकून से
रखा जाता है शोर                                                       

 राहुल 
http://rahul-dilse-2.blogspot.in/
[IMG_1766.JPG]

शुक्रवार, 1 फ़रवरी 2013

डॉ. सरोज गुप्ता - http://facebook.com/saroj.delhi50




पढ़ती हूँ .... चलती जाती हूँ इस पन्ने से उस पन्ने तक 
कुछ पन्ने थाम लेते हैं ऊँगली 
अपनी बौद्धिक सोच के किनारे देते हैं 
सोच की प्यास बुझाने का अद्भुत जल 
..........
आइये इस जल को साझा कर लें ....

                 रश्मि प्रभा 

मान लूँ ?

यह मेरा है कंकाल ?
कैसे मान लूँ ?
खिलाया मैंने इसे माल ,
चल भेड चाल ,
उतारी सबकी खाल ,
तब किया था ऊंचा ,
कहीं जाकर अपना भाल !
यह मेरा नहीं कंकाल !

यह मेरा नहीं कंकाल !
पिटो कितने गाल, 
नहीं गलेगी दाल ,
यह तुम्हारी बेढम चाल ,
नहीं निकलेगा कोई सुर ,
लगा लो कितने गुरु -गुर ,
मिट जाएगा एक दिन 
यह अकडा,सुकडा,लंगडा,
मानव का बिगड़ा असली रूप ,
तू बहुत लगे कुरूप ,
बोल सच -
तू है क्या बहरूपिया ?
तू ही मेरा सच ,
मेरा ही कंकाल !

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कही यह इंसान तो नहीं ?

इसकी खुरदुरी हथेलियाँ 
बताती है कि
यह एक कामगार है !
कामगार सृजनहार होता है 
इसकी हथेली में कैद हैं 
चमकीली सीपियाँ 
कही यह रचनाकार तो नहीं ?

रोज -रोज गढ़ता है नया 
फिर उसे मिटाता है !
मिट्टी को मिटटी में मिलाता है 
कही यह कुम्हार तो नहीं ?

इसकी हथेली की 
मोटी -मोटी लकीरें 
लोहे की छड जैसी 
हो गयी हैं 
लोहा लोहे को काटता है 
यह भी काटेगा 
सदियों से जकड़ी जंजीरें 
कही यह लुहार तो नहीं ?

रुखी-सूखी हथेलियों से 
उठायी बोझों की टोकरियाँ 
भूख की आग से जल रही हैं 
पेट की आंतडियां 
सिकुड़ कर हो गयी 
जैसे गली संकरी 
चराते हुए बकरियां 
दीमक ने खा ली है पसलियाँ 
कही यह इंसान तो नहीं ?

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इरेजर 
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रात 
मौत से 
मिलने गई रेखाएं ! 
लाल खून से 
भरी थी सारी शिराएँ !
सहलाने को 
इनकी सिसकती आहें 
जल रही थी 
करोड़ो मोमबतियां !
मौत ने थमा इरेजर 
रेखाओं को ,
नो एंट्री का बोर्ड लगा दिया !
दुनिया में जितनी भी है पैंट्री, 
भूख कभी नहीं मिटेगी 
स्वार्थ लोलुपता 
अगर बढती रहेगी इस जेन्ट्री में !