बुधवार, 29 अगस्त 2012

प्रेम क्या है? (what is Love?)





Amit Tiwari


एक छोटा सा प्रश्न लेकिन अनेक उत्तर. एक ऐसा प्रश्न जिसके लिए हर किसी के पास अपना एक अलग उत्तर है. जिस जिस से पूछा जाए वह इसके लिए कुछ अलग उत्तर दे देता है. सबकी अपनी परिभाषाएं हैं प्रेम को लेकर. बहुत बार बहुत सी विरोधाभाषी परिभाषाएं भी.
मैं सोच रहा हूँ कि क्या प्रेम वास्तव में ऐसा है कि जिसकी कोई नियत परिभाषा ही नहीं बन पायी है. क्या प्रेम सचमुच ही ऐसा है कि इसका स्वरुप देश-काल और परिस्थिति के अनुसार परिवर्तित होता रहता है? क्या प्रेम का अपना कोई स्वरुप, अपनी कोई पहचान नहीं है?
क्या वास्तव में लोगों की भावनाओं के अनुरूप रूप ग्रहण कर लेना ही प्रेम का स्वरुप है? क्या प्रेम व्यक्तिगत या वस्तुगत हो सकता है? जिसके नाम पर हर रोज़ इतनी घृणा फैलाई जा रही है, क्या वही प्रेम है? क्या प्रेम महज एक दैहिक अभिव्यक्ति से अधिक कुछ भी नहीं? क्या किसी विपरितलिंगी के प्रति मन में उठ रही भावनाएं ही प्रेम हैं?
कदापि नहीं !!!
यह जो कुछ भी है वह प्रेम नहीं हो सकता. वह प्रेम हो ही नहीं सकता कि जो लोगों की भावनाओं के अनुरूप रूप ले लेता हो. वह प्रेम कदापि नहीं हो सकता है जिसके मूल में ही घृणा पल रही हो. प्रेम तो स्वयं एक सम्पूर्ण भाव है. प्रेम किसी के चरित्र का हिस्सा नहीं वरन स्वयं में एक पूर्ण चरित्र है.
प्रेम तो कृष्ण है, वह कृष्ण जिसके पाश में बंधकर गोपियाँ-ग्वाले और गायें सब के सब चले आते हैं.
प्रेम तो राम है, वह राम जिसके पाश में कोल-किरात भील सभी बंधे हुए हैं.
प्रेम तो ईसा है, वह ईसा जो मरते समय भी अपने मारने वालों के लिए जीवनदान की प्रार्थना करता है.
प्रेम बुद्ध है, वह बुद्ध जिसकी सैकड़ों साल पुरानी प्रतिमा भी करुणा बरसाती सी लगती है.
प्रेम बस प्रेम है.
प्रेम पुष्प की वह सुगंध है, जो बिना किसी भेद के सबको आह्लादित कर दे. प्रेम की गति सरल रेखीय नहीं है. प्रेम का पथ वर्तुल है. वह अपनी परिधि में आने वाले हर जीव को अपनी सुगंध से भर देता है. प्रेम करने का नहीं, वरन होने का भाव है. प्रेम स्वयं में होता है. प्रेम किसी से नहीं होता है, वरन वह किसी में होता है और फिर जो भी उस प्रेम की परिधि में आता है उसे वह मिल जाता है, बिना किसी भेद के. प्रेम किसी भी प्रकार से व्यक्ति-केन्द्रित भाव नहीं है.
यह कहना कि "मैं सिर्फ तुमसे प्रेम करता/करती हूँ." इस से बड़ा कोई झूठ नहीं हो सकता है.
लेकिन फिर ऐसे में यह भ्रम होना स्वाभाविक है कि आखिर वैयक्तिक रूप से अपने किसी निकटवर्ती साथी, सम्बन्धी, मित्र या किसी के भी प्रति मन में उठने वाली भावना क्या है?
वह निस्संदेह प्रेम नहीं हैं, वरन प्रेम से इतर भावनाएं हैं, जिन्हें प्रेम मान लिया जाता है. प्रेम को समझने से पहले हमें कुछ शब्दों के विभेद को भी समझ लेना होगा.
प्रेम, प्यार, मोह (मोहब्बत) और अनुराग (इश्क) परस्पर समानार्थी शब्द नहीं हैं, बल्कि इनके अपने अर्थ और अपनी मूल भावनाएं हैं.
प्रेम शक्ति चाहता है, (Prem seeks Power )
प्यार को अपनी अभिव्यक्ति के लिए काया चाहिए. ( Pyar seeks Body ).
मोह (मोहब्बत) माधुर्य चाहता है, (Moh seeks Maadhurya ).
अनुराग (इश्क) आकर्षण चाहता है. ( Anurag seeks Attraction ).
प्रेम शक्ति चाहता है. यह शक्ति शरीर की नहीं, मन की शक्ति है. एक कमजोर व्यक्ति सब कुछ तो कर सकता है. वह विश्व-विजयी हो सकता है, प्रकांड विद्वान् हो सकता है, परन्तु उसमे प्रेम नहीं हो सकता है.
प्रेम का मूल निर्मोह है. निर्मोह के धरातल पर ही प्रेम का बीज अंकुरित होता है. निर्मोह की शक्ति के बिना प्रेम की प्राप्ति नहीं हो सकती है. पुष्प अगाध और निस्वार्थ प्रेम का प्रतीक है. वह प्रेम रुपी सुगंध बिना किसी भेद के फैलाता है, लेकिन कभी किसी के मोह में नहीं आता. कोई दिन-रात बैठकर पुष्प के सुगंध की चर्चा करता रहे, लेकिन फिर भी पुष्प उसके मोह में नहीं आता. वह उसके जाने के बाद भी उसी प्रकार सुगंध फैलाता रहता है. वह एक निश्छल बालक के लिए भी उतना ही सुगन्धित होता है, जितना कि किसी भी अन्य के लिए.
प्रेम प्राप्ति का माध्यम नहीं है. प्रेम बंधन भी नहीं है. प्रेम तो मुक्त करता है. प्रेम जब अंकुरित हो जाता है तब प्राणिमात्र के बीच भेद नहीं रह जाता.
किसी की माँ को गाली देने वाला, अपनी माँ से प्रेम नही कर सकता. किसी भी स्त्री का अपमान करने वाला, अपने परिवार की स्त्रियों से प्रेम नहीं कर सकता. किसी के बच्चे पर हाथ उठा रही माता को अपने पुत्र से मोह तो हो सकता है, लेकिन उसके मन में सहज प्रेम नहीं हो सकता.
प्रेम जब होता है, तब सिर्फ प्रेम ही होता है. प्रेम किसी से नहीं होता है, प्रेम किसी में होता है, ठीक वैसे ही जैसे कि पुष्प की सुगंध हमसे या आपसे नहीं है, वह पुष्प में है, जो सबके लिए है.
बस यही प्रेम है.



