शुक्रवार, 29 जून 2012

कोई बात नहीं पापा

मेरे पास उस घृणित व्यक्ति को माफ करने, नजरअंदाज करने या उसे इंकार करने के लिए तकरीबन 20 मिनट थे. वह मेरा बाप था.

हम अस्पताल के एक कमरे में बैठे, जहां एंटीसेपिटक्स की गंध थी और वहां बुझे चेहरों वाली नर्सों की आवाजाही लगी हुई थी, जिनके लिए जिंदगी और मौत में कोई फर्क नहीं था....

आज वह इंसान मर रहा था लेकिन मेरी दादी मां नहीं होतीं तो आज मैं यहां इसके पास नहीं आती. इस जगह, जहां जिंदगी के ऊपर मौत का साया मंडरा रहा था, उस बेजान होते इंसान ने अपनी आंखें खोली और कहा, 'मेरा ये अंदाजा है कि मैंने तुम्हारे साथ बहुत बुरा बर्ताव किया है.'

वह मुझसे यह जानना चाह रहा था कि क्या उसके ऐसे आचरण को माफ भी किया जा सकता है? क्या मैं उसे माफ कर पाऊंगी? उसे उम्मीद थी कि मैं कहूंगी, 'पापा, आप तो बुरे थे, फिर भी मैं आपको माफ करती हूं.' लेकिन...

तब मेरा सवाल था कि जो भाषा मैं और वह बोला करते थे, क्या उसे मैंने उसके शब्दकोश से सीखा था? मैं बुरी थी. तुम बुरे थे.

जिस पल उसने अपनी बातें खत्म की थी, उस समय से मेरी समझदारी का मीटर तेजी से चलना शुरू हो गया. मेरी चुप्पी उसे कहने का मौका दे रही थी और वह कह रहा था कि मैं ऐसा कुछ चाहता नहीं था जो मैंने किया. उसकी यही बात अपने आप में एक जवाब थी. अगर मेरा जवाब उससे अलग होता तो उसे वहीं दिया जाना था. यही वह घृणित व्यक्ति था, एक बिल्कुल बददिमाग या शायद बेचैन.

अब वह व्यक्ति मुझसे सवाल पूछने के बाद काफी दीन-हीन सा लग रहा था. वह चाह रहा था कि बिना किसी लाग-लपेट के, बिना कोई दया दिखाए मैं उसकी आलोचना करूं. और फिर मैं उसकी पीड़ा को महसूस करके उसे संतुष्ट होने का मौका दूं.

मेरी मां आज से 20 साल पहले दुनिया छोड़ गई थीं. तब मेरी उम्र केवल सात साल की थी. अपने ही पिता द्वारा उन दिनों सताया जाना मेरे लिए आज भी एक डरावने सपने की तरह है. कई रातों तक वह अपनी आठ साल की बच्ची के साथ बलात्कार करता रहा जो इस बात का अंदाजा भी नहीं लगा सकती थी कि उसके साथ क्या हो रहा है. किसी तरह मैं यह समझ पाई कि यह गलत है. बहुत गलत. उसके गंभीर परिणामों के बारे में जान कर इस पूरे मामले को समझना मेरे लिए और भी मुश्किल हो जाता.

हर दूसरे दिन दारू पीकर मारपीट से होने वाली दुश्वारियों को कम करने के लिए परिवार और पड़ोसियों ने कोई कदम नहीं उठाया. मेरी छह साल की छोटी बहन को इन प्रताड़नाओं से बचाने के लिए उस आदमी की बूढ़ी मां यानी मेरी दादी को बहुत अपमान और जिल्लत का सामना करना पड़ा. इन बातों को सोचकर मेरा खून खौल उठता है और अंदर से आवाज आती है, 'हां पापा, सच में तुम एकदम से हरामी थे.'

लेकिन मैंने ऐसा कभी नहीं कहा. मैंने फैसला किया कि मैं उसे अपनी माफी से महरूम नहीं करूंगी. फिर भी मैंने वह कहा, जिसे मेरे दिमाग ने, मेरी भावनाओं ने और यहां तक कि मेरे शरीर ने (जो अपनी तरह से सब कुछ जानता था) और मैंने एक झूठ माना. फिर भी मैंने कहा, 'नहीं पापा! कोई बात नहीं. हम पुरानी बातों को भूलें. यह तो बहुत पहले हुआ था.'

