सोमवार, 30 दिसंबर 2013

मेरी नज़र से ओल्ड इज़ गोल्ड - 5


उन्होंने कहा
लिखा 
और सोचने को विवश किया 
क्या है हौसला 
क्या है मान  … सब बताया 
और कहा - तुम भी लिखो न  - तो आज मेरी यात्रा है कवि हरिवंश राय बच्चन के साथ 

कवि बच्चन के साथ कुछ दूर


कवि मैं तुमको जीना चाहती हूँ . तुम हो यहीं ... मधुशाला , मधुबाला , ..... अपने एकांत संगीत में . कभी तेज , कभी शेष , कभी आशा , कभी गुमशुदा राहों की तरह . अपनी कलम में तुम्हें मढना चाहती हूँ - तुम्हें लूँ तो कैसे ? स्व की तरह लेना सही होगा , क्योंकि जो तुम हो , वही तो मैं हूँ . क्या लिखते समय तुम्हारे अन्दर वह अल्हड़ लड़की नहीं थी , जो कभी गई बात में थी , कभी दीपशिखा के स्वप्निल आँखों में ...

कवि तुम्हारा परिचय यूँ है -

" मैं जग-जीवन का भार लिए फिरता हूँ,
फिर भी जीवन में प्‍यार लिए फिरता हूँ;
कर दिया किसी ने झंकृत जिनको छूकर
मैं सासों के दो तार लिए फिरता हूँ!
मैं स्‍नेह-सुरा का पान किया करता हूँ,
मैं कभी न जग का ध्‍यान किया करता हूँ,
जग पूछ रहा है उनको, जो जग की गाते,
मैं अपने मन का गान किया करता हूँ!
मैं निज उर के उद्गार लिए फिरता हूँ,
मैं निज उर के उपहार लिए फिरता हूँ;
है यह अपूर्ण संसार ने मुझको भाता
मैं स्‍वप्‍नों का संसार लिए फिरता हूँ!
मैं जला हृदय में अग्नि, दहा करता हूँ,
सुख-दुख दोनों में मग्‍न रहा करता हूँ;
जग भ्‍ाव-सागर तरने को नाव बनाए,
मैं भव मौजों पर मस्‍त बहा करता हूँ!
मैं यौवन का उन्‍माद लिए फिरता हूँ,
उन्‍मादों में अवसाद लए फिरता हूँ,
जो मुझको बाहर हँसा, रुलाती भीतर,
मैं, हाय, किसी की याद लिए फिरता हूँ!
कर यत्‍न मिटे सब, सत्‍य किसी ने जाना?
नादन वहीं है, हाय, जहाँ पर दाना!
फिर मूढ़ न क्‍या जग, जो इस पर भी सीखे?
मैं सीख रहा हूँ, सीखा ज्ञान भूलना!
मैं और, और जग और, कहाँ का नाता,
मैं बना-बना कितने जग रोज़ मिटाता;
जग जिस पृथ्‍वी पर जोड़ा करता वैभव,
मैं प्रति पग से उस पृथ्‍वी को ठुकराता!
मैं निज रोदन में राग लिए फिरता हूँ,
शीतल वाणी में आग लिए फिरता हूँ,
हों जिसपर भूपों के प्रसाद निछावर,
मैं उस खंडर का भाग लिए फिरता हूँ!
मैं रोया, इसको तुम कहते हो गाना,
मैं फूट पड़ा, तुम कहते, छंद बनाना;
क्‍यों कवि कहकर संसार मुझे अपनाए,
मैं दुनिया का हूँ एक नया दीवाना!
मैं दीवानों का एक वेश लिए फिरता हूँ,
मैं मादकता नि:शेष लिए फिरता हूँ;
जिसको सुनकर जग झूम, झुके, लहराए,
मैं मस्‍ती का संदेश लिए फिरता हूँ! "


और मेरा परिचय यूँ  -


" शब्दों की गुफाओं में
एक मौन तपस्या
कब दिन हुआ
कब रात हुई .... सब मौन रहा ....
बादल गरजे , बिजली कड़की
बूंद बूंद पानी बरसा
बूंद बूंद के भावों से
शब्दों का परिधान बना
आकृति जो साकार हुई
मेरा सपना साकार हुआ -
कुछ देर रुको
और गौर करो -
मैं हूँ शब्दांश
मैं हूँ भावार्थ
मैं ही हूँ गुंजित प्रतिध्वनि
मैं मौन भी हूँ
मैं स्वर भी हूँ
मैं विस्मित अनकही बातें हूँ
यह नाम तो बस एक माया है
सच भावों की एक छाया है
मेरा परिचय यही पहले भी था
मेरा यही परिचय आज भी है "


अपने मौन और शब्द में तुम कहते हो -

"एक दिन मैंने
मौन में शब्द को धँसाया था
और एक गहरी पीड़ा,
एक गहरे आनंद में,
सन्निपात-ग्रस्त सा,
विवश कुछ बोला था;
सुना, मेरा वह बोलना
दुनियाँ में काव्य कहलाया था।

आज शब्द में मौन को धँसाता हूँ,
अब न पीड़ा है न आनंद है
विस्मरण के सिन्धु में
डूबता सा जाता हूँ,
देखूँ,
तह तक
पहुँचने तक,
यदि पहुँचता भी हूँ,
क्या पाता हूँ। "

और मैं अपने भीतर के सन्नाटे में चीखती हूँ - अरे कोई है ? मौन से परे एक तलाश -

" सन्नाटा अन्दर हावी है ,
घड़ी की टिक - टिक.......
दिमाग के अन्दर चल रही है ।
आँखें देख रही हैं ,
...साँसें चल रही हैं
...खाना बनाया ,खाया
...महज एक रोबोट की तरह !
मोबाइल बजता है ...,
उठाती भी हूँ -
"हेलो ,...हाँ ,हाँ , बिलकुल ठीक हूँ ......"
हँसती भी हूँ ,प्रश्न भी करती हूँ ...
सबकुछ इक्षा के विपरीत !
...................
अपने - पराये की पहचान गडमड हो गई है ,
रिश्तों की गरिमा !
" स्व " के अहम् में विलीन हो गई है
......... मैं सन्नाटे में हूँ !
समझ नहीं पा रही ,
जाते वर्ष से गला अवरुद्ध है
या नए वर्ष पर दया आ रही है !
........आह !
एक अंतराल के बाद -किसी का आना ,
या उसकी चिट्ठी का आना
.......एक उल्लसित आवाज़ ,
और बाहर की ओर दौड़ना ......,
सब खामोश हो गए हैं !
अब किसी के आने पर कोई उठता नहीं ,
देखता है ,
आनेवाला उसकी ओर मुखातिब है या नहीं !
चिट्ठी ? कैसी चिट्ठी ?
-मोबाइल युग है !
खैर ,चिट्ठी जब आती थी
या भेजी जाती थी ,
तो सुन्दर पन्ने की तलाश होती थी ,
और शब्द मन को छूकर आँखों से छलक जाते थे
नशा था - शब्दों को पिरोने का !
अब सबके हाथ में मोबाइल है
पर लोग औपचारिक हो चले हैं !
मेसेज करते नहीं ,
मेसेज पढ़ने में दिल नहीं लगता ,
या टाइम नहीं होता !
फ़ोन करने में पैसे !
उठाने में कुफ्ती !
जितनी सुविधाएं उतनी दूरियां
वक़्त था ........
धूल से सने हाथ,पाँव,माँ की आवाज़ .....
"हाथ धो लो , पाँव धो लो "
और , उसे अनसुना करके भागना ,
गुदगुदाता था मन को .....
अब तो !माँ के सिरहाने से ,
पत्नी की हिदायत पर ,
माँ का मोजा नीचे फ़ेंक देता है बेटा !
क्षणांश को भी नहीं सोचता
" माँ झुककर उठाने में लाचार हो चली है ......"
.......सोचने का वक़्त भी कहाँ ?
रिश्ते तो
हम दो ,हमारे दो या एक ,
या निल पर सिमट चले हैं ......
लाखों के घर के इर्द - गिर्द
-जानलेवा बम लगे हैं !
बम को फटना है हर हाल में ,
परखचे किसके होंगे
-कौन जाने !
ओह !गला सूख रहा है .............
भय से या - पानी का स्रोत सूख चला है ?
सन्नाटा है रात का ?
या सारे रिश्ते भीड़ में गुम हो चले हैं ?
कौन देगा जवाब ?
कोई है ?
अरे कोई है ???...


सहयात्री बनो तुम या मैं ...पर शब्दों के इस रिश्ते में तुम तुम हो और मैं मात्र एक अकिंचन शब्द -तुम विस्तार -


" नीड़ का निर्माण फिर-फिर,
नेह का आह्णान फिर-फिर!

वह उठी आँधी कि नभ में
छा गया सहसा अँधेरा,
धूलि धूसर बादलों ने
भूमि को इस भाँति घेरा,

रात-सा दिन हो गया, फिर
रात आ‌ई और काली,
लग रहा था अब न होगा
इस निशा का फिर सवेरा,

रात के उत्पात-भय से
भीत जन-जन, भीत कण-कण
किंतु प्राची से उषा की
मोहिनी मुस्कान फिर-फिर!

नीड़ का निर्माण फिर-फिर,
नेह का आह्णान फिर-फिर!

वह चले झोंके कि काँपे
भीम कायावान भूधर,
जड़ समेत उखड़-पुखड़कर
गिर पड़े, टूटे विटप वर,

हाय, तिनकों से विनिर्मित
घोंसलो पर क्या न बीती,
डगमगा‌ए जबकि कंकड़,
ईंट, पत्थर के महल-घर;

बोल आशा के विहंगम,
किस जगह पर तू छिपा था,
जो गगन पर चढ़ उठाता
गर्व से निज तान फिर-फिर!

नीड़ का निर्माण फिर-फिर,
नेह का आह्णान फिर-फिर!

क्रुद्ध नभ के वज्र दंतों
में उषा है मुसकराती,
घोर गर्जनमय गगन के
कंठ में खग पंक्ति गाती;

एक चिड़िया चोंच में तिनका
लि‌ए जो जा रही है,
वह सहज में ही पवन
उंचास को नीचा दिखाती!

नाश के दुख से कभी
दबता नहीं निर्माण का सुख
प्रलय की निस्तब्धता से
सृष्टि का नव गान फिर-फिर!

नीड़ का निर्माण फिर-फिर,
नेह का आह्णान फिर-फिर!..."


मैं आरम्भ का एक तिनका -


" एक खिलखिलाती हँसी मेरे पास रुकी है ,
एक गुनगुनाती नदी मेरे पास गा रही है,
सूरज -
नए विचार , नया तेज , नई दृढ़ता
किरण कवच में लेकर आया है .....
बड़ों का आशीर्वाद,
बच्चों की मासूमियत
हवाओं में झूम रही है.........
आओ ,
हम इन्हे मिलकर बाँट लें
और एक नई शुरुआत करें !"


.... तुम संबल बनते हो -

"वृक्ष हों भले खड़े,
हों घने हों बड़े,
एक पत्र छांह भी,
मांग मत, मांग मत, मांग मत,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ

तू न थकेगा कभी,
तू न रुकेगा कभी,
तू न मुड़ेगा कभी,
कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ

यह महान दृश्य है,
चल रहा मनुष्य है,
अश्रु श्वेत रक्त से,
लथपथ लथपथ लथपथ,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ "


मैं जिजीविषा की नन्हीं सी किरण -

" कभी दिल ना लगे,
कोई बात ना मिले,
दसों दिशाएँ स्तब्ध हों,
सूर्य क्षितिज में डूबता लगे,
मन में अंधेरों की बारिश सी हो-
..............
अनजानी दिशा में आवाज़ देना खुद को,
प्रतिध्वनि बन वह तुम्हारे पास आएगी
हमसफ़र बन सूरज के रथ का स्वागत करेगी
दसों दिशाओं में मंगलाचार बन प्रकाश का आह्वान करेगी.........
विश्वास ना हो तो आजमा लो
तुम्हारा 'स्व' कितना शक्तिशाली है "

हे कालजई कवि , मैं तुम्हें भावों का तर्पण अर्पण करती हूँ .... 
पढ़ पढ़ करके मधुशाला ....