अमित तिवारी
समाचार संपादक
निर्माण संवाद

शनिवार, 25 अगस्त 2012

सच्चे कवि लिखते नहीं




कुछ लोग लिखते नहीं
नुकीले फाल से
सोच की मिट्टी मुलायम करते हैं
शब्द बीजों को परखते हैं
फिर बड़े अपनत्व से उनको मिट्टी से जोड़ते हैं
उम्मीदों की हरियाली लिए
रोज उन्हें सींचते हैं
एक अंकुरण पर सजग हो
पंछियों का आह्वान करते हैं
पर नुकसान पहुँचानेवाले पंछियों को उड़ा देते हैं
कुछ लोग -
प्रथम रश्मियों से सुगबुगाते कलरव से शब्द लेते हैं
ब्रह्ममुहूर्त के अर्घ्य से उसे पूर्णता दे
जीवन की उपासना में
उसे नैवेद्य बना अर्पित करते हैं
.....
कुछ लोग लिखते नहीं
शब्दों के करघे पर
भावों के सूत से
ज़िन्दगी का परिधान बनाते हैं
जिनमें रंगों का आकर्षण तो होता ही है
बेरंग सूत भी भावों के संग मिलकर
एक नया रंग दे जाती है
रेत पर उगे क़दमों के निशां जैसे !...


रश्मि प्रभा

सच्चे कवि लिखते नहीं


अपने शब्दों से खरीद ली थी
कुछ रोटियां
कुछ ज़ज्बात

वो ज़ज्बात
आंसू बन गिरे थे
मेरे काँधे पर,
कमीज के रेशों में कही खो गए.
वो रोटी
हलक से नीचे ना उतर पायी
कितनी बार ...........बनाया
गले को बहरूपिया
तब जाके वो कौर, निगल पाया.