वह मुझे टकटकी लगाकर देखता रहा और धीरे से कहा, 'शुक्रिया'.

कुछ ही घंटों के बाद वह मर गया. मुझे विश्वास है कि वह शांति से मरा. मुझे लगता है कि वह समझ रहा था कि उसे माफी मिल चुकी है. चूंकि मैंने उसे बहुत आसानी से माफ कर दिया था इसलिए उसने असीम शांति का अनुभव किया और उसे लगा कि वह इसका हकदार था.

तो क्या मुझे शांति की समझ नहीं? क्या हमें यह नहीं सिखाया गया कि उदारता दिखाकर और दूसरों को माफ करके हम सुकून पाते हैं? और करूणा और पवित्रता क्या इसी का पुरस्कार नहीं हैं? और ऐसा क्यों किया मैंने? क्या इसलिए कि मैं किसी सतह पर उससे प्यार करती थी और किसी दूसरे तरीके से मेरे लिए उसके प्यार को भी महसूस करती थी? या यह कुछ ऐसा ही था जो प्राय: एक बाप और बेटी के बीच होता है. यहां तक कि मौत के साये में भी वह मुझसे खुली माफी की उम्मीद कर रहा था. मैंने उसे माफ कर दिया. ऐसा मैंने खुलकर किया. या... क्या मैंने ऐसा ही किया? इन सबके बावजूद क्या खून पानी से ज्यादा गाढ़ा है?

सवाल नहीं रुकते लेकिन इनका जवाब मेरी पहुंच के बाहर है. कई रातों तक मैं बिस्तर पर जागती आंखों से अपने अतीत में उन तर्कों को ढूंढती, जो मुझे मिल नहीं पाते....













मनीषा तनेजा

सोमवार, 25 जून 2012

बच्चे सपना देखते हैं



1 . बच्चे सपना देखते हैं

बच्चे सपना देखते हैं
पहले भी देखते थे सपने वे
घोड़े पर बैठे राजकुमार
के रूप में
खुद को देखते थे सपनों में
या फिर परियों की संगत में
उड़ते-फिरते रहते थे
आसमान में
सपनों में.

उनके आज के सपनों का
सारतत्व बदल गया है
बदल क्या गया है
बदलवा दिया है
मा-बाप ने
ऐसे सपने जो छीन लेते हैं
बचपन
बना देते हैं अकाल युवा.
चिंताग्रस्त युवा जो घबराता है
सपनों के बोझ से.

2. बच्चों को बड़ा होने दो पेड़ सा

बच्चों को उनके अधिकार
बताने का कोई अर्थ नहीं है
बड़ों को बताओ
बच्चों के प्रति उनके कर्तव्य.
कि बच्चे खेल-कूद सकें
पढ़-लिख सकें
बड़े हो सकें
जैसे उन्हें होना चाहिए बड़ा.
और फिर?
और फिर
बड़े होकर वे निभा सकें
अपनी भूमिका घर-परिवार में,
समाज में.

ज़रूरत है इसके लिए बहुत ही
इस बात की
कि वे जोड़ सकें अपने-आपको
घर-परिवार से
आस-पड़ोस से
और देश से जो
बहुत अमूर्त-सा लगता है
सरोकारों के अभाव में.
सरोकार जो देते हैं
विस्तार
एक को दूसरे से जोड़ते हैं
फिर सौवें से हजारवें से
और लाखों-लाखवें से.
तभी तो बनता है,
ऐसे जुड़ते चले जाने ही से
बनता है देश और
समाज.

बच्चों को बढ़ने दो पेड़
की तरह
बोनसाई मत बनाओ उन्हें
सजावट-दिखावट की चीज़ नहीं
होते बच्चे. बच्चों पर गर्व करो
उनकी क्षमताओं के पल्लवित-पुष्पित
हो जाने पर
ग़लत है नाराज़ी उनसे तुम्हारे
सौंपे हुए सपनों की नाकामी पर.