बुधवार, 4 दिसंबर 2013

मेरी नज़र से ओल्ड इज़ गोल्ड - 4





















भगत सिंह करीब १२ वर्ष के थे जब जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड हुआ था। इसकी सूचना मिलते ही भगत सिंह अपने स्कूल से १२ मील पैदल चलकर जलियाँवाला बाग पहुँच गये। इस उम्र में भगत सिंह अपने चाचाओं की क्रान्तिकारी किताबें पढ़ कर सोचते थे कि इनका रास्ता सही है कि नहीं ? गांधी जी का असहयोग आन्दोलन छिड़ने के बाद वे गान्धी जी के अहिंसात्मक तरीकों और क्रान्तिकारियों के हिंसक आन्दोलन में से अपने लिये रास्ता चुनने लगे। गान्धी जी के असहयोग आन्दोलन को रद्द कर देने के कारण देश के तमाम नवयुवकों की भाँति उनमें भी रोष हुआ और अन्ततः उन्होंने देश की स्वतन्त्रता के लिये क्रान्ति का मार्ग अपनाना अनुचित नहीं समझा। उन्होंने जुलूसों में भाग लेना प्रारम्भ किया तथा कई क्रान्तिकारी दलों के सदस्य बने। कुछ समय बाद भगत सिंह करतार सिंह साराभा के संपर्क में आये जिन्होंने भगत सिंह को क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल होने की सलाह दी और साथ ही वीर सावरकर की किताब 1857 प्रथम स्वतंत्रता संग्राम पढने के लिए दी, भगत सिंह इस किताब से बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने इस किताब के बाकी संस्करण भी छापने के लिए सहायता प्रदान की, जून 1924 में भगत सिंह वीर सावरकर से येरवडा जेल में मिले और क्रांति की पहली गुरुशिक्षा ग्रहण की, यही से भगत सिंह के जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन आया, उन्होंने सावरकर जी के कहने पर आजाद जी से मुलाकात की और उनके दल में शामिल हुए| बाद में वे अपने दल के प्रमुख क्रान्तिकारियों के प्रतिनिधि भी बने। उनके दल के प्रमुख क्रान्तिकारियों में चन्द्रशेखर आजाद, भगवतीचरण व्होरा, सुखदेव, राजगुरु इत्यादि थे।
 भगतसिंह ने देश की आज़ादी के लिए जिस साहस के साथ शक्तिशाली ब्रिटिश सरकार का मुक़ाबला किया, वह आज के युवकों के लिए एक बहुत बड़ा आदर्श है। इन्होंने केन्द्रीय संसद (सेण्ट्रल असेम्बली) में बम फेंककर भी भागने से मना कर दिया। जिसके फलस्वरूप इन्हें २३ मार्च, १९३१ को इनके दो अन्य साथियों, राजगुरु तथा सुखदेव के साथ फाँसी पर लटका दिया गया। सारे देश ने उनके बलिदान को बड़ी गम्भीरता से याद किया। उनके जीवन ने कई हिन्दी फ़िल्मों के चरित्रों को प्रेरित किया। कुछ फ़िल्में तो उनके नाम से बनाई गयीं जैसे - द लीज़ेंड ऑफ़ भगत सिंह। मनोज कुमार की सन् १९६५ में बनी फिल्म शहीद भगत सिंह के जीवन पर बनायीं गयी अब तक की सर्वश्रेष्ठ प्रामाणिक फिल्म मानी जाती है। काकोरी काण्ड में ४ क्रान्तिकारियों को फाँसी व १६ अन्य को कारावास की सजाओं से भगत सिंह इतने अधिक उद्विग्न हुए कि उन्होंने १९२८ में अपनी पार्टी नौजवान भारत सभा का हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन में विलय कर दिया और उसे एक नया नाम दिया हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन। पहले लाहौर में साण्डर्स-वध और उसके बाद दिल्ली की केन्द्रीय असेम्बली में चन्द्रशेखर आजाद व पार्टी के अन्य सदस्यों के साथ बम-विस्फोट करके ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध खुले विद्रोह को बुलन्दी प्रदान की। इन सभी बम धमाको के लिए उन्होंने वीर सावरकर के क्रांतिदल अभिनव भारत की भी सहायता ली और इसी दल से बम बनाने के गुर सीखे
"मैं नास्तिक क्यों हूँ" - यह आलेख भगत सिंह ने जेल में लिखा - अपने इस आलेख में भगत सिंह ने ईश्वर को लेकर अनेक तर्क दिए हैं ! उसके कुछ अंश =

मैं पूछता हूँ तुम्हारा सर्वशक्तिशाली ईश्वर हर व्यक्ति को क्यों नहीं उस समय रोकता है जब वह कोई पाप या अपराध कर रहा होता है? यह तो वह बहुत आसानी से कर सकता है। उसने क्यों नहीं लड़ाकू राजाओं की लड़ने की उग्रता को समाप्त किया और इस प्रकार विश्वयुद्ध द्वारा मानवता पर पड़ने वाली विपत्तियों से उसे बचाया? उसने अंग्रेजों के मस्तिष्क में भारत को मुक्त कर देने की भावना क्यों नहीं पैदा की? वह क्यों नहीं पूँजीपतियों के हृदय में यह परोपकारी उत्साह भर देता कि वे उत्पादन के साधनों पर अपना व्यक्तिगत सम्पत्ति का अधिकार त्याग दें और इस प्रकार केवल सम्पूर्ण श्रमिक समुदाय, वरन समस्त मानव समाज को पूँजीवादी बेड़ियों से मुक्त करें? आप समाजवाद की व्यावहारिकता पर तर्क करना चाहते हैं। मैं इसे आपके सर्वशक्तिमान पर छोड़ देता हूँ कि वह लागू करे। जहाँ तक सामान्य भलाई की बात है, लोग समाजवाद के गुणों को मानते हैं। वे इसके व्यावहारिक न होने का बहाना लेकर इसका विरोध करते हैं। परमात्मा को आने दो और वह चीज को सही तरीके से कर दे। अंग्रेजों की हुकूमत यहाँ इसलिये नहीं है कि ईश्वर चाहता है बल्कि इसलिये कि उनके पास ताकत है और हममें उनका विरोध करने की हिम्मत नहीं। वे हमको अपने प्रभुत्व में ईश्वर की मदद से नहीं रखे हैं, बल्कि बन्दूकों, राइफलों, बम और गोलियों, पुलिस और सेना के सहारे। यह हमारी उदासीनता है कि वे समाज के विरुद्ध सबसे निन्दनीय अपराध – एक राष्ट्र का दूसरे राष्ट्र द्वारा अत्याचार पूर्ण शोषण – सफलतापूर्वक कर रहे हैं। कहाँ है ईश्वर? क्या वह मनुष्य जाति के इन कष्टों का मज़ा ले रहा है? एक नीरो, एक चंगेज, उसका नाश हो!

क्या तुम मुझसे पूछते हो कि मैं इस विश्व की उत्पत्ति तथा मानव की उत्पत्ति की व्याख्या कैसे करता हूँ? ठीक है, मैं तुम्हें बताता हूँ। चाल्र्स डारविन ने इस विषय पर कुछ प्रकाश डालने की कोशिश की है। उसे पढ़ो। यह एक प्रकृति की घटना है। विभिन्न पदार्थों के, नीहारिका के आकार में, आकस्मिक मिश्रण से पृथ्वी बनी। कब? इतिहास देखो। इसी प्रकार की घटना से जन्तु पैदा हुए और एक लम्बे दौर में मानव। डार्विन की ‘जीव की उत्पत्ति’ पढ़ो। और तदुपरान्त सारा विकास मनुष्य द्वारा प्रकृति के लगातार विरोध और उस पर विजय प्राप्त करने की चेष्टा से हुआ। यह इस घटना की सम्भवतः सबसे सूक्ष्म व्याख्या है।

तुम्हारा दूसरा तर्क यह हो सकता है कि क्यों एक बच्चा अन्धा या लंगड़ा पैदा होता है? क्या यह उसके पूर्वजन्म में किये गये कार्यों का फल नहीं है? जीवविज्ञान वेत्ताओं ने इस समस्या का वैज्ञानिक समाधान निकाल लिया है। अवश्य ही तुम एक और बचकाना प्रश्न पूछ सकते हो। यदि ईश्वर नहीं है, तो लोग उसमें विश्वास क्यों करने लगे? मेरा उत्तर सूक्ष्म तथा स्पष्ट है। जिस प्रकार वे प्रेतों तथा दुष्ट आत्माओं में विश्वास करने लगे। अन्तर केवल इतना है कि ईश्वर में विश्वास विश्वव्यापी है और दर्शन अत्यन्त विकसित। इसकी उत्पत्ति का श्रेय उन शोषकों की प्रतिभा को है, जो परमात्मा के अस्तित्व का उपदेश देकर लोगों को अपने प्रभुत्व में रखना चाहते थे तथा उनसे अपनी विशिष्ट स्थिति का अधिकार एवं अनुमोदन चाहते थे। सभी धर्म, समप्रदाय, पन्थ और ऐसी अन्य संस्थाएँ अन्त में निर्दयी और शोषक संस्थाओं, व्यक्तियों तथा वर्गों की समर्थक हो जाती हैं। राजा के विरुद्ध हर विद्रोह हर धर्म में सदैव ही पाप रहा है।
ईश्वर की उत्पत्ति के बारे में मेरा अपना विचार यह है कि मनुष्य ने अपनी सीमाओं, दुर्बलताओं व कमियों को समझने के बाद, परीक्षा की घड़ियों का बहादुरी से सामना करने, स्वयं को उत्साहित करने, सभी खतरों को मर्दानगी के साथ झेलने तथा संपन्नता एवं ऐश्वर्य में उसके विस्फोट को बाँधने के लिए - ईश्वर के काल्पनिक अस्तित्व की रचना की। अपने व्यक्तिगत नियमों और अविभावकीय उदारता से पूर्ण ईश्वर की बढ़ा-चढ़ाकर कल्पना एवं चित्रण किया गया। जब उसकी उग्रता तथा व्यक्तिगत नियमों की चर्चा होती है तो उसका उपयोग एक डरानेवाले के रूप में किया जाता है, ताकि मनुष्य समाज के लिए एक खतरा न बन जाए। जब उसके अविभावकीय गुणों की व्याख्या होती है तो उसका उपयोग एक पिता, माता, भाई, बहन, दोस्त तथा सहायक की तरह किया जाता है। इस प्रकार जब मनुष्य अपने सभी दोस्तों के विश्वासघात और उनके द्वारा त्याग देने से अत्यंत दुखी हो तो उसे इस विचार से सांत्वना मिल सकती है कि एक सच्चा दोस्त उसकी सहायता करने को है, उसे सहारा देगा, जो कि सर्वशक्तिमान है और कुछ भी कर सकता है। वास्तव में आदिम काल में यह समाज के लिए उपयोगी था। विपदा में पड़े मनुष्य के लिए ईश्वर की कल्पना सहायक होती है।
 मैं नहीं जानता कि ईश्वर में विश्वास और रोज-बरोज की प्रार्थना - जिसे मैं मनुष्य का सबसे अधिक स्वार्थी और गिरा हुआ काम मानता हूँ - मेरे लिए सहायक सिद्ध होगी या मेरी स्थिति को और चौपट कर देगी। मैंने उन नास्तिकों के बारे में पढ़ा है, जिन्होंने सभी विपदाओं का बहादुरी से सामना किया, अतः मैं भी एक मर्द की तरह फाँसी के फंदे की अंतिम घड़ी तक सिर ऊँचा किए खड़ा रहना चाहता हूँ।
मेरे एक दोस्त ने मुझे प्रार्थना करने को कहा। जब मैंने उसे अपने नास्तिक होने की बात बतलाई तो उसने कहा, ‘देख लेना, अपने अंतिम दिनों में तुम ईश्वर को मानने लगोगे।’ मैंने कहा, ‘नहीं प्रिय महोदय, ऐसा नहीं होगा। ऐसा करना मेरे लिए अपमानजनक तथा पराजय की बात होगी। स्वार्थ के लिए मैं प्रार्थना नहीं करूँगा।’ पाठकों और दोस्तो, क्या यह अहंकार है? अगर है, तो मैं इसे स्वीकार करता हूँ।

तर्क-प्रमाण से परे मेरी नज़र में भगत सिंह युवा शक्ति का अमोघ अस्त्र था  .... आज भी कानों में गूंजती हैं ये पंक्तियाँ -
"बड़ा ही गहरा दाग है यारों जिसका गुलामी नाम है
उसका जीना भी क्या जीना जिसका देश गुलाम है
सीने में जो दिल था यारों
आज बना वो शोला"

"वक़्त आने पर दिखा देंगे तुझे ओ आसमां 
हम अभी से क्या बताएं क्या हमारे दिल में है  …"

भगत सिंह का नाम आए और उनकी माँ का ज़िक्र न हो -
भगत सिंह की माँ होना, ऐसी माँ का बेटा होना सौभाग्य तथा गौरव की बात है |”


भगत सिंह की माँ विधावती जी अदालतमे कुछ खिलाने को कुछ ले आती थी तो भगत सिंह कहते कि पहले बटुकेश्वर को खिलाओ,बटुकेश्वर ­ कहता की माँ पहले भगत सिंह को खिलाओ,अंत मे माँ दोनों को एक साथ खिलाती थी,एक बार अरुणा आसफजेल में गयी तो
एक कोठरी मे से बहुत सुरीलेगीत की आवाज आई,पता चला की भगत सिंह और उनके साथी मस्त होकर गीत
गा रहे थे और
ताल दी जा रही थी
हथकड़ीयोँ से ।
इँकलाब जिन्दाबाद

माँ की छवि को उभारा है अपनी लेखनी में श्रीकृष्ण सरल ने 

शान्ति के वरदान-सी, तुम धवल-वसना कौन?
संकुचित है मौन लख कर तुम्हारा मौन।
दूध की मुस्कान से संपृक्त ये सित केश,
सौम्यता पर शुभ्रता ज्यों विमल परिवेश।

साधुता की, सरल जीवन के लिए यह देन,
उल्लसित मंथित अमल ज्यों ज्योत्स्ना का फेन।
भव्यता धारण किये शुचि धवल दिव्य दुकूल,
या खिले जीवन-लता पर ये सुयश के फूल।

कलुषता निर्वासिनी, यह धवलता की जीत,
संवरित है शीष पर, यह स्नेह का नवनीत।
प्रस्फुटित है भाल पर मानो हृदय का ओप,
साधना पर, सिद्धि का मानो सुखद आरोप।

और मुख पर स्निग्ध अंतर की झलकती क्रांति
लग रही, ज्यों साँस सुख की ले रही हो शांति।
भावनाओं की, मुखाकृति सहज पुण्य-प्रसूति,
झुर्रियों में युग-युगों की सन्निहित अनुभूति।

देह पर चित्रित त्वचा की संकुचित हर रेख,
लग रही वय-पत्र पर ज्यों एक सुन्दर लेख।
या कि जीवन-भूमि पर-डण्डियों का जाल,
चल रहा वय का पथिक संध्या समय की चाल।

कौन हो इस भाँति अपने आप मे तुम लीन?
कौन हो तुम पुण्य-प्रतिमा-सी यहाँ आसीन?
कौन स्नेहाशीष की तुम मूर्ति अमित उदार?
कौन श्रद्धा-भावना ही तुम स्वयं साकार?

कौन तुम, मन में तुम्हारे कौन-सी है व्याधि?
अर्चना हित खींच लाई तुम्हें दिव्य समाधि।
है कृती वह कौन, किसका समाधिस्य कृतित्व?
वन्दना से स्वयं वन्दित, कौन वन व्यक्तित्व?

कौन माँ! ममता-मयी तुम? क्यों नयन में नीर?
उच्छ्वसित उर में तुम्हारे, कौन-सी है पीर?
पूछता हूँ मैं अकिंचन एक कवि अनजान,
भाव-मग्ना कर रहीं तुम किस व्रती का ध्यान?

`बस करो अब वत्स! अपना सुन लिया स्तुति गान,
अब नहीं अपराध आगे कर सकेंगे कान।
बात हौले से करो, स्वर को सम्हाल-सम्हाल,
सो रहा इस भूमि में बरजोर मेरा लाल।

सो रहा है यहाँ, मेरी कोख का भूचाल,
सो रहा इस भूमि से निज शत्रुओं का काल।
सो रहा है मातृ-मन का यहाँ शाश्वत गर्व,
सो रहा सुख से, मना कर वह यहाँ बलि-पर्व।

सो रहा वंशानुक्रम से पुष्ट रक्तोन्माद,
जो कि वातावरण में ढल, बन गया फौलाद।
सो रहा है यहाँ, मेरी आग का प्रिय फूल,
स्वर्ग का सुख दे रही, उसको धरा की धूल।

धूम धरती पर मचा, विद्रोह का वरदान,
यहाँ मेरे दूध का सोया अजस्र उफान।
सो गया उल्लास मेरा, सो गया आमोद,
एक माँ की गोद तज कर, दूसरी की गोद।

ओज अन्तस् का, यहाँ पर कर रहा विश्राम,
वत्स! क्या तुमको बतादूँ उस हठी का नाम?
लाल वह मेरा भगत, था सिंह ही साकार,
जन्म से ही था कहाया गया वह सरदार।

गर्जना उसकी विकट सुन, काँपते थे लाट,
पूत चरणों की तनिक ले लूँ सुशीतल धूल।
सुन लिया, क्या और परिचय रह गया कुछ शेष?
यहाँ मेरी भावना का सो रहा आवेश?

``तनिक ठहरो माँ! हुई वरदान मेरी भूल,
पूत चरणों की तनिक ले लूँ सुशीतल धूल।
इन पगों पर ही रहे युग-युग नमित यह माथ,
फेर दो इस शीष पर माँ! स्नेह-प्रश्लथ हाथ।

सिंह जननी धन्य हो तुम, कोटि बार प्रणम्य,
धन्य निश्चय ही तुम्हारा लाल वीर अदम्य।
किन्तु माँ! शंका तनिक मेरी अभी है शेष,
बात हौले से करूँ, यह क्यों मिला आदेश?

``अरे! इतनी-सी न समझे तुम सरल सी बात,
मानवी मन के कहाते पारखी निष्णात।
सत्य है, शंका तुम्हारी है नहीं निर्मूल,
अर्थ मेरे भाव का तुमने लिया प्रतिकूल।

वार्ता के तीव्र स्वर से जागने का खेद,
शान्ति के संकेत का मेरा नहीं यह भेद।
वार्ता का विषय कर सकता है उसे त्रस्त,
निज प्रशंसा-श्रवण का, वह था नहीं अभयस्त।

वत्स! दो बातें न की उसने कभी स्वीकारा,
स्वयं का गुण-गान, या फिर शत्रु की ललकार।
देख पाता था न मेरा लाल, आँखें लाल,
निज प्रशंसा भी उसे करती रही बे-हाल।

किन्तु तुमने पूर्ण करने स्वल्प शिष्टाचार,
था `कृती' या `व्रती' शब्दों का किया व्यवहार।
संकुचन के क्षोभ को, उसके लिए यह बात,
है बहुत छोटी, कदाचित् हो बड़ा व्याघात।

आज तक है याद मुझको एक दिन की शाम,
एक दिन आये कहीं से वे, न लूँगी नाम।
साथ उनके आ गये थे मित्र उनके एक,
वार्ता से ही प्रकट अति बुद्धि और विवेक।

प्रस्फुटित वातावरण में हास्य और विनोद,
पा रहे थे हम सभी, वह सरल निश्छल मोद।
किया उपक्रम, मैं करूँ जलपान का उपचार,
सिंह-शावक आ गया मेरे हृदय का हार।

प्रणत होकर अतिथि का, उसने किया सम्मान,
अतिथि की वाणी बनी वरदान का तूफान।
``तुम प्रणत मुझको, प्रणत हो तुम्हें सब संसार,
जियो युग-युग, तुम करो निज सुयश का विस्तार।

देख मेरी और बोले अतिथिवर सप्रयास,
कह रहा जो बात, भाभी! तुम करो विश्वास।
है अडिग विश्वास मन में, यह तुम्हारा लाल,
विश्व में ऊँचा करेगा मातृ-भू का भाल।

आत्मा कहती, बनेगा वीर यह सम्राट,
इस धरा की दासता की बेड़ियों को काट।
पूत के लक्षण प्रकट हैं पालने में आज,
सिंहनी का सुअन होगा विश्व का सरताज।

अल्प वय, इतनी विनय, इतना पराक्रम, ओज,
सिंह-शावक सी ठवनि, ये नयन रक्तंभोज।
देह सुगठित, विक्रमी चितवन समुन्नत भाल,
शत्रुओं का शत्रु होगा यह कठोर कराल।

अतिथिवर की बात में व्यति-क्रम हुआ तत्काल,
विनत होकर बाल ने स्वर में मधुरता ढाल।
कहा-`चाचाजी! अनय यदि मैं करूँ, हो क्षम्य,
बात मुझको लग रही अनपेक्ष और अगम्य।

कह मुझे सम्राट, देते स्वप्न का क्यों जाल?
स्वप्न में राजा बना सकते सदा कंगाल।
मातृ-भू का ही अकिंचन बन सका यदि भृत्य,
सफल समझूँगा सभी मैं साधना के कृत्य।

और यदि गुण-गान आवश्यक, निवेदन एक,
देश के सम्मान का, स्वर में रहें उद्रेक।
सुन प्रशंसा, आदमी कर्तव्य जाता भूल,
अनधिकृत श्लाघा, पतन के लिये पोषक मूल।

जो न करता निज प्रशंसा सुन कभी प्रतिवाद,
अंकुरित उर में हुआ करता प्रमत्त प्रमाद।
विकस यह अंकुर बने जब एक वृक्ष विशाल,
पतन के परिणाम का फिर कुछ न पूछो हाल।

फिर निवेदन विज्ञवर! हो क्षम्य यह व्याघात,
क्षम्य मेरी, आज छोटे मुँह बड़ी यह बात।
अनवरत अपनी प्रशंसा सुन हुआ कुछ क्षोभ,
प्रतिक्रमण का, संवरण मैं कर न पाया लोभ।'

``वार्ता का वत्स! अब मैं क्या करूँ विस्तार,
वह प्रशंसा का सदा करता रहा प्रतिकार।
शान्ति के संकेत का मेरा यही था अर्थ,
और भी शंका रही कुछ शेष सुकवि समर्थ?

``धन्य हो माँ! और क्या शंका रहेगी शेष?
धन्य ऐसे पुत्र पाकर माँ! हमारा देश।
धन्य हूँ मैं, आज सुन कर ये प्रबुद्ध विचार,
है नहीं सामर्थ्य, जो अभिव्यक्त हो आभार।

जानकर यह बात, जिज्ञासा बढ़ी कुछ और,
किन विचारों में पला था देश का सिर-मौर?
किस तरह विकसित हुआ मन में विकट बलिदान?
माँ! करो उपकृत, सुना कुछ और भी प्रतिमान।

वत्स तुम कितने चतुर, कितने उदार विचार,
स्वयं उपकृत का कथन कर, कर रहे उपकार।
मातृ-मन का जानते हो तुम मनोविज्ञान,
बात कर यह, कह रहे प्रमुदित मुझे मतिमान।

लाल मेरा, बालपन में था बहुत शैतान,
हम नहीं केवल,पड़ौसी भी रहे हैरान।
जब झगड़ता, साथियों के केश लेता नोंच,
चिह्न बनते गाल पर, लेता प्रकुप्त खरोंच।

फूल चुनना आग के, थे प्रिय उसे ये खेल,
घोर विपदाएँ विहँस कर लाल लेता झेल।
तोड़ता यह, फोड़ता वह, जोड़ता कुछ और,
थे कुएँ या बावड़ी सब खेलने के ठौर।

क्षमा करता, यदि कभी छोटे करें अपराध,
पर, सबल की धृष्टता का दण्ड था निर्बाध।
चौगुना भी क्यों न हो, वह माँगता था द्वन्द्व,
नम्र था व्यवहार में, संघर्ष में स्वच्छन्द।

मित्र की रक्षार्थ, वह बनता स्वयं था ढाल,
जो उसे नीचा दिखाए, किस सखी का लाल।
बाहुओं का जोर था उसके लिए उन्माद,
मोम-सा तन, किन्तु बनता द्वन्द्व में फौलाद।

स्नेह में भी, बैर में भीं, वह न था परिमेय,
दण्ड था उद्दंडता का, साधुता का श्रेय।
नीति दुश्मन की सही पर स्वजन की न अनीति,
व्यक्ति पर उसकी नहीं, व्यक्तित्व पर थी प्रीति।

और हाँ, पूछी अभी तुमने हृदय की पीर,
पूछते थे तुम, लिये मैं क्यों नयन में नीर।
तो सुनो, है सहज ही सुत, व्यथा का सन्ताप,
सुन न पाती आज मैं निज तात का संलाप।

वह न मेरे पास, मेरी मोद का श्रृंगार,
आज सूना है हृदय, खोकर हृदय का हार।
हैं तड़पते कान सुनने लाल के प्रिय बोल,
हैं कहाँ वे चूम लूँ जो मधुर स्निध कपोल।

अंक में भर लूँ जिसे, वह कहाँ कोमल गात,
वह न मेरे पास, उसकी रह गई है बात।
मातृ-मन्दिर पर हुआ अर्र्पित सुकोमल फूल,
शत्रुओं से जूझ, फाँसी पर गया वह झूल।

सांत्वना देता मुझे है लाल का सन्देश,
``शीघ्र ही स्वाधीन होगा माँ! हमारा देश।
तुम न समझो माँ! तुम्हारी गोद से मैं दूर,
तुम न समझो, आज तुम पर है विधाता क्रूर।

माँ! हमारे देश के जितने हठीले बाल,
वे तुम्हारे ही भगत हैं, वे तुम्हारे लाल।
देख छवि उनकी, किया करना मुझे तुम याद,
विसर्जन मेरा, न बन जाये तुम्हें अवसाद।

स्वर्गं भी है जिस धरा के सामने अति रंक,
जो सभी की माँ हमारी, ले रही वह अंक।
व्यर्थ जायेगा नहीं माँ! एक यह बलिदान,
है निकट स्वाधीनता का सुखद पुण्य-विहान।

मुक्ति की मंगल प्रभाती सुनें जिस दिन कान,
ले नया उत्साह, खग-कुल कर उठें कल गान।
जिस सुबह हो देश का वातावरण स्वच्छन्द,
गा उठें कवि-कण्ठ जिस दिन गीत नव, नव-छंद।

मुक्ति के दिन बाल-रवि की रश्मियों का जाल,
इस धरा पर कुंकुमी आभा अलभ्य उछाल।
पुण्य-भारतवर्ष का जिस दिन करे अभिषेक,
देश के नर-नाहरों की पूर्ण हो जब टेक।

जब उठे दीवानगी की लहर चारों ओर,
गगन-भेदी घोष चूमे जब गगन के छोर।
जब दिशाओं में तरंगित हो हृदय का हर्ष,
विश्व अभिनन्दन करे-जय देश भारतवर्ष!

तब मिलूंगा तुम्हें फूलों की सुरभि के संग,
तुम्हें किरणों में मिलूंगा मैं लिये नव-रंग।
तब पवन अठखेलियाँ कर, करे तुमको तंग,
तब समझना, ये भगत के ही निराले ढंग।

तब लगेगा माँ, दुपट्टा मैं रहा हूँ खींच,
तब लगेगा मैं तुम्हारे दृग रहा हूँ मींच।
भास परिचित स्पर्श का जब हो पुलक के साथ,
हाथ मेरा खींचने, अपना बढ़ा कर हाथ।

जब कहोगी-कौन हे रे ढीठ! तू है कौन?
तब तुम्हें उत्तर मिलेगा एक केवल मौन।
तुम चकित हो, चौंक देखोगी वहाँ सब ओर,
सुन सकोगी हर्ष-ध्वनियाँ और जय का शोर।

एक ही क्यों भगत, देखोगी अनेकों वीर,
नमित नयनों से तुम्हारे चू पडेग़ा नीर।
घुल सकेगा, धुल सकेगा रोष का उन्माद,
गर्व से प्रतिफल करोगी माँ मुझे तुम याद।

तो यही सन्देश सुत का, कर रहा परितोष,
है सराहा भाग्य मैंने, दे न विधि को दोष।
वत्स! अन्तर का बताया है तुम्हें सब हाल,
तुम बताओ, क्यों बने जिज्ञासु तुम इस काल?

``लग रहा माँ! मुझे जैसे आज जीवन धन्य,
आज मुझ-सा भाग्य-शाली कौन होगा अन्य?
कर न पाया तप कि पहले मिल गया वरदान,
पूर्ण होता दिख रहा अपना बड़ा अरमान।

भावनाओं ने हृदय से है किया अनुबन्ध,
क्रान्ति के इस देवता पर लिखूँ छन्द प्रबन्ध।
आ गया इस ओर लेने प्रेरणा मैं आज,
माँ! तुम्हारे लाल की जैसे सुनी अवाज।

लगा जैसे कह रहा हो सिंह आज दहाड़,
लेखनी से कवि निराशा का कुहासा फाड़।
तुम सुकवि हो, मिला वाणी का तुम्हें वरदान,
तुम जगा दो निज स्वरों से देश में बलिदान।

लेखनी की नोंक में भर दो हृदय की शक्ति,
और कह दो धर्म केवल है धरा की भक्ति।
देश की मिट्टी इधर, उस ओर सौ साम्राज्य,
ग्रहण मिट्टी को करो, साम्राज्य हों सौ त्याज्य।

शीष पर धर देश की मिट्टी, करो प्रण आज,
प्राण देकर भी रखेंगे, हम धरा की लाज।
सह न पायेंगे कभी हम, देश का अपमान,
देश का सम्मान है प्रत्येक का सम्मान।

जो उठाये इस हमारी मातृ-भू पर आँख,
रोष की ज्वाला भने, हर फूल की हर पाँख।
भूल कर भी जो छुए इस देश का सम्मान,
कड़कती बिजली बने हर कली की मुस्कान।

लक्ष्य इस आदर्श का, सब को बता दो आज,
सो रहे जो, कवि! जगा दो दे उन्हें आवाज।
आज कवि की लेखनी उगले कुटिल अंगार,
साधना का, रक्त की लाली करे श्रृंगार।

गर्जना का घोष हो, हर शब्द की झंकार,
रोष की हुँकार हो गाण्डीव की टंकार।
शान्ति का सरगम बने संघर्ष का उत्कर्ष,
आज भारतवर्ष का हर वीर हो दुर्द्धर्ष।

कवि! भरो पाषाण में भी आज पागल प्राण,
चाहता युग कवि-स्वरों का आज सत्य प्रमाण।
कर सके यह, लेखनी का तो सफल अस्तित्व,
सफल, वाणी का मिला जो आज तुमको स्वत्व।

``माँ! इसी सन्देश की उर ने सुनी आवाज,
खींच लाई है यही आवाज मुझको आज।
क्रांति के जो देवता, मेरे लिये आराध्य,
काव्य साधन मात्र, उनकी वन्दना है साध्य।

और यह सौभाग्य मेरा, जो यहाँ तुम प्राप्त,
क्या न शुभ संकल्प का संकेत यह पर्याप्त?
तुम करो माँ! आज मुझ पर और भी उपकार,
सिंह-सुत की वार्ता कह, आज सह-विस्तार।

``वत्स! तुमने विवश मुझको कर दिया है आज,
रह न पायेगा हृदय में आज कोई राज।
पर समय का भी हमें रखना पड़ेगा ध्यान,
क्यों न घर चल हम विचारों का करें प्रतिपादन?

दे सकूँगी क्या तुम्हें आतिथ्य का आह्लाद?
और रूखी रोटियों में क्या मिलेगा स्वाद?
किन्तु तुमको पास बैठा, स्नेह का ले रंग,
लाल के चित्रित करूँगी, मैं अनेक प्रसंग।

``माँ! तुम्हारा मान्य है साभार यह प्रस्ताव,
रोटियाँ रूखी भले, रूखा न होगा भाव।
वस्तु में क्या, भावना में ही निहित आनन्द,
काव्य शोभित भाव से, हो भले कोई छन्द।

तो चलो माँ! आज मुझको दो दिशा का दान,
आज मेरी भावनाओं को करो गतिवान।
मुक्त स्नेहाशीष का खोलो अमित भण्डार,
विश्व-जीवन को बने आलोक, माँ का प्यार।

======================================
भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के बलिदान

भगत सिंह प्रायः यह शेर गुनगुनाते रहते थे-
जबसे सुना है मरने का नाम जिन्दगी है
सर से कफन लपेटे कातिल को ढूँढ़ते हैं।। 

२३ मार्च १९३१ को सायंकाल ७ बजकर २३ मिनट पर भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु फाँसी के फंदे पर झूल गए। श्रीकृष्ण सरल द्वारा लिखी गई कविता उनके ग्रंथ क्रान्ति गंगा से साभार यहाँ दी जा रही है।

आज लग रहा कैसा जी को कैसी आज घुटन है
दिल बैठा सा जाता है, हर साँस आज उन्मन है
बुझे बुझे मन पर ये कैसी बोझिलता भारी है
क्या वीरों की आज कूच करने की तैयारी है?

हाँ सचमुच ही तैयारी यह, आज कूच की बेला
माँ के तीन लाल जाएँगे, भगत न एक अकेला
मातृभूमि पर अर्पित होंगे, तीन फूल ये पावन,
यह उनका त्योहार सुहावन, यह दिन उन्हें सुहावन।

फाँसी की कोठरी बनी अब इन्हें रंगशाला है
झूम झूम सहगान हो रहा, मन क्या मतवाला है।
भगत गा रहा आज चले हम पहन वसंती चोला
जिसे पहन कर वीर शिवा ने माँ का बंधन खोला।

झन झन झन बज रहीं बेड़ियाँ, ताल दे रहीं स्वर में
झूम रहे सुखदेव राजगुरु भी हैं आज लहर में।
नाच नाच उठते ऊपर दोनों हाथ उठाकर,
स्वर में ताल मिलाते, पैरों की बेड़ी खनकाकर।

पुनः वही आलाप, रंगें हम आज वसंती चोला
जिसे पहन राणा प्रताप वीरों की वाणी बोला।
वही वसंती चोला हम भी आज खुशी से पहने,
लपटें बन जातीं जिसके हित भारत की माँ बहनें।

उसी रंग में अपने मन को रँग रँग कर हम झूमें,
हम परवाने बलिदानों की अमर शिखाएँ चूमें।
हमें वसंती चोला माँ तू स्वयं आज पहना दे,
तू अपने हाथों से हमको रण के लिए सजा दे।

सचमुच ही आ गया निमंत्रण लो इनको यह रण का,
बलिदानों का पुण्य पर्व यह बन त्योहार मरण का।
जल के तीन पात्र सम्मुख रख, यम का प्रतिनिधि बोला,
स्नान करो, पावन कर लो तुम तीनो अपना चोला।

झूम उठे यह सुनकर तीनो ही अल्हण मर्दाने,
लगे गूँजने और तौव्र हो, उनके मस्त तराने।
लगी लहरने कारागृह में इंक्लाव की धारा,
जिसने भी स्वर सुना वही प्रतिउत्तर में हुंकारा।

खूब उछाला एक दूसरे पर तीनों ने पानी,
होली का हुड़दंग बन गई उनकी मस्त जवानी।
गले लगाया एक दूसरे को बाँहों में कस कर,
भावों के सब बाँढ़ तोड़ कर भेंटे वीर परस्पर।

मृत्यु मंच की ओर बढ़ चले अब तीनो अलबेले,
प्रश्न जटिल था कौन मृत्यु से सबसे पहले खेले।
बोल उठे सुखदेव, शहादत पहले मेरा हक है,
वय में मैं ही बड़ा सभी से, नहीं तनिक भी शक है।

तर्क राजगुरु का था, सबसे छोटा हूँ मैं भाई,
छोटों की अभिलषा पहले पूरी होती आई।
एक और भी कारण, यदि पहले फाँसी पाऊँगा,
बिना बिलम्ब किए मैं सीधा स्वर्ग धाम जाऊँगा।

बढ़िया फ्लैट वहाँ आरक्षित कर तैयार मिलूँगा,
आप लोग जब पहुँचेंगे, सैल्यूट वहाँ मारूँगा।
पहले ही मैं ख्याति आप लोगों की फैलाऊँगा,
स्वर्गवासियों से परिचय मैं बढ, चढ़ करवाऊँगा।

तर्क बहुत बढ़िया था उसका, बढ़िया उसकी मस्ती,
अधिकारी थे चकित देख कर बलिदानी की हस्ती।
भगत सिंह के नौकर का था अभिनय खूब निभाया,
स्वर्ग पहुँच कर उसी काम को उसका मन ललचाया।

भगत सिंह ने समझाया यह न्याय नीति कहती है,
जब दो झगड़ें, बात तीसरे की तब बन रहती है।
जो मध्यस्त, बात उसकी ही दोनों पक्ष निभाते,
इसीलिए पहले मैं झूलूं, न्याय नीति के नाते।

यह घोटाला देख चकित थे, न्याय नीति अधिकारी,
होड़ा होड़ी और मौत की, ये कैसे अवतारी।
मौत सिद्ध बन गई, झगड़ते हैं ये जिसको पाने,
कहीं किसी ने देखे हैं क्या इन जैसे दीवाने?

मौत, नाम सुनते ही जिसका, लोग काँप जाते हैं,
उसको पाने झगड़ रहे ये, कैसे मदमाते हें।
भय इनसे भयभीत, अरे यह कैसी अल्हण मस्ती,
वन्दनीय है सचमुच ही इन दीवानो की हस्ती।

मिला शासनादेश, बताओ अन्तिम अभिलाषाएँ,
उत्तर मिला, मुक्ति कुछ क्षण को हम बंधन से पाएँ।
मुक्ति मिली हथकड़ियों से अब प्रलय वीर हुंकारे,
फूट पड़े उनके कंठों से इन्क्लाब के नारे ।

इन्क्लाब हो अमर हमारा, इन्क्लाब की जय हो,
इस साम्राज्यवाद का भारत की धरती से क्षय हो।
हँसती गाती आजादी का नया सवेरा आए,
विजय केतु अपनी धरती पर अपना ही लहराए।

और इस तरह नारों के स्वर में वे तीनों डूबे,
बने प्रेरणा जग को, उनके बलिदानी मंसूबे।
भारत माँ के तीन सुकोमल फूल हुए न्योछावर,
हँसते हँसते झूल गए थे फाँसी के फंदों पर।

हुए मातृवेदी पर अर्पित तीन सूरमा हँस कर,
विदा हो गए तीन वीर, दे यश की अमर धरोहर।
अमर धरोहर यह, हम अपने प्राणों से दुलराएँ,
सिंच रक्त से हम आजादी का उपवन महकाएँ।

जलती रहे सभी के उर में यह बलिदान कहानी,
तेज धार पर रहे सदा अपने पौरुष का पानी।
जिस धरती बेटे हम, सब काम उसी के आएँ,
जीवन देकर हम धरती पर, जन मंगल बरसाएँ।।

शुक्रवार, 29 नवंबर 2013

मेरी नज़र से ओल्ड इज़ गोल्ड - 3

 फ़िल्म वही अच्छी होती है- जिसमें ज़िन्दगी के ख़ास हिस्से यानि नौ रस होते हैं और रस को 'काव्य की आत्मा' या 'प्राण तत्व' माना जाता है  . 
शृंगार रस
हास्य रस
करुण रस
वीर रस
रौद्र रस
भयानक रस
वीभत्स रस
अद्भुत रस
शांत रस
वात्सल्य रस
भक्ति रस
………… किस रस के सागर में हम हैं,
यह लेखक और पाठक, 
कलाकार और द्रष्टा-श्रोता ही जानते हैं  . आज मैं पुरानी कलम की नवीनता लिए आपके बीच हूँ - किसी के सन्दर्भ में कुछ कहना छोटा मुंह,बड़ी बात जैसी बात होगी,और यह धृष्टता मैं नहीं कर सकती ! श्रद्धा भावना लिए मैं बस ले चलती हूँ आपको कविता,गीत,कहानी  .... के घेरदार ओस से भीगे रास्तों पर,जहाँ शाख से जुड़ी पारिवारिक,प्राकृतिक,आध्यात्मिक,प्रेम से रंगी हरी,जर्जर,उगती पत्तियाँ हैं  .... है उनकी सरसराहट,उनका सौंदर्य,उनका स्पर्श 
तो बढ़ाते हैं कदम उस नाम के साथ,जिनके द्वारा नाम पाकर मैं धन्य हुई - जी हाँ,

कवि सुमित्रानंदन पंत 

बाँध दिए क्यों प्राण प्राणों से
तुमने चिर अनजान प्राणों से

गोपन रह न सकेगी
अब यह मर्म कथा
प्राणों की न रुकेगी
बढ़ती विरह व्यथा
विवश फूटते गान प्राणों से

यह विदेह प्राणों का बंधन
अंतर्ज्वाला में तपता तन
मुग्ध हृदय सौन्दर्य ज्योति को
दग्ध कामना करता अर्पण
नहीं चाहता जो कुछ भी आदान प्राणों से


अब सुनते हैं वह गीत - जिसे अश्रुओं के बगैर कभी सुन न सकी  . पंडित नरेंद्र शर्मा के लिखे किस गीत को कम कहूँ !- पर यह गीत माँ' के लिए बच्चे के रोम रोम से निकली भावना है 

दर भी था थी दीवारें भी
तुमसे ही घर घर कहलाया 
तुमसे ही घर घर कहलाया 

सूना मंदिर था मन मेरा 
बुझा दीप था जीवन मेरा 
प्रतिमा के पावन चरणों में 
मैं दीपक बनकर मुस्काया 
तुमसे ही घर घर कहलाया 

देवालय बन गया सुहावन 
माँ तुमसे मेरा घर आँगन 
आँचल की ममता माया में 
पाई सुख की शीतल छाया 
तुमसे ही घर घर कहलाया

कैसे हो गुणगान तुम्हारा 
जो कुछ है वरदान तुम्हारा 
तुमने ही मेरे जीवन के 
सपनों को सच कर दिखलाया 
तुमसे ही घर घर कहलाया 

आँखें मेरी ज्योति तुम्हारी 
रह न गई राहें अंधियारी 
रहने दो मेरे माथे पर 
माँ तुमने जो हाथ बढ़ाया 
तुमसे ही घर घर कहलाया 
तुमसे ही घर घर कहलाया 







मंगलवार, 26 नवंबर 2013

मेरी नज़र से ओल्ड इज़ गोल्ड - 2




नूतन - नाम लेते ही एक मासूम लड़की अल्हड सी चाल में सामने आती है -

"जोगी जब से तू आया मेरे द्वारे 
हो मेरे रंग गए सांझ सकारे   ...."

हिन्दी सिनेमा की सबसे प्रसिद्ध अभिनेत्रियों में से एक रही हैं। भारतीय सिनेमा जगत में नूतन को एक ऐसी अभिनेत्री के तौर पर याद किया जाता है जिन्होंने फ़िल्मों में अभिनेत्रियों के महज शोपीस के तौर पर इस्तेमाल किए जाने की परंपरागत विचार धारा को बदलकर उन्हें अलग पहचान दिलाई। सुजाता, बंदिनी, मैं तुलसी तेरे आंगन की, सीमा, सरस्वती चंद्र, और मिलन जैसी कई फ़िल्मों में अपने उत्कृष्ट अभिनय से नूतन ने यह साबित किया कि नायिकाओं में भी अभिनय क्षमता है और अपने अभिनय की बदौलत वे दर्शकों को सिनेमा हॉल तक लाने में सक्षम हैं।
नूतन ने बतौर बाल कलाकार फ़िल्म 'नल दमयंती' से अपने सिने कैरियर की शुरूआत की। इस बीच नूतन ने अखिल भारतीय सौंदर्य प्रतियोगिता में हिस्सा लिया जिसमें वह प्रथम चुनी गई लेकिन बॉलीवुड के किसी निर्माता का ध्यान उनकी ओर नहीं गया। बाद में अपनी मां और उनके मित्र मोतीलाल की सिफारिश की वजह से नूतन को वर्ष 1950 में प्रदर्शित फ़िल्म 'हमारी बेटी' में अभिनय करने का मौका मिला। इस फ़िल्म का निर्देशन उनकी मां शोभना समर्थ ने किया। इसके बाद नूतन ने 'हमलोग', 'शीशम', 'नगीना' और 'शवाब' जैसी कुछ फ़िल्मों में अभिनय किया लेकिन इन फ़िल्मों से वह कुछ ख़ास पहचान नहीं बना सकी।
वर्ष 1955 में प्रदर्शित फ़िल्म 'सीमा' से नूतन ने विद्रोहिणी नायिका के सशक्त किरदार को रूपहले पर्दे पर साकार किया। इस फ़िल्म में नूतन ने सुधार गृह में बंद कैदी की भूमिका निभायी जो चोरी के झूठे इल्जाम में जेल में अपने दिन काट रही थी। फ़िल्म 'सीमा' में बलराज साहनी सुधार गृह के अधिकारी की भूमिका में थे। बलराज साहनी जैसे दिग्गज कलाकार की उपस्थित में भी नूतन ने अपने सशक्त अभिनय से उन्हें कड़ी टक्कर दी। इसके साथ ही फ़िल्म में अपने दमदार अभिनय के लिये नूतन को अपने सिने कैरियर का सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म अभिनेत्री का पुरस्कार भी प्राप्त हुआ।
विमल राय की फ़िल्म 'सुजाता' एवं 'बंदिनी' नूतन की यादगार फ़िल्में रही। वर्ष 1959 में प्रदर्शित फ़िल्म सुजाता नूतन के सिने कैरियर के लिए मील का पत्थर साबित हुई। फ़िल्म में नूतन ने अछूत कन्या के किरदार को रूपहले पर्दे पर साकार किया1 इसके साथ ही फ़िल्म में अपने दमदार अभिनय के लिये वह अपने सिने कैरियर में दूसरी बार फ़िल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित की गई। वर्ष 1963 में प्रदर्शित फ़िल्म 'बंदिनी 'भारतीय सिनेमा जगत में अपनी संपूर्णता के लिए सदा याद की जाएगी। फ़िल्म में नूतन के अभिनय को देखकर ऐसा लगा कि केवल उनका चेहरा ही नहीं बल्कि हाथ पैर की उंगलियां भी अभिनय कर सकती है। इस फ़िल्म में अपने जीवंत अभिनय के लिये नूतन को एक बार फिर से सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फ़िल्म फेयर पुरस्कार भी प्राप्त हुआ। इस फ़िल्म से जुड़ा एक रोचक पहलू यह भी है फ़िल्म के निर्माण के पहले फ़िल्म अभिनेता अशोक कुमार की निर्माता विमल राय से अनबन हो गई थी और वह किसी भी कीमत पर उनके साथ काम नहीं करना चाहते थे लेकिन वह नूतन ही थी जो हर कीमत में अशोक कुमार को अपना नायक बनाना चाहती थी। नूतन के जोर देने पर अशोक कुमार ने फ़िल्म 'बंदिनी' में काम करना स्वीकार किया था

नूतन के लिए उनके बेटे मोहनीश बहल ने कहा था बीबीसी से -

"मैं उनकी फिल्में ज़्यादा नहीं देखता. क्योंकि जितना मैं देखूंगा उतना ही उन्हें मिस करूंगा. और उन्होंने काफी गंभीर फिल्में भी की हैं.
जिससे मैं ज़्यादा आइडेंटीफ़ाइ नहीं कर पाता. मैं उन्हें पर्दे पर ही सही, लेकिन तकलीफ सहते हुए नहीं देख सकता.
मेरी मां एक प्रशिक्षित क्लासिकल डांसर थीं. मैं उनके तमाम शोज़ पर जाता था."

नूतन की प्रतिभा केवल अभिनय तक ही नहीं सीमित थी वह गीत और ग़ज़ल लिखने में भी काफ़ी दिलचस्पी लिया करती थीं। हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में बतौर सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री सर्वाधिक फ़िल्म फेयर पुरस्कार प्राप्त करने का कीर्तिमान नूतन के नाम दर्ज है। नूतन को अपने सिने कैरियर में पांच बार (सुजाता, बंदिनी, मैं तुलसी तेरे आंगन की, सीमा, मिलन) फ़िल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। नूतन को वर्ष 1974 में भारत सरकार द्वारा पद्म श्री से सम्मानित किया गया।

समय तो सबके लिए गुजर जाता है, पर यादें  … चलिए उन पर फिल्माए गए गीत को देखते हैं और मानते हैं - ओल्ड इज़ गोल्ड 



रविवार, 24 नवंबर 2013

मेरी नज़र से ओल्ड इज़ गोल्ड - 1



मीना कुमारी 
जन्म: 01 अगस्त 1932
निधन: 31 मार्च 1972
उपनाम नाज़
जन्म स्थान मुम्बई, महाराष्ट्र, भारत
कुछ प्रमुख
कृतियाँ  - तन्हा चाँद / मीना कुमारी (गुलज़ार द्वारा संकलित)
विविध - मीना कुमारी भारतीय हिन्दी सिनेमा की एक बहुत मशहूर अभिनेत्री थीं।


मीना कुमारी का असली नाम माहजबीं बानो था और ये बंबई में पैदा हुई थीं . माहजबीं ने पहली बार किसी फिल्म के लिये छह साल की उम्र में काम किया था। उनका नाम मीना कुमारी विजय भट्ट की खासी लोकप्रिय फिल्म बैजू बावरा पड़ा। मीना कुमारी की प्रारंभिक फिल्में ज्यादातर पौराणिक कथाओं पर आधारित थे। मीना कुमारी के आने के साथ भारतीय सिनेमा में नयी अभिनेत्रियों का एक खास दौर शुरु हुआ था जिसमें नरगिस, निम्मी, सुचित्रा सेन और नूतन शामिल थीं।
फिल्म बैजू बावरा उनके जीवन की पहली बड़ी हिट फिल्म मानी जाती है और इसके बाद तो उन्होंने एक से एक हिट फिल्में दी। चार बार उन्हें बेस्ट एक्ट्रेस के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार मिला। 1963 में फिल्मफेयर अवा‌र्ड्स में 'बेस्ट एक्ट्रेस इन लीडिंग रोल' कैटेगिरी के लिए नॉमिनेट होने वाली अकेली हीरोइन थीं। उन्हें तीन अलग-अलग फिल्मों के लिए नॉमिनेट किया गया था। फिल्मफेयर अवा‌र्ड्स में यह उपलब्धि आज तक कोई हीरोइन हासिल नहीं कर पाई है। वैसे कम लोग जानते हैं कि कॉमेडी किंग कहे जाने वाले महमूद मीना कुमारी के जीजा थे। वह मीना को टेनिस खेलना सिखाते थे बाद में उन्होंने मीना की बड़ी बहन मधु से शादी की थी। हालांकि आगे चलकर उनका तलाक हो गया।
मीना कुमारी के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं कि वे कवियित्री भी थीं लेकिन कभी भी उन्होंने अपनी कवितायें छपवाने की कोशिश नहीं की। उनकी लिखी कुछ उर्दू की कवितायें नाज़ के नाम से बाद में छपी।
जब उनका तलाक हुआ तो उन्होंने कमाल अमरोही के लिए एक शेर लिखा था-
'तलाक तो दे रहे हो नजर-ए-कहर के साथ, मेरी जवानी भी लौटा दो मेहर के साथ।'

आसमान की बुलंदियों को छूने वाली इस अदाकारा ने भी नहीं सोचा होगा किअपने दिनों में वे एक-एक पैसे के लिए तरस जाएंगी। मुंबई के जिस नर्सिग होम में उन्होंने दम तोड़ा, उसके बिल चुकाने के लिए भी पैसे नहीं थे। यह बिल एक डॉक्टर ने चुकाया था, जो मीना का बहुत बड़ा फैन था।
सिर्फ 39 साल में लिवर सिरोसिस के चलते दुनिया को अलविदा करने वाली मीना कुमारी जाते-जाते भी 'पाकीजा' जैसी बेहतरीन फिल्म के रूप में अपने चाहने वालों को ऐसा तोहफा दे गई, जिसके लिए लोग उन्हें आज भी याद करते हैं।

यह तो उनका परिचय है, मैं साहब,बीवी और गुलाम की छोटी बहू से आपको मिलवाती हूँ  .... फ़िल्म के दृश्य में जब पहली बार भूतनाथ (गुरुदत्त) छोटी बहू के कमरे में जाता है और कैमरा सजे पाँव से जब ऊपर की तरफ जाता है तो छोटी बहू यानि मीना कुमारी का वह चेहरा अद्भुत करिश्मा ही लगता है 
आज भी कानों में वह नशीली आवाज़ गूंजती है,
"मैं अगर मर जाऊँ तो मुझे खूब  सजाना 
....... दुनियावाले कह सकें - सती लक्ष्मी चल बसी"

यू ट्यूब के इस लिंक पर एक निगाह डालिये -


उनकी नज़में मन में कहती हैं - कोई दूर से आवाज़ दे,चले आओ  .... 

रात सुनसान है 
तारीक है दिल का आंगन 
आसमां पर कोइ तारा न जमीं पर जुगनू 
टिमटिमाते हैं मेरी तरसी हुइ आँखों में 
कुछ दिये 
तुम जिन्हे देखोगे तो कहोगे : आंसू 

दफ़अतन जाग उठी दिल में वही प्यास, जिसे 
प्यार की प्यास कहूं मैं तो जल उठती है ज़बां 
सर्द एहसास की भट्टी में सुलगता है बदन 
प्यास - यह प्यास इसी तरह मिटेगी शायद 
आए ऐसे में कोई ज़हर ही दे दे मुझको

कम उम्र से जो नज़्म मेरी ज़ुबान पर चढ़ी - 

पूछते हो तो सुनो, कैसे बसर होती है
रात ख़ैरात की, सदक़े की सहर होती है
साँस भरने को तो जीना नहीं कहते या रब
दिल ही दुखता है, न अब आस्तीं तर होती है
जैसे जागी हुई आँखों में, चुभें काँच के ख़्वाब
रात इस तरह, दीवानों की बसर होती है
ग़म ही दुश्मन है मेरा, ग़म ही को दिल ढूँढता है
एक लम्हे की जुदाई भी अगर होती है
एक मर्कज़ की तलाश, एक भटकती ख़ुशबू
कभी मंज़िल, कभी तम्हीदे-सफ़र होती है 

दिल से अनमोल नगीने को छुपायें तो कहाँ
बारिशे-संग यहाँ आठ पहर होती है 

काम आते हैं न आ सकते हैं बे-जाँ अल्फ़ाज़
तर्जमा दर्द की ख़ामोश नज़र होती है.

सच है =

सुबह से शाम तलक 
दुसरों के लिए कुछ करना है 
जिसमें ख़ुद अपना कुछ नक़्श नहीं 
रंग उस पैकरे-तस्वीर ही में भरना है 
ज़िन्दगी क्या है, कभी सोचने लगता है यह ज़हन 
और फिर रूह पे छा जाते हैं 
दर्द के साये, उदासी सा धुंआ, दुख की घटा 
दिल में रह रहके ख़्याल आता है 
ज़िन्दगी यह है तो फिर मौत किसे कहते हैं? 
प्यार इक ख़्वाब था, इस ख़्वाब की ता'बीर न पूछ 
क्या मिली जुर्म-ए-वफ़ा की ता'बीर न पूछ






शुक्रवार, 22 नवंबर 2013

मेरी नज़र से कुछ मील के पत्थर - 12)




अगर हवा में कही जानेवाली बातों पर
ध्यान नहीं देना चाहिए 
तो उन्हें कहा ही क्यूँ जाये 
ध्यान न देने की सीख से बेहतर है 
 कहने ही नहीं दिया जाये .... हवाएं प्रदूषित होती हैं !
जैसे -
कहते है सब - जैसा किया वैसा पाया !'
कर्म का फल मिलेगा !'
.....
तो ऐसे कथन को अन्यायी के साथ मानें 
या जिसके साथ अन्याय हुआ उसके साथ ?  …… रश्मि प्रभा 

मील का पत्थर वही होता है,जो जीवन देता है - ऊंचाई पर चढ़ जाने से,प्रतियोगिता में अव्वल आ जाने मात्र से कोई मील का पत्थर नहीं होता 
मील के पत्थर ये हैं - मेरी नज़र से 


एक सुलझी डोर से दिखते रहे
एक उलझी सी कहानी बन गए 
एक दोहरी ज़िन्दगी जीते रहे....

हाथ बढ़ते ज़िन्दगी छूने लिए
पर सहमते, रास्तों के मोड़ पर 
ठिठकते पग ख्वाब की दहलीज पर
दो कदम आगे बढ़े, फिर मुड़ गए
एक दोहरी ज़िन्दगी जीते रहे....

एक अंतर में धधकती आग थी
ज़िन्दगी में उलझने की चाह थी 
मगर वो किरदार जो अपना लगे 
दास्ताँ में खोजते ही रह गए 
एक दोहरी ज़िन्दगी जीते रहे....

एक मुझमें ही कोई था अजनबी
कभी अपना था, पराया था कभी
कभी मिलता, फिर चला जाता कहीं
खुद को उसमें ढूंढते ही रह गए
एक दोहरी ज़िन्दगी जीते रहे....

इक कहानी जो सुनानी थी हमें
अपनी ख़ामोशी के खंडहर में कहीं 
ज़िन्दगी के हाशिये पर, लफ्ज़ कुछ 
बनके बस आधी लकीरें रह गए 
एक दोहरी ज़िन्दगी जीते रहे....

जानता मुझमें खुदा, हैवान भी
ज़िन्दगी की सांस भी, शमशान भी
महज़ इक कतरा मैं, औ’ ये कायनात
इसमें हम बहते रहे, बहते गए 
एक दोहरी ज़िन्दगी जीते रहे....


इस ब्लॉग का कहना है -
कविता पढ़ना नदी को पुल से पार करना है. अनुवाद करना कवि के साथ उस नदी में डूब जाना है…
पढ़ना भी अनुवाद ही है, उसी भाषा से उसी भाषा में. ऐसा कहा हैं अर्जेंटीना के लेखक-कवि-अनुवादक होर्खे लुईस बोर्खेस ने. और यह भी कि अनुवाद मौलिक रचना से भिन्न हो सकता है, एक ही रचना के कई सुन्दर अनुवाद हो सकते हैं और अच्छा अनुवाद दूसरी भाषा की मौलिक रचना लगता है, जिसका किसी से कोई लेना-देना नहीं रहता. यह ब्लॉग इन्हीं सब परिभाषाओं में भटकने का और शायद एक दिन इनकी हद से आगे निकल जाने का प्रयास है.

कसम खाता हूँ मुझे उसका नाम तक याद नहीं है,
मगर जानता हूँ उसे क्या कह कर पुकारूँ: मरिया 
कवि जैसा दिखने के लिए ही नहीं केवल, लौटा लाने के 
लिए उस कसबे को, और उसके एकमात्र धूल-भरे चौक को.  
वो भी क्या दिन थे, सच! मैं था एक बेढंगा-सा लड़का,
वह एक ज़र्द चेहरे वाली गंभीर-सी लड़की 
एक दिन, जब मैं स्कूल से घर लौटा तो पता चला 
कि उसकी मृत्यु हो चुकी है मगर उसमें उसकी कोई गलती नहीं थी,
इस कहानी को सुनकर मैं इतनी बुरी तरह से हिल गया 
कि मेरी आँख में से एक आँसू बह निकला.
आँसू!…मेरी आँख से, जबकि मुझे तो हमेशा 
अविचलित रहने वाला लड़का समझा जाता है.
अगर मैं इस कहानी को, जैसी मुझे उस दिन 
सुनाई गई थी, सच मानना चाहूँ,
तो मुझे एक बात का विश्वास करना होगा:
कि वह अपनी आँखों में मेरा नाम लिए मरी थी,
जो कि चक्कर में डाल देने वाली बात है, 
क्योंकि उतनी निकटता तो हम में कभी थी ही नहीं;
वह केवल एक मिलनसार मित्र थी.
हमारी दोस्ती में एक औपचारिक लहज़ा था,
सुरक्षित दूरी थी:
मौसम की बातें, अटकलें लगाना कि 
अबाबील वापिस घर कब लौटेंगी.
मेरी उस से पहचान हुई उस छोटे-से कसबे में ( क़स्बा 
जो अब जल कर राख हो चुका है)
मगर मैं समझ गया था कि जो वह है उस से अधिक वह 
कभी कुछ नहीं होगी: एक उदास, विचारमग्न लड़की.
यह सब मैं इतना साफ़-साफ़ देख सकता था 
कि मैंने उसे दिया एक दैवी नाम -- मरिया 
दुनिया को देखने का मेरा तरीका ऐसा है जो 
हमेशा सत्य के तल तक पहुँचता है. 
शायद उस एक बार बस मैंने उसे चूमा था,
मगर वैसे जैसे दोस्त चूमते हैं एक-दूसरे को, 
बिना पूर्व विचार के और इतना तात्कालिक था वह 
कि उसके कोई और मायने तो हो ही नहीं सकते थे. 
अस्वीकार नहीं कर सकता कि मुझे अच्छा लगता था 
उसका साथ, उसकी शांत अस्पष्ट-सी उपस्थिति 
ऐसी थी जैसे गमले में खिले फूलों 
से आती सौम्य-सी अनुभूति.
उसकी मुस्कान में छिपी-झलकती गहराई 
को मैं कम नहीं आंक सकता  
ना ही अनदेखा कर सकता हूँ कि कैसे वह पत्थरों तक पर 
छोड़ जाती थी एक सुखदायक प्रभाव.
एक चीज़ और स्वीकार करना चाहता हूँ: उसकी 
आँखें रात की सच्ची कहानी कहती थीं.
मैं इन सब बातों को स्वीकार कर रहा हूँ, इस भरोसे पर 
कि आप फिर भी मेरी बात समझेंगे: किसी बीमार मौसी 
के लिए मन में जागी अस्पष्ट-सी संवेदना के सिवाय 
मैंने उसे किसी और तरह से नहीं चाहा.
मगर फिर भी, ऐसा हुआ. मगर फिर भी,
और यह बात मुझे आज तक हैरान करती है,
वह विस्मित करने वाली, व्याकुल करने वाली घटना घटी:
वह अपनी आँखों में मेरा नाम लिए मरी थी.
वह लड़की, वह निर्मल बहुल गुलाब,
वह लड़की, जो रोशनी रच सकती थी.
वे ठीक कहते थे, अब जान गया हूँ मैं, वे लोग 
जिनका जीवन एक अंतहीन शिकायत है
कि यह जो कामचलाऊ दुनिया है जिसमें हम रहते हैं 
इसका मोल एक टूटी टोकरी जितना भी नहीं. 
जीवन से अधिक सम्मान तो कब्र का होता है 
अधिक मूल्य होता है ज़ंग-लगी कील का. 
कुछ भी सच्चा नहीं है, कुछ सदा नहीं रहता, यहाँ 
तक कि  उसको देख पाने के लिए उठाई तकलीफ़ भी नहीं.
आज है चटकीले नीले आकाश वाला बसंती दिन 
मुझे लगता है कि मैं कविता के मारे मर जाऊँगा.
और वह मेरी प्यारी उदास-सी लड़की --
मुझे उसका नाम तक याद नहीं.   
केवल इतना जानता हूँ कि वह इस दुनिया से ऐसे हो कर गुज़री 
जैसे कोई कबूतर पंख फड़फड़ाता हुआ पास से निकल जाता है. 
जीवन में हर चीज़ की तरह,  न चाहते हुए भी,
मैं धीरे-धीरे उसे भूल गया. 


--  नीकानोर पार्रा

नीकानोर पार्रा ( Nicanor Parra ) न सिर्फ चिली के सब से लोकप्रिय कवि माने जाते हैं, बल्कि पूरे लातिनी अमरीका में उनका प्रभाव है, और स्पेनिश के महत्वपूर्ण कवियों में उन्हें गिना जाता है. वे स्वयं को विरोधी कवि ( antipoet ) कहते हैं क्योंकि वे कविता की सामान्य परम्पराओं का विरोध करते हैं. अक्सर कविता-पाठ के बाद वे कहा करते थे  -- मैं अपना कहा वापिस लेता हूँ. लातिन अमरीकी साहित्य की परिष्कृत भाषा छोड़ उन्होंने एक ठेठ  स्वर अपनाया. उनका पहला कविता संकलन "पोएम्ज़ एंड ऐंटीपोएम्ज़ " न केवल स्पेनिश कविता का प्रभावी संग्रह है बल्कि लातिन अमरीकी साहित्य का महत्त्वपूर्ण मीलपत्थर भी है. उनकी कविताएँ ऐलन गिन्ज़बर्ग जैसे अमरीकी बीट कवियों की प्रेरणा बनी. वे कई बार नोबेल प्राइज़ के लिए नामित किए गए हैं. 2011 में उन्हें स्पेनिश भाषा एवं साहित्य का उच्चतम पुरुस्कार 'सेर्वौंत प्राइज़' प्राप्त हुआ.. यह कविता उनके संकलन 'पोएमॉस इ अंतीपोएमॉस' से है. 
इस कविता का मूल स्पेनिश से अंग्रेजी में अनुवाद नाओमी लिंटस्ट्रोम ने किया है.
इस कविता का हिंदी में अनुवाद -- रीनू तलवाड़

बुधवार, 20 नवंबर 2013

मेरी नज़र से कुछ मील के पत्थर - 11)





शब्दों को ओस में भिगोकर ईश्वर ने सबकी हथेलियों में रखे .... कुछ बर्फ हो गए,कुछ नदी बन जीवन के प्रश्नों की प्यास बुझाने लगे .................. शब्दों की कुछ नदियाँ, कुछ सागर मेरी नज़र से =

अशोक लवलहरों के कामना दीप / * अशोक लव

लहरों को सौंप दिया है कामना-दीप

जहाँ चाहे ले जाएँ

उन्ही पर आश्रित हैं अब तो

कामना दीप का अस्तित्व.


हथेलियों में रख कर सौंपा था

लहरों को कामना दीप

बहाकर ले जाने के लिए अपने संग

मंद मंद हिचकोले खाता

बढ़ता जाता है लहरों के संग.


कामना- दीप का भविष्य होता है

लहरों के हाथ

ज़रा सा प्रवाह तेज़ होते ही

डोलने लगता है

और अंततः समां जाता है लहरों में.


कामना-दीप सा समा जाना चाहता हूँ

सदा सदा के लिए

तुम्हारे ह्रदय की स्नेहिल लहरों में.



मां बहुत याद आती है
सबसे ज्यादा याद आता है
उनका मेरे बाल संवार देना
रोज-ब-रोज
बिना नागा
बहुत छोटी थी मैं तब
बाल छोटे रखने का शौक ठहरा
पर मां!
खुद चोटी गूंथती, रोज दो बार
घने, लंबे, भारी बाल
कभी उलझते कभी खिंचते
मैं खीझती, झींकती, रोती
पर सुलझने के बाद
चिकने बालों पर कंघी का सरकना
आह! बड़ा आनंद आता
मां की गोदी में बैठे-बैठे
जैसे नैया पार लग गई
फिर उन चिकने तेल सने बालों का चोटियों में गुंथना
लगता पहाड़ की चोटी पर बस पहुंचने को ही हैं
रिबन बंध जाने के बाद
मां का पूरे सिर को चोटियों के आखिरी सिरे तक
सहलाना थपकना
मानो आशीर्वाद है,
बाल अब कभी नहीं उलझेंगे
आशीर्वाद काम करता था-
अगली सुबह तक
किशोर होने पर ज्यादा ताकत आ गई
बालों में, शरीर में और बातों में
मां की गोद छोटी, बाल कटवाने की मेरी जिद बड़ी
और चोटियों की लंबाई मोटाई बड़ी
उलझन बड़ी
कटवाने दो इन्हें या खुद ही बना दो चोटियां
मुझसे न हो सकेगा ये भारी काम
आधी गोदी में आधी जमीन पर बैठी मैं
और बालों की उलझन-सुलझन से निबटती मां
हर दिन
साथ बैठी मौसी से कहती आश्वस्त, मुस्कुराती संतोषी मां
बड़ी हो गई फिर भी...
प्रेम जताने का तरीका है लड़की का, हँ हँ
फिर प्रेम जो सिर चढ़ा
बालों से होता हुआ मां के हाथों को झुरझुरा गया
बालों का सिरा मेरी आंख में चुभा, बह गया
मगर प्रेम वहीं अटका रह गया
बालों में, आंखों के कोरों में
बालों का खिंचना मेरा, रोना-खीझना मां का
शादी के बाद पहले सावन में
केवड़े के पत्तों की वेणी चोटी के बीचो-बीच
मोगरे का मोटा-सा गोल गजरा सिर पर
और उसके बीचो-बीच
नगों-जड़ा बड़ा सा स्वर्णफूल
मां की शादी वाली नौ-गजी
मोरपंखी धर्मावरम धूपछांव साड़ी
लांगदार पहनावे की कौंध
अपनी नजरों से नजर उतारती
मां की आंखों का बादल
फिर मैं और बड़ी हुई और
ऑस्टियोपोरोसिस से मां की हड्डियां बूढ़ी
अबकी जब मैं बैठी मां के पास
जानते हुए कि नहीं बैठ पाऊंगी गोदी में अब कभी
मां ने पसार दिया अपना आंचल
जमीन पर
बोली- बैठ मेरी गोदी में, चोटी बना दूं तेरी
और बलाएं लेते मां के हाथ
सहलाते रहे मेरे सिर और बालों को आखिरी सिरे तक
मैं जानती हूं मां की गोदी कभी
छोटी कमजोर नाकाफी नहीं हो सकती
हमेशा खाली है मेरे बालों की उलझनों के लिए
कुछ बरस और बीते
मेरे लंबे बाल न रहे
और कुछ समय बाद
मां न रही

* नोट- कैंसर के दवाओं से इलाज (कीमोथेरेपी) से बाल झड़ जाते हैं   


कमरे दो हों या हज़ार 
क़त्ल करने की जगह हमेशा मौजूद रहती है घर में
मैं एक फंदा बनाके बैठा रहा कल सारी रात
कि तुम जगोगी जब पानी पीने

मैंने अपनी इस आस्था से चिपककर बिताई वह पूरी रात
कि गले में कुछ मोम जमा हुआ है मेरे और तुम्हारे
और वही ईश्वर है
जो हमें बोलने, उछलने और खिड़की खोलकर कूद जाने से रोकता है
जम्हाई लेने से भी कभी-कभी
पर कसाई होने से नहीं

कैसे बिताई मैंने कितनी रातें, इस पर मैं एक निबंध लिखना चाहता हूं
इस पर भी कि कैसे देखा मैंने उसे सोते हुए,
सफेद आयतों वाले लाल तकिये पर उसके गाल,
वह मेरे रेगिस्तान में नहर की तरह आती थी
वह जब साँस लेती थी तो मैं उसके नथुनों में शरण लेकर मर जाना चाहता था
उसकी आँखें उस फ़ौजी की आँखें थीं, जिसने अभी लाश नहीं देखी एक भी
और वह हरे फ़ौजी ट्रक में ख़ुद को लोहे से बचाते हुए चढ़ रहा है
जैसे बचा लेगा

यूं वो इश्क़ में खंजरों पर चली

अजायबघरों की तरह देखे उसने शहर
सुबह से रात तक पसीना पोंछते,
कभी ख़ुद की, कभी दूसरों की देह नोचते लोग
और आत्मा महज़ एक उपकरण थी
जिसे जब बच्चों को डराने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा रहा होता था
तो कोई भी कवि किसी भी शब्द की जगह रख देता था उसे

हम जब इतने क़रीब लेटे थे एक रात
और द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान की किसी कहानी की तरह
ब्रैड का एक सूखा टुकड़ा हमारे बीच पड़ा था,
मैंने उससे कहा कि काश मैं तुम्हारे लिए एक अंगीठी ला सकता
और आपको विश्वास न हो भले ही, विश्वास पाना मेरा काम भी नहीं,
लेकिन उससे लम्बे समय तक कभी किसी और बात ने नहीं किया मुझे उदास

मैं जब हँसता था
तो वह परियों की तरह सोती थी

फिर मैं बार-बार उसका अपहरण कर लाता रहा
हम माफ़ियों को कुछ ज़्यादा ही गंभीरता से लेने लगे
मृत्यु के सिरहाने भी की हमने कई दफ़े अपराध की बातें, बेशर्मी से
वह मुझ पर बरसने के लिए समंदर में डूबती रही महीनों
और इससे ज़्यादा मुझे याद नहीं

एक औरत एक थैला लेकर अतीत में जा सकती है
मुझे अकेले भी नहीं आता यह

मुझे टाई ठीक से बाँधना सिखाया मेरी मां ने,
एक हाथ से तोड़ना रोटी का कौर
लेकिन नसीब उसका कि
प्रेम के बारे में वह कुछ ख़ास नहीं जानती थी

वैसे भी प्यार के गीतों के ख़िलाफ़ एक साज़िश में
गैर-इरादतन ही सही, पर मुब्तिला हूं मैं लगातार
और जब आप इस सावधानी के साथ सो रहे हों
कि सुबह उठते ही किसी बिच्छू पर ना पड़े पैर
तो मुझे नहीं लगता कि ख़ुशबुएं पहचानने की कोई कला आपके साथ सोएगी 

उसने मुझे घर चुना, मैंने उसमें खोदे गड्ढ़े
उसका शरीर जीतने की ज़िद में उसकी आत्मा लौटाई मैंने कई मर्तबा
पर पसीने से इस कदर भीगा था मेरा गला
मुझे ऐसे डराया था ऊँचे कद के कुछ लड़कों ने स्कूल में 
कि मैं उसे चूमता था तो इम्तिहान देता था जैसे

नल से पानी पीते हुए
मैं अब भी पीछे मुड़कर देखता हूं बार-बार पेड़ों की तरफ़,
अँधेरे में पायल बजती हैं मेरी छाती पर,  
कोई औरत ज़रा नरमी से मेरा हाथ पकड़े
तो मुझे लूट सकती है किसी भी सरकार की तरह,
यहाँ मैं अपने अपाहिज होने का कहूं
तो आपको इश्तिहार लगेगा कोई

ख़ैर, ज़हर मिलाया मैंने उसकी चाय में
और गला मन से बड़ा नहीं होता, आप जानते ही हैं, 
फिर मैं ब्रश करने गया
और लौटकर आया तो वह एक घोड़े पर लेटी थी,
अपनी नज़र पर मुझे यक़ीन नहीं हालांकि।

चादर जब धुलने गई तो धोबी ने कहा कि 
पचास बार क्यों लिखते हैं आप इस पर अपना नाम?

इन पत्थरों की अपनी पहचान है - और मेरी नज़रें इनके आगे नत हैं - सम्भव है न देव आकृति की !!!

मंगलवार, 8 अक्तूबर 2013

मेरी नज़र से कुछ मील के पत्थर - 10)




शब्दों को ओस में भिगोकर ईश्वर ने सबकी हथेलियों में रखे .... कुछ बर्फ हो गए,कुछ नदी बन जीवन के प्रश्नों की प्यास बुझाने लगे .................. शब्दों की कुछ नदियाँ, कुछ सागर मेरी नज़र से =

शिप्रा की लहरेंवहाँ हरगिज़ नहीं जाना(प्रतिभा सक्सेना)


जहां के लिये उमड़े मन वहाँ हरगिज़ नहीं जाना
न आओ दिख रहा लिक्खा जहाँ के बंद द्वारों पर 
फकत बहुमंजिलों की भीड़ में सहमा हुआ सा घर 
खड़े होगे वहां जाकर लगेगा कुयें सा गहरा 
ढका जिस पर कि बस दो हाथ भर आकाश का टुकड़ा ,
हवायें चली आतीं मन मुताबिक जा न पाती हो
सुबह की ओस भी तो भाप बन फिर लौट जाती हो
नये लोगों ,नई राहों ,नये शहरों भटक आना ,
पुराने चाव ले पर उस शहर हरगिज़ नहीं जाना
*
घरों में गुज़र मत पूठो कि पहले ही जगह कम है ,
ज़रा सी बात है यह तो, हुई फिर आंख क्यों नम है 
किसी पहचान का पल्ला पकड़ना गैरवाजिब है ,
किसी के हाल पूछो मत, यहाँ हर एक आजिज़ है 
वहां पर जो कि था पहले नहीं पहचान पाओगे 
निगाहें अजनबी जो है उन्हें क्या क्या बताओगे !
बचपना भूल जाना सदा को मत लौट कर जाना,
कि मन को अन्न-पानी चुक गया उस ठौर समझाना
*
बदलती करवटों जैसी सभी पहचान मिटजाती 
यहाँ तो आज कल दुनिया बड़ी जल्दी बदल जाती 
रहोगे हकबकाये से कि उलटे पाँव फिर जाये 
कि चारो ओर से जैसे यही आवाज़ सी आये ,
अजाना कौन है यह क्यों खड़ा है जगह को घेरे 
पराया है सभी ,अपना नहीं कुछ भी बचा है रे !
वहाँ कुछ भी नहीं रक्खा लगेगा अजनबी पन बस 
यही बस गाँठ बाँधो फिर वहाँ फिर कर नहीं जाना
*
पुरानेी डगर पर धरने कदम हरगिज़ नही जाना !
बज़ारों में निकल जाना ,दुकाने घूम-फिर आना 
कहीं रुक पूछ कर कीमत उसे फिर छोड़ बढ़ जाना ,
बज़ारों का यहां फैलाव कितना बढ़ गया देखो ,
दुकानों में नहीं पहचान .स्वागत है सभी का तो 
दुबारा नाम मत लेना कि चाहे मन करे कितना 
वहां कुछ ढूँढने अपना न भूले से निकल जाना !
बचा कर आँख अपनी उन किनारों से निकल जाना 
*
नयों के साथ धुँधला - सा,न जाने क्या सिमट आता !
वहाँ अब कुछ नहीं है ,सभी कुछ बीता सभी रीता ,
हवा में रह गया बाकी कहीं अहसास कुछ तीखा ।
गले तक उमड़ता रुँधता , नयन में मिर्च सा लगता 
बड़ा मुश्किल पड़ेगा सम्हलना तब बीच रस्ते में 
लिफ़ाफ़ा मोड़ वह सब बंद कर दो एक बस्ते में 
समझ में कुछ नहीं आता मगर आवेग सा उठता ।
घहरती ,गूँजती सारी पुकारों को दबा जाना ! वहाँ हर्गिज़...
*
अगर फिर खींचेने को चिपक जाये पाँव से माटी 
छुटा दो आँसुओं से धो नदी तो जल बिना सूखी
महक कोई भटकती ,साँस में आ कर समा जाये 
किसी आवाज़ की अनुगूँज कानो तक चली आये 
हवा की छुअन अनजानी पुलक भर जाय तन मन में 
हमें क्या सोच कर यह टाल देना एक ही क्षण में 
समझना ही नहीं चाहे अगर मन ,मान मत जाना !
तुम्हारा वह शहर उजड़ा वहाँ हर्गिज़ नहीं जाना 
नई जगहें तलाशो ,सहज ग़ैरों में समा जाना ! 
*
वहां बिल्कुल नहीं जाना ,वहां हरगिज़ नहीं जाना ,


बचपन से सिखाया गया हमें
रिक्त स्थानों की पूर्ति करना
भाषा में या गणित में
विज्ञान और समाज विज्ञान में
हर विषय में सिखाया गया
रिक्त स्थानों की पूर्ति करना
हर सबक के अन्त में सिखाया गया यह
यहाँ तक कि बाद के सालों में इतिहास और अर्थशास्त्र के पाठ भी
अछूते नहीं रहे इस अभ्यास से

घर में भी सिखाया गया बार बार यही सबक
भाई जब न जाए लेने सौदा तो
रिक्त स्थान की पूर्ति करो
बाजार जाओ
सौदा लाओ

काम वाली बाई न आए
तो झाड़ू लगा कर करो रिक्त स्थान की पूर्ति

माँ को यदि जाना पड़े बाहर गांव
तो सम्भालो घर
खाना बनाओ
कोशिश करो कि कर सको माँ के रिक्त स्थान की पूर्ति
यथासम्भव
हालांकि भरा नहीं जा सकता माँ का खाली स्थान
किसी भी कारोबार से
कितनी ही लगन और मेहनत के बाद भी
कोई सा भी रिक्त स्थान कहाँ भरा जा सकता है
किसी अन्य के द्वारा
और स्वयम आप
जो हमेशा करते रहते हों
रिक्त स्थानों की पूर्ति
आपका अपना क्या बन पाता है
कहीं भी
कोई स्थान

नौकरी के लिए निकलो
तो करनी होती है आपको
किसी अन्य के रिक्त स्थान की पूर्ति

यह दुनिया एक बडा सा रिक्त स्थान है
जिसमें आप करते हैं मनुष्य होने के रिक्त स्थान की पूर्ति
और हर बार कुछ कमतर ही पाते हैं आप स्वयं को
एक मनुष्य के रूप में
किसी भी रिक्त स्थान के लिए

उत्तम पुरुष: मैं उससे कह रहा था(विमलेन्दु द्विवेदी)


मैं उससे कह रहा था
कि तुम्हें नींद न आती हो
तो मेंरी नींद में सो जाओ
और मैं
तुम्हारे सपने में जागता रहूँगा ।

असल में
यह एक ऐसा वक्त था
जब बहुत भावुक हुआ जा सकता था
उसके प्रेम में ।

और यही वक्त होता है
जब खो देना पड़ता है
किसी स्त्री को ।

यह बात तब समझ में आयी
जब मुझ तक
तुम्हारी गंध भी नहीं पहुँचती है
और भावुक होने का
समय भी बीत चुका है ।

एक दिन देखता हूँ
कि सपने
व्यतीत हो गये हैं
मेरी नींद से ।

सपने न देखना
जीवन के प्रति अपराध होता है
कि हर सच
पहले एक सपना होता है ।

यह सृष्टि
ब्रह्मा का सपना रही होगी
पहले पहल,
और उसी दिन
लिखा गया होगा
पहला शब्द- प्रेम ! 

शब्दों की यात्रा में बहुत कुछ ऐसा मिलता है,जिनसे एहसासों के बंद कपाट खुलते हैं  …….