मान बैठा था खुद को रचयिता
कवि, गज़ब का.

बुजुर्गों ने समझाया भी--
सच्चे कवि लिखते नहीं
रचयिता कुछ रचता नहीं.
उस चिलम फूंकते बुड्ढे ने कहा था--
शब्दों के सूअर, समय कसाई हैं
काट देगा.

मुझे याद हैं
भीड़ से हटके खड़े, उस बच्चे की चीख
तालियों की गूंज में
कही खो गयी थी.
लगातार घूरता जा रहा था
अपनी क्षोभ भरी आँखों से मुझे.
उसने फेंका भी था
अपने ज्वर ग्रस्त हाथो से एक पत्थर
मेरी तरफ.

धन्यभाग, मेरी कुर्सी कुछ ऊँची थी
मैं बच गया.!

आज सालो बाद
जाने कहा से वो पत्थर लग गया.

अपने एहसासों के कन्धों पर
जा रहा हूँ मरघट तक
जलूँगा आज अपने ही वर्कों में

समय कसाई था, मुझे काट दिया
आज ये बोध हुआ,
में फकत शब्द हूँ , कवि नहीं
क्योंकि ....
कवि कभी मरता नहीं


-अहर्निशसागर-

शुक्रवार, 24 अगस्त 2012

क्यूँ बने सती-सावित्री जब सत्यवान कहीं नहीं...






पूरी ज़िंदगी हम लड़कियों को ये कह कर पाला जाता है कि दूसरे के घर जाना है ये करो...ये मत करो...कभी कुछ गलती हो जाए तो भी यही सुनने मिलता है...कल को दूसरे घर जाएगी तो वहाँ सब कहेंगे माँ-बाप ने नहीं सिखाया...खाना बनाना आना चाहिए,घर के काम आने चाहिए,पढ़ाई-लिखाई तो ठीक है लेकिन सिलाई-कढ़ाई मे भी निपुण रहो...कोई कुछ भी कह दे कभी पलट कर जवाब मत दो...हर बड़े का आदर करो चाहे वो कैसा भी हो...पूजा-पाठ मे लगे रहो..मेहमान चाहे कितना भी बेशर्म हो उसके साथ अच्छी तरह पेश आओ...एक तरह से दुनिया भर की सारे गुण तुम्हारे अंदर होने चाहिए और इसी तरह हमारे सीरियल्स की हीरोइनों को भी दिखाया जाता है क्यूंकी हमारी नज़र मे शायद एक अच्छी बेटी और बहू का पैमाना ही ये है...

और हम बस इस पैमाने पर खरे उतरने के लिए सारी ज़िंदगी कोशिश मे लगी रहती हैं...इस उधेड्बुन मे कि क्या सही है क्या गलत...हम कभी ज़िंदगी जी ही नहीं पाते...और कई बार अपनी कोशिशों मे गलत साबित होते हैं...गलतियाँ करते हैं...दुखी होते हैं पश्चाताप होता है कि अब तक जो अच्छी लड़की का रूप सबके सामने आया था...वो कहीं मिट तो नहीं गया...और फिर उसे वापस पाने की जद्दोजहद शुरू हो जाती है...इस तरह जब ज़िंदगी के वो सारे पल निकल जाते हैं जिन्हे हमें जीना था...अपने परिवार के साथ...और जब दूसरे घर जाने का असली वक़्त आता है ऐसे समय मे हम क्या चाहते हैं...?सालों परिवार के साथ रहकर जिस ट्रेनिंग से गुजरते हुये अपनी ज़िंदगी काटी...उसे भूलकर कुछ दिन तो खुलकर जीने मिले न जाने आने वाला समय कैसा हो...न जाने वो लोग कैसे होंगे...कम से कम इन कुछ दिनों को तो अपने परिवार के साथ खुलकर जी लें...जहां न तो पहले वाली बन्दिशें हों न आने वाले दिनों का डर...पर शायद कुछ ही लोग होते हैं जो इन पलों को भी इस तरह जी पाते हैं क्यूंकी इन दिनों मे जब हम अपनों का साथ और उनका स्नेह चाहते हैं हमें मिलती है हर पल सलाह...जाने वाले घर मे कैसे व्यवहार करना है...कैसे रहना है...तो क्या हमारे अपने परिवार को सिर्फ उस दूसरे घर की फिक्र होती है जहां हम जाने वाले है...उन्हे क्यूँ लगता है कि उनकी बेटी किसी दूसरे घर मे सिर्फ तभी खुश रह सकती है जब वो उनके लिए हर पल काम करे या अच्छा खाना बनाकर खिलाये...