-मोहन श्रोत्रिय
http://sochi-samajhi.blogspot.in/

शनिवार, 23 जून 2012

अजनबी / दीप्ति नवल




अजनबी रास्तों पर
पैदल चलें
कुछ न कहें

अपनी-अपनी तन्हाइयाँ लिए
सवालों के दायरों से निकलकर
रिवाज़ों की सरहदों के परे
हम यूँ ही साथ चलते रहें
कुछ न कहें
चलो दूर तक

तुम अपने माजी का
कोई ज़िक्र न छेड़ो
मैं भूली हुई
कोई नज़्म न दोहराऊँ
तुम कौन हो
मैं क्या हूँ
इन सब बातों को
बस, रहने दें

चलो दूर तक
अजनबी रास्तों पर पैदल चलें।


दीप्ति नवल

गुरुवार, 21 जून 2012

चरित्र पर फैसला सुनाना हम अपना फर्ज समझते हैं



बेटी पर किसी ने फिकरे कसे
बेटी नज़रबंद
फिक्र स्वतंत्र !
बेटी ने किसी से प्यार किया
उद्दंड, बदचलन कहलाई !
बेटी ने अन्याय का विरोध किया
माँ बाप के पालनपोषण पर ऊँगली उठाई !
बेटी ने बेटी को जन्म दिया
- मनहूस कहलाई !
बहू बनी बेटी मर गई
दूसरी बेटी बहू बन गई ...
बेटी जो विधवा हुई
डायन कहलाई
इस समाज की दुहाई
कानून की दुहाई
लक्ष्मी कहलाने के लिए
एक महिला दिवस पाने के लिए
बेटी की पहचान मिटाई ....

रश्मि प्रभा


चरित्र पर फैसला सुनाना हम अपना फर्ज समझते हैं


मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने भी सीता को अग्नि में समर्पित कर आत्मसम्मान की रक्षा की थी हमारे समाज में यह आज भी बुरा नहीं है।
चरित्रहीनता पर फैसला सुनाना हम अपना फर्ज समझते हैं।ओगड़सिंह तो बेटी का सर काटकर ही थाने ले गया

जयवंती और राजेश की आंखों में
बेटी की विदाई की नमी के साथ-साथ
चमक भी थी...
अपने हिसाब से अपनी बेटी को ब्याह देने की चमक।
उनकी बातों से झलक रहा था
कि वे उनके संस्कार ही थे जो बेटी कहीं 'भटकी' नहीं।
करीब के रिश्तेदार भी
उन्हें कहने से नहीं चूक रहे थे कि
वाह, जयवंती तूने तो गंगा नहा ली।
वरना आजकल के बच्चे मां-बाप को
नाकों चने चबवा देते हैं।
ये निर्मला को ही देख
इसकी बेटी ने क्या कम तांडव किए थे
तू तो बहुत भाग्यशाली है।......
दरअसल निर्मला की बेटी ने
मां-बाप के तय रिश्ते से इनकार कर दिया था।
नहीं मानने पर खाना-पीना छोड़,
उदास बंद कमरों में अपने दिन बिताने लगी थी,
लेकिन एक दिन मां-बाप की धमकी ने उसे डरा दिया,
'अगर तू यही सब करेगी तो हम जहर खा लेंगे।
मत भूल की तेरी एक छोटी बहन भी है।'
उस दिन वह बेटी बहुत डर गई
खुद पर कष्ट तो वह बरदाश्त कर सकती थी
माता-पिता का यह हाल उससे नहीं देखा गया
अपने फैसले को तिरोहित कर
समर्पण की बयार में बह गई।
निर्मला बेटी की अपराधी थी
नाजुक मौकों पर अक्सर वे उसके
साथ गले मिलकर रो पड़ती थी ।
जयवंती को मिल रही शाबाशी
का सिलसिला थमता ही नहीं था।
उसकी मिसालें दे-देकर रिश्तेदार भी
अपने बच्चों की नकेल कसने में लगे हुए थे।
शादी की फिक्र को फक्र में बदलने के प्रयास जारी रहते।
बेटी कहीं प्रेम में है
ये उन्हें बरदाश्त नहीं।
जब उन्हें यही बरदाश्त नहीं
तो फिर ससुराल से घर आकर बैठी बेटी का
किसी और से मेल-जोल कैसे बरदाश्त होता !
काट दिया उसका सिर एक खरबूजे की तरह
एक बेटी को इस तरह काट दिया पिता ने।
यकीन मानिए हाथ कांपते हैं ऐसा लिखते हुए।
बेटी कुर्बान हो गई अपने बाप के झूठे अहम और जिद के आगे।
कोख में मारते हो
गलती से पैदा हो गई
तो न पढ़ातेलिखाते हो
और ना ठीक से खाने को देते हो।
भेड़-बकरी समझ शहनाई बजाकर अनजान जगह भेज देते हो
संपत्ति भी नहीं देते, दहेज देते हो।
कैसा संतान प्रेम है ये,
जहां कुछ भी उसके हित में नहीं।
राजसमंद जिले के चारभुजा क्षेत्र में
अपने बाप के हाथों कत्ल हुई इस लड़की मंजू का
गुनाह चाहे जो हो,
लेकिन उसके बाप को उसके चरित्र पर शक था
वह घर से गायब थी
पुलिस ने उसे बरामद किया
यही बताया कि एक होटल में किसी के साथ मिली है।
बस पिता का गुस्से से सिर फिर गया
और मंजू को बाप की तलवार से कटना पड़ा।
हम में से कई लोग हैं
जो इन घटनाओं को सही ठहराते हैं।
उन्हें लगता है कि
स्त्री की पवित्रता पर
अगर किसी ने हमला किया तो
स्त्री को ही दोषी मानते हुए सजा दो।
यह उसका शरीर है,
उसकी आत्मा निर्णय लेगी -
ऐसा कोई नहीं सोच पाता।
आप यों मालिक बन रहे हैं एक बालिग लड़की के
आपके मन का नहीं होता तो मार रहे हैं उसे
आपके सामाजिक मानदंडों पर खरी नहीं उतरती
तो कत्ल कर दो उसे।
कई बार खयाल आता है
कि हम दानव युग में जी रहे हैं ...
बेकार है विकास की बड़ी-बड़ी बातें करना।
देश को ऐसी कई पंचवर्षीय योजनाएं बनानी होंगी
जिसके तहत
स्त्री-पुरुष को समान नागरिक अधिकार मिल सकें।
संविधान में लिखी बातें कोरी हैं
समाज अब भी अवयस्क है।
दोष न लड़की का है
और न ओगड़सिंह का।
ससुराल से मायके आकर बैठी बेटी के बारे में
वह पहले बहुत कुछ सुन चुका होगा।
लोगों को अपनी आन का सबूत देते हुए
उसने अपनी बेटी का ही सर कलम कर दिया !
ऐसा उसने अपने सम्मान के लिए किया ...
यही 'ऑनर किलिंग है।
मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने भी
सीता को अग्नि में समर्पित कर आत्मसम्मान की रक्षा की थी
हमारे समाज में यह आज भी बुरा नहीं है।
चरित्रहीनता पर फैसला सुनाना हम
अपना फर्ज समझते हैं।
ओगड़सिंह आदतन अपराधी नहीं था
वरना वह बेटी का सिर लेकर थाने नहीं जाता।
जब तक संबंध, प्रेम,
ससुराल से घर वापसी को समाज अभिशाप मानेगा
तब तक बेटियां कत्ल होने के लिए
अभिशप्त रहेंगी।
समाज दोषी है और
दोषी हैं समाज की इस सोच को सर-माथे लेने वाले लोग।
जिंदगी बड़ी है
या झूठे कायदे?
क्या फर्क पड़ जाता जो जी लेती बेटी अपनी जि़न्दगी
तुम कटघरे में और वह कब्र में यह तो कोई इन्साफ़ नहीं


वर्षा

मंगलवार, 19 जून 2012

नहीं बाँच सकती कोई माँ



शब्द शब्द आह्वान करते हैं
फिर भी सब चुपचाप रहते हैं
क्यूँ नहीं समझते सब
एक चिट्ठी क्या इतनी भारी हो गई है !
कीमत गर होती
तो शायद
अच्छी चिट्ठियों की भी भरमार होती ...
हो जाए अगर पॅकेज तय तो यकीनन चिट्ठी लिखने का वक़्त निकल आएगा
रिश्ता हो न हो - रिश्ता निकल आएगा ...

रश्मि प्रभा


नहीं बाँच सकती कोई माँ


वो ज़माना चिट्ठी पत्री का
जब बांच नहीं सकती थी माँ
ज़माने भर की चिट्ठियाँ
बस रखती थी सरोकार
अपने बेटों की चिट्ठियों से
जो दूर देश गया था कमाने
सुन लेती थी अपने पति कि बाणी में
या घर की सबसे पढी लिखी बहू से
पर फिर भी उन्हें आँचल में छिपाकर
सुनने जाती थी
पड़ौस की गुड्डी या शन्नो से
तृप्त हो जाती थी आत्मा
और फिर से आँखें ताकती थी हर शाम
उस डाकिए को
इस कमजोरी से उबरी
माँ अब साक्षर होने लगी
चिट्ठियों के लफ्ज़ पह्चानने लगी
इधर बेटे बेटियों के लफ्ज़
होने लगे और गहरे
माँ को नमस्ते ! पापा को राम-राम !
और बाकी बातें
पढे लिखे भाई-बहनों के लिए
लिखी जाने लगी
माँ उन दो पंक्तियों को आँखों में समाए
संजोने लगी चिट्ठियाँ
एक लोहे के तार में
और जब तब निकाल कर पढ लेती
वो दो पंक्तियाँ
डाकिए का इंतज़ार रहता
अब भी आँखों में
माँ ने पढना लिखना शुरु किया
गहरे शब्दों के मर्म को जाना
बेटे-बेटियों की चिट्ठियाँ
अब उसकी समझ के भीतर थी
पर ये शब्द जल्द ही
एस.एम.एस.में बदल गए
मोबाइल उसकी पहुँच से
बाहर की चीज़ बन गया
अब हर रिंगटोन पर
अपने पोते से पूछती
किसका एस.एम.एस ?
क्या लिखा ?
कुछ नही
कम्पनी का है एस.एम.एस
आप नहीं समझोगी दादी माँ!
माँ को और ज़रूरत हुई
बच्चों को समझने की
उसने जमा लिए हाथ
की-बोर्ड पर
माउस क्लिक और लैपटॉप की
बन गई मल्लिका
जान लिए इंटरनेट से जुड़्ने के गुर
पैदा कर लिए अपने ई-मेल पते
बना लिए ब्लॉग
मेल और सैण्ड पर क्लिक हो गए
उसके बाएँ हाथ का खेल
भेजने लगी अपने इंटरनेटी दोस्तों को
मेल और सुन्दर संदेश
बच्चे बड़े हो गए हैं
चले गए गए हैं परदेस
माँ अपने ई.मेल पते देती है
बेटा सॉफ्ट्वेयर इंजीनीयर है
बेटी आर्कीटेक्चर के कोर्स में
है व्यस्त
हर रोज़ अपने लैपटॉप
पर देखती है स्क्रीन
आज तो आया होगा
कोई लम्बा संदेश
उसकी आँखें थक रही हैं
स्क्रीन के रेडिएशन पर
नज़र जमाए
पर नहीं आया कोई मेल
माँ चिट्ठी के ज़माने में
पहुँच गई है
जहाँ नहीं बाँच सकती कोई माँ
अपने बच्चों नहीं चिट्ठियाँ


संगीता सेठी
http://sangeetasethi.blogspot.in/

शुक्रवार, 15 जून 2012

लाइफ क्या है ?




छोटे छोटे पल
जिनमे हम ख़ुशी ढूंढते हैं
कभी ठोकर तो
कभी सवाल भी पाते हैं


कभी माँ की डांट पड़ती
तो कभी फ़ुल्ल ऑन मस्ती …


कभी वी हैव हंड्रेड्स ऑफ़ ऐन्सर्स
तो कभी सिर्फ प्रोब्लेम्स …


कभी लगता वी हैव दी पॉवर टू फेस दी वर्ल्ड
तो कभी बस एक हल्की सी हिचकिचाहट


इतना सोचना क्यूँ , जस्ट लेट गो …
क्यूंकि लाइफ यही तो है …


अपराजिता कल्याणी

बुधवार, 13 जून 2012

मैं अच्छा कैसे बन जाऊं, मैं अच्छाई से डरता हूँ....



इसमें कुछ प्रश्न छिपे हैं जो कभी बचपन में उठा करते थे...फिर आज की एक सोच दिखानी चाही...प्रश्न अभी भी मन में है...इसलिए आपसे उत्तर की आशा रखता हूँ.....


मर्यादा जीवन भर पूजी, बदले मे वनवास मिला...
बड़ी सती थी जिसको कहते जग का तब उपहास मिला...
शिव का आधा अंग बनी, पर बदले मे थी आग मिली...
सत्यमूर्ति बन भटक रहा था, बुझी पुत्र की साँस मिली...

इंद्रिय सारी जीत चुका था, उसको पुत्र वियोग मिला...
विष प्याला उपहार मिला था कृष्ण भक्ति का जोग लिया...
दानवीर, आदर्श सखा, पर छल से था वो वधा गया...
ज्ञान मूर्ति इक संत का शव भी, था शैय्या पर पड़ा रहा...

धर्म हेतु उपदेश दिया पर पूरा वंश विनाश मिला...
हरि के थे जो मात पिता उनको क्यूँ कारावास मिला...
मात पिता का बड़ा भक्त था, बाणों का आघात हुआ...
ऐसे ही ना जाने कितने अच्छे जन का ह्रास हुआ....

थे ऐसे भी जो पाप कर्म की परिभाषा का अर्थ बने...
जो अच्छाई को धूल चटाते, धर्म अंत का गर्त बने...
जो अत्याचार मचाते थे, दूजो की पत्नी लाते थे...
वो ईश के हाथों मरते थे, फिर परम गति को पाते थे...

अब ये बतलाओ सत्य बोल मैं कौन सा सुख पा जाऊँगा...
मैं धर्म राह पे चला अगर,दुख कष्ट सदा ही पाऊँगा...
नाम अमरता नही चाहिए, चयन सुखों का करता हूँ...
मैं अच्छा कैसे बन जाऊं, मैं अच्छाई से डरता हूँ....


दिलीप

शनिवार, 9 जून 2012

मैं तुमसे प्यार नही करती....!!




मेरे कुछ शेरों में शामिल है तेरा नाम भी
मेरी कुछ शामों में शामिल है तेरा ख्याल भी
मेरे कुछ आंसुओं का कारण है तेरी कमी भी
मेरी कुछ मुस्कुराहटों में शामिल है तेरी याद भी
मगर फिर भी यह सच है ....
मैं तुमसे प्यार नही करती ...!!
मैंने तुमसे कभी प्यार नही किया ...!!

देखे होंगे कुछ ख्वाब कभी
कि चांदनी रात में टहलते कभी
छत पर लेकर हाथों में हाथ
सुरमई शाम में कभी
सूरज को ढलता देखते साथ
गीतों गज़लों को सुन कर
कभी आह! कभी वाह! करते साथ
खेतों कि पगडंडियों पर कभी
खामोश चलते साथ- साथ
मगर
इन ख्वाबों के हकीकत होने का इन्तिज़ार
मैंने कभी नही किया...
यह सच है कि
मैंने तुमसे प्यार कभी नही किया ...!!

उसके दर से आने वाली
हर राह पर आंख बिछाना
हर आहट पर चौंक कर
दरवाजे तक हो आना
विरह की दाह में जलकर
बेचैन हो जाना
कभी भूखे प्यासे रहना
कभी नींदें गंवाना
दीवानावार इस तरह तेरा इन्तिज़ार
मैंने कभी नहीं किया ...
यह सच है की
मैंने तुमसे प्यार कभी नहीं किया ...!!

मैं तुमसे प्यार नही करती....!!
मैंने तुमसे प्यार कभी नहीं किया ....!!



वाणी गीत

शुक्रवार, 8 जून 2012

आस्था



वह
इतराती, इठलाती, बल खाती
पत्थरों से केलि करती
पहाड़ी नदी थी
ज़ो पावस में और भी शरारती हो उठती थी
और बदल देती थी अपना मार्ग.
बहती थी ...नये-नये रास्तों से
करती थी चुहुल...मौन खड़े वृक्षों से.
चलती थी .......निर्भीक यौवना सी.
लुटाती थी सदर्प -
पूंजी अपने सौन्दर्य की ......और बिखेरती थी हास
अपने आसपास.

पहाड़ी नदी नें
इस बार भी बदल दिया अपना मार्ग .....और ......
छूकर खिलखिला पड़ी ......अपने रास्ते में खड़े गौरवशाली बरगद को.
अपनी आस्थाओं में रचा-बसा वर्षों पुराना बरगद ...
देखता रहा चुपचाप.
नदी
बहती रही ....पूरी बरसात भर
....बरगद की जड़ों से मिट्टी बहाती हुई,
.....गहरी और पुष्ट जड़ों से परिहास करती हुई,
........बरगद को अपने साथ बहा ले जाने की जिद करती हुई
नदी बहती रही .......पूरी बरसात भर.
बूढा बरगद
खड़ा रहा चुपचाप .....
उसकी जड़ें गहराई तक धसी हुईं थीं ........आस्था की धरती में.
वह केवल उन्हीं को सहलाता रहा ...बड़े प्यार से
आसमान में सिर उठाये
और सहता रहा ......अपने चिकने-चमकीले पत्तों पर
प्रवासियों की बीट.
सहता रहा.....झुकी हुई शाखाओं के टूटने की पीड़ा....
बिना किसी परिवाद के.
किसी नें साथ नहीं दिया उसका .
किन्तु नदी
न तो ले जा सकी बरगद को अपने साथ
न ठहर सकी उसके पास
बल्कि छोड़ गयी .....
सूखी और आँखों में चुभने वाली ...तपती रेत
अपने आसपास.
अंततः ........संस्कृति जीत गयी
और हार गईं मेरे शहर की
सारी विज्ञापन बालाएं.
बेचारी .........
पहाड़ी नदी !


कौशलेन्द्र

मंगलवार, 5 जून 2012

यमराज का इस्तीफा




एक दिन
यमदेव ने दे दिया
अपना इस्तीफा।
मच गया हाहाकार
बिगड़ गया सब
संतुलन,
करने के लिए
स्थिति का आकलन,
इन्द्र देव ने देवताओं
की आपात सभा
बुलाई
और फिर यमराज
को कॉल लगाई।

'डायल किया गया
नंबर कृपया जाँच लें'
कि आवाज तब सुनाई।

नये-नये ऑफ़र
देखकर नम्बर बदलने की
यमराज की इस आदत पर
इन्द्रदेव को खुन्दक आई,

पर मामले की नाजुकता
को देखकर,
मन की बात उन्होने
मन में ही दबाई।
किसी तरह यमराज
का नया नंबर मिला,
फिर से फोन

लगाया गया तो
'तुझसे है मेरा नाता
पुराना कोई' का
मोबाईल ने
कॉलर टयून सुनाया।


सुन-सुन कर ये
सब बोर हो गये
ऐसा लगा शायद
यमराज जी सो गये।

तहकीकात करने पर
पता लगा,
यमदेव पृथ्वीलोक
में रोमिंग पे हैं,
शायद इसलिए,
नहीं दे रहे हैं
हमारी कॉल पे ध्यान,
क्योंकि बिल भरने
में निकल जाती है
उनकी भी जान।

अन्त में किसी
तरह यमराज
हुये इन्द्र के दरबार
में पेश,
इन्द्रदेव ने तब
पूछा-यम
क्या है ये
इस्तीफे का केस?

यमराज जी तब
मुँह खोले
और बोले-

हे इंद्रदेव।
'मल्टीप्लैक्स' में
जब भी जाता हूँ,
'भैंसे' की पार्किंग
न होने की वजह से
बिन फिल्म देखे,
ही लौट के आता हूँ।

'बरिस्ता' और 'मैकडोन्लड'
वाले तो देखते ही देखते
इज्जत उतार
देते हैं और
सबके सामने ही
ढ़ाबे में जाकर
खाने-की सलाह
दे देते हैं।

मौत के अपने
काम पर जब
पृथ्वीलोक जाता हूँ
'भैंसे' पर मुझे
देखकर पृथ्वीवासी
भी हँसते हैं
और कार न होने
के ताने कसते हैं।

भैंसे पर बैठे-बैठे
झटके बड़े रहे हैं
वायुमार्ग में भी
अब ट्रैफिक बढ़ रहे हैं।
रफ्तार की इस दुनिया
का मैं भैंसे से
कैसे करूँगा पीछा।
आप कुछ समझ रहे हो
या कुछ और दूँ शिक्षा।

और तो और, देखो
रम्भा के पास है
'टोयटा'
और उर्वशी को है
आपने 'एसेन्ट' दिया,
फिर मेरे साथ
ये अन्याय क्यों किया?

हे इन्द्रदेव।
मेरे इस दु:ख को
समझो और
चार पहिए की
जगह
चार पैरों वाला
दिया है कह
कर अब मुझे न
बहलाओ,
और जल्दी से
'मर्सिडीज़' मुझे
दिलाओ।
वरना मेरा
इस्तीफा
अपने साथ
ही लेकर जाओ।
और मौत का
ये काम
अब किसी और से
करवाओ। —


सिद्धार्थ सिन्हा

शनिवार, 2 जून 2012

ओ नन्हे से परिंदे !




ओ नन्हें से परिंदे

मुझे तुमसे बहुत कुछ सीखना है !



सीखना है कि

दिन भर की अपनी थकान को

सहज ही भुला तुम

अपने छोटे-छोटे से पंखों में

कहाँ से इतनी ऊर्जा भर लाते हो

कि पलक झपकते ही

आकाश की ऊँचाइयों में विचरण करते

घने मेघों से गलबहियाँ डाल

चहचहा कर तुम ढेर सारी

बातें करने लगते हो !



सीखना है कि

कहाँ से तुमने इतना हौसला जुटाया है

कि लगभग हर रोज़

कभी इंसान तो कभी बन्दर

तुम्हारा यत्न से सँजोया हुआ

घरौंदा उजाड़ देते हैं

और तुम निर्विरोध भाव से

तिनका-तिनका जोड़

पुन: नव नीड़ निर्माण के

असाध्य कर्म में बिना कोई उफ़ किये

एक बार फिर से जुट जाते हो !


सीखना है कि

कहाँ से तुम धीर गंभीर

योगी तपस्वियों जैसी

असम्पृक्तता, निर्वैयक्तिकता

और दार्शनिकता की चादर

ओढ़ पाते हो कि अपने

जिन नन्हे-नन्हे चूजों की चोंच में

दिन रात के अथक श्रम से

एकत्रित किये दानों को चुगा कर

तुम उन्हें जीवनदान देते हो,

दिन रात चील, कौए

गिद्ध, बाजों से उनकी

रक्षा करते हो ,

सक्षम सशक्त होते ही

तुम्हें अकेला छोड़ वे

फुर्र से उड़ जाते हैं

और उनके जाने के बाद भी

निर्विकार भाव से

बिना स्वर भंग किये

हर सुबह तल्लीन हो तुम

उतने ही मधुर,

उतने ही जीवनदायी,

उतने ही प्रेरक गीत

गा लेते हो !


ओ नन्हें से परिंदे अभी

मुझे तुमसे बहुत कुछ सीखना है !


साधना वैद !

एक संवेदनशील, भावुक और न्यायप्रिय महिला हूँ । अपने स्तर पर अपने आस पास के लोगों के जीवन में खुशियाँ जोड़ने की यथासम्भव कोशिश में जुटे रहना मुझे अच्छा लगता है ।