क्यूँ नहीं वो ये सोचते कि जब वो दूसरे घर के लड़के को अपने घर के हिसाब से नहीं बदलना चाहते,वैसे ही वो भी इनकी बेटी को जैसी वो है वैसे ही अपनाए...क्यूँ हम लड़की के लिए ज्यादा से ज्यादा गुण बताना चाहते हैं...हर एक का अपना गुण होता है और मैंने आजतक किसी ऐसे को नहीं देखा जिसमे सिर्फ गुण हों...उन्होने तो अपने लड़के को कभी नहीं टोका...पर आपने तो अपनी लड़की को कभी अपने मन से एक कदम भी नहीं उठाने दिया...जबकि आपको तो अपनी लड़की के पैदा होते साथ ही ये पता था कि वो हर वक़्त आपके साथ नहीं रहेगी..फिर तो उसे और भी खुलकर जीने देना चाहिए...मैं ये नहीं कहती कि उसका मार्गदर्शन नहीं करना चाहिए...लेकिन सिर्फ एक लड़की होने के कारण उसके लिए एक अलग नज़रिया अपनाना सरासर गलत है...

आज आपके कहे अनुसार चलती है...कल दूसरे घर जाकर उनके हिसाब से चलेगी....तो वो वक़्त कब आएगा जब वो अपने मन की करेगी,जब वो बिना किसी रोकटोक की फिक्र किए खुलकर जिएगी...क्या कभी ऐसा कोई पल उसकी ज़िंदगी मे आएगा...?

अपनी ज़िंदगी से खुद के लिए दो पल निकालना कइयों के लिए इतना मुश्किल होगा...सोचा ना था....

नेहा
मैं ख़ुद को पानी की तरह मानती हूँ....सबके साथ मिल जाना मेरी प्रकृति है...बावजूद इसके मेरा अपना एक वजूद है...जो निरंतर प्रगतिशील है.....

सोमवार, 20 अगस्त 2012

बहन-रक्षा का प्रण लेने की जरुरत नहीं





अभी पिछले हीं दिन अखबार में छपी एक खबर में पढ़ा था बारहवीं की एक छात्रा के साथ हुए सामूहिक बलात्कार के मुख्य नामजद अपराधी प्रशांत कुमार झा तीन बहनों का भाई है, उसकी बहन के बयान से शर्मिंदगी साफ़ झलक रही थी और छोटी बहन तो समझ भी नहीं पा रही उसके भाई ने किया क्या है | बस यही सोच रही थी की आज राखी के दिन क्या मनः स्थिति होगी ऐसी बहन की जिसका भाई बलात्कार के जुर्म में जेल गया हो ...............

तेरे हिस्से की राखी आज जला दी मैंने
इस बंधन से तुझको मुक्ति दिला दी मैंने
अफ़सोस तेरी बहन होने के अभिशाप से छुट ना पाउंगी
अपनी राखी की दुर्बलता पर जीवन भर पछ्ताउंगी
मुझ पर उठी एक ऊँगली, एक फब्ती भी बर्दास्त ना थी
सोचती हूँ कैसे उस लड़की का शील तुमने हरा होगा ?
वर्षों का मेरा स्नेह क्यूँ उस वक़्त तुम्हे रोक सका नहीं?
क्यूँ एक बार भी उसकी तड़प में तुम्हे मेरा चेहरा दिखा नहीं?
इतनी दुर्बल थी मेरी राखी तुझको मर्यादा में बाँध ना सकी
शर्मशार हूँ भाई, कभी तेरा असली चेहरा पहचान ना सकी
उधर घर पर माँ अपनी कोख को कोस कोस कर हारी है
तेरे कारण हँसना भूल पिता हुए मौन व्रत धारी हैं
सुन ! तेरी छुटकी का हुआ सबसे बुरा हाल है
अनायास क्यूँ बदला सब, ये सोच सोच बेहाल है
छोटी है अभी 'बलात्कार' का अर्थ भी समझती नहीं
हिम्मत नहीं मुझमे, उसे कुछ भी समझा सकती नहीं
पर भाई मेरे, तु तो बड़ा बहादुर है, मर्द है तु
उसको यहीं बुलवाती हूँ , तु खुद हीं उसको समझा दे
बता दे उसे कैसे तुने अपनी मर्दानगी को प्रमाणित किया है
और हाँ ये भी समझा देना प्यारी बहना को, वो भी एक लड़की है
किसी की मर्दानगी साबित करने का वो भी जरिया बन सकती है
अरे ये क्या, क्यूँ लज्जा से सर झुक गया, नसें क्यूँ फड़कने लगीं ?
यूँ दाँत पिसने , मुठ्ठियाँ भींचने से क्या होगा ?
कब-कब, कहाँ-कहाँ, किस-किस से रक्षा कर पाओगे?
किसी भाई को बहन-रक्षा का प्रण लेने की जरुरत नहीं
खुद की कुपथ से रक्षा कर ले बस इतना हीं काफी है
जो मर्यादित होने का प्रण ले ले हर भाई खुद हीं
किसी बहन को तब किसी रक्षक की जरुरत हीं क्या है?

आलोकिता गुप्ता

रविवार, 19 अगस्त 2012

बेटियाँ




उन्होंने एक ही रजाई में
अपने सुख दुःख बाटें है |
वाचलता से नही ,
एक दूसरे की सांसो से
एक ही रजाई में सोना,
उनका आपस में प्यार नही ,
उनकी मजबूरी थी |
क्योकि लड़कियों को हाथ पाँव पसारकर ,
सोने की अनुमति नही थी |
उनके उस घर (जो उनका कभी नही था )में ,
उनके दादा दादी ,पिताजी, चाचा,भाई सबका
बिस्तर पलंग प्रथक होता
सिर्फ़ थकी मांदी माँ और बेटियों का बिस्तर
साँझा होता था |
बिस्तर ही क्यो ?
उनके कपडे भी सांझे होते|

उनकी योग्यता ,उनकी प्रतिभा को
सदेव झिड्किया मिलती |
किनतु उन लड़कियों
ने अपने पूरे परिवार के लिए न जाने
कितने ही व्रत उपवास रखे
उनकी खुशहाली की कामना की |
क्योकि
वे उस परिवार की बेटियाँ थी......


शोभना चौरे

गुरुवार, 16 अगस्त 2012

वह







जब कोई ज्वाला बुझ जाती है
तो समाज ....
अपनी नींद हराम नहीं करता
पर जब कोई ज्वाला धधकने की जगह बढाती है
तो समाज...
कहता है आजिजी से
औरत जात पर कलंक है !!! :(

रश्मि प्रभा


परे ढ्केल अपने दुधमुंहे बच्चे को,
वह, मुंहअंधेरे उठ गई ।
अंगडाई के लिये उठ्ते हाथ ,
पीडा से जहां के तहां रुक गये ।
फ़िर, उसने उचट्ती निगाह डाली
अपने सोये पति पर
और घूम गया , कल रात का वह दॄश्य
जब पी कर उसे पीटा गया था ।
वह पिट्ती रही बेहोश होने तक।
जब होश आया, वह सहला रहा था ,
उसका बदन ।
उसकी निगहों में थी दीनता ,
याचक की भांति गिडगिडा रहा था ।
वह जड बनी साथ देती रही, उसका ,
जड्ता से भी तृप्त हो सो गया वह,
और
सुलगती रही सूखी लकडी की तरह वह ।
बरबस उठ गई निगाहें ,
अपनी झोंपडी की तरफ़
कुल चार हाथ लम्बी , दो हाथ चौडी जगह।
काफ़ी है उसके चार बच्चों ,पति
और स्वयं के लिये ।
वह तो अच्छा है , चार पहले ही चल बसे,
वरना.............?
सोच कर उसकी आह ,निकल जाती है ।
बच्चे के करुण क्रन्दन ने रोक दिया विचारों का तांता,
शायद भूखा है ।
उसके पास अब था ही क्या ,
जो उसकी भूख मिटाता ।
छातियों का दूध भी , आखिरी बूंद तक निचुड चुका था ।
उसे एक घूंट पानी पिला ,
वह हड्बडाती उठी,
कब तक बैठी रहेगी ?
जल्दी चले वरना ,
सारे कागज पहले ही बीन लिये जाएगें ,
और वह कूडे को कुरेदती रह जाएगी ।
फ़टी चादर लपेट ,
पैंबद लगा बोरा उठा ,
नंगे पांव ,
ठिठुरती सर्दी में ,
सड्क पर आ गई वह।
अभी दिन भी नहीं निकला था , पूरी तरह ।
इधर- उधर से कुत्तों ने मुंह उठाया,
फ़िर से दुबक गए,
शायद पह्चानने लगे थे ,उसकी पद्चाप ।
वह चलती गई, चलती गई........गई,
लडखडाती ....
कांपती ....
कुलबुलाती....
ठिठुरती......
अब, वह सब कुछ भूल चुकी थी ,
मंजिल थी ............कूडे का ढेर
एक मात्र ध्येय.......
आंतिम ल्क्ष्य....
सारा संसार वृक्ष बन गया था उसके लिये,
और कूडे का ढेर चिडिया की आंख ,
जहां उसे , अपनी पडॊसन से पहले
पंहुचना था...........


पूनम जैन कासलीवाल

बुधवार, 15 अगस्त 2012

एक लड़की ..............






एक लड़की नेहा नाम है उसका , किस्मतवाली है जो उसे उसका नाम मिला वरना वह भी उन्ही लड़कियों में शामिल हो जाती जिनका कोई नाम नहीं होता । माँ के गर्भ में आते ही यह जान लिया जाता है कि बेटी है या बेटा और यदि बेटी होती तो उसके जन्म लेने का सवाल ही नहीं उठता फिर कैसा नाम और कैसी पहचान । वो माँ जिसके गर्भ में वो आई थी सिर्फ उसे ही पहचान होती है कि उसके गर्भ में भी एक नन्ही कली है पर चाह कर भी वो उसे नहीं बचा नहीं सकती । दोनों के बीच एक रिश्ता होता जो सिर्फ और सिर्फ उस के द्वारा ही महसूस किया जाता जो उससे जुड़ा होता ।
नेहा को अपने वजूद के लिए संघर्ष करना था लेकिन यह संभव नहीं था क्योंकि अभी तो वह अपनी माँ के गर्भ में सिर्फ तीन महीने की ही तो थी । वो जन्म लेगी या नहीं इसका निर्णय उसकी माँ भी नहीं कर सकती थी । नेहा अपनी तीन बहनों के बाद चौथे नंबर पर जन्म लेती शायद इसीलिए जब वे लोग जान गए कि लड़की जन्म लेगी तो नहीं चाहते थे कि नेहा का जन्म हो । लड़के की चाहत में तीन बेटियां पहले ही हो चुकी थी । परिवारवालों ने निर्णय लिया कि नेहा को जन्म लेने ही नहीं दिया जायेगा , अर्थात भ्रूण हत्या होना निश्चित था । नेहा की माँ भी इसके लिए तैयार थी , शायद मज़बूरी में । इस काम के लिए वो मेरे घर पटना आई । जब मेरी माँ को पता चला कि वो इसीलिए आई है तो एकदम गुस्सा हो गयी और समझाया कि इसे जन्म लेने दो , वैसे भी वे लोग चार महीने का गर्भपात करवाना चाहते थे जो खतरनाक था । माँ ने समझाया कि शायद इसके जन्म के बाद ही बेटा हो। इस तरह उन्हें समझाने में माँ को काफी समय लगा तब जाकर वे लोग माने । इस तरह नेहा का जन्म संभव हो सका और वो अपना नाम पा सकी । कितना वाद - विवाद और मुश्किलों का दौर रहा होगा वो । शायद माँ के गर्भ में नेहा भी महसूस करती होगी ।
नाम तो उसे जन्म से ही मिल गया लेकिन उसके साथ -साथ उसकी माँ को भी बेटा नहीं होने के ताने सुनने पड़े । नेहा के बाद उसका भाई पैदा नहीं हुआ । दुःख तो उसके माता - पिता दोनों को था लेकिन समय के साथ उन्होंने उसे अपनी किस्मत समझ ली । उसके बाद वे लोग मेरे घर कभी नहीं आये । एक तरह से सम्बन्ध ही टूट गया ।
अभी कुछ दिनों पहले नेहा की नानी का फोन मेरे पास आया था कि नेहा का सलेक्शन मेडिकल में हो गया है । अपने परिवार की पहली लड़की नेहा है जो मेडिकल की पढाई कर रही है और उसकी जिंदगी की यह नयी शुरुआत पटना में मेरे घर से ही हुई । उसके माता-पिता मेरी माँ से आशीर्वाद दिलाने के लिए लाये थे। ख़ुशी का ठिकाना नहीं था। नेहा अपने परिवार के लड़कों को पछाड़ कर आगे बढ़ गयी है । अब उसके माता-पिता को बेटा नहीं होने का गम नहीं है और समाज में होनहार बेटी के पिता के रूप में काफी सम्मान हो गया है ।
इश्वर करे ये बेटी खूब आगे बढे .......................



डॉ संध्या तिवारी

सोमवार, 13 अगस्त 2012

फोन





ना जाने कब से फोन हाथ में लेकर बैठी हूँ
कुछ खोयी सी....
कुछ सोचती सी.....
कब से सोच रही हूँ
तुम्हे फोन करूँ
कुछ खास नहीं
बस ऐसे ही
बस एक बार तुम्हारी आवाज़ सुन लूँ
एक बार मेरी कानों में गूंज उठे
तुम्हारी खरज आवाज़
रख लूँ
उसे प्यार से सिरहाने
जैसे कोई प्यारी धुन या गीत सुनते हुए सोने की आदत सी हो गई है मेरी....
फोन उठाकर नम्बर पर उंगलियों फिराया
फिर खुद ही काट दिया
ना जाने क्या सोच कर
फोन से ध्यान हटा लेती हूँ
कुछ करने का बहाना बना कर
कि फिर फोन उठा लेती हूँ
जैसे कि घंटी बजी हो,,,
शायाद तुमने फोन किया हो
नहीं, तुम्हे शायाद ज़रुरी नहीं लगता
रोज युहीं बेफजूल की बातें करना....
पर मुझे हर छोटी छोटी बातें तुम्हे बताना ना जाने क्यूँ अच्छा लगता है
कि जैसे आज वालकानी में कौवा बहुत बोल रहा था
कि बारिश हो तो रही थी पर रुक रुक कर
उमस जस की तस
जैसे कि तुमसे मिल के हमेशा घर आने के बाद लगता है मैंने तुम्हे ठीक से देखा ही नहीं
काश थोड़ी देर और रुक पाती तुम्हारे साथ
कभी नहीं भरा मेरा मन तुमसे मिलने के बाद
हर बार मिलने के बाद मिलने की थोड़ी इच्छा और बाकी बच ही जाती है.....
देखो ना, अभी भी जो कुछ लिख रही हूँ ध्यान फोन की तरफ़ ही है
शायाद फोन बजा ऐसा कानो को क्यों लग रहा है बार बार
फिर लगता है शायाद मैसेज किया हो कि "-आज समय नहीं मिला... बहुत बिज़ी था,,, ठीक हूँ,,,, मै सोने जा रहा हूँ, तुम भी सो जायो"
पर ऐसा भी कुछ नहीं आया ....
आज फिर रात आँखों में ही गुज़र जायेगी ...
पर कोई बात नहीं, तुम सो जाना ठीक से
मै तुम्हारे लिये गुन्गुनागी ...
बस तुम महसूस कर लेना
अच्छा, चलो जायो, अब सो जायो
फोन सिरहाने रख लिया है मैंने
नींद ना आये और मन करे तो फोन कर लेना......
मै जगती रहूंगी.....

असीमा भट्ट

गुरुवार, 9 अगस्त 2012

पर तुममे हैं ..





मै तुम्हें सतह पर .कभी तट पर
लहर सा ..तलाशता हूँ
पर तुममे हैं.. सागर सी गहराई

मै पर्वत की चोटियों तक,
कभी मंदिरों के कलश तक
ऊपर उठकर ...
बादल सा ..तुम्हें छूना चाहता हूँ
पर तुममे हैं .. अंबर सी ऊँचाई

मै तुमसे हर मोड़ पर
मिलना चाहता हूँ
पर तुम्हें तो उदगम से समुद्र तक
नदी की तरह पसंद हैं सिर्फ तन्हाई

मै अक्स सा
तुम्हें आईने में
अक्सर दिख जाया करता हूँ
कभी तुम मुझसे प्यार करती हो
कभी तुम मुझसे रूठ जाती हो
और कभी मुझसे ...
तटस्थ रहने की जिद्द में
तुमने ..मुझे भूल जाने की
सारी रस्मे हैं निभाई


भीतर भीतर तुम्हारे
ह्रदय की मृदु भावनाएं
उमंगित हो ....
मेरे स्वागत हेतु लेती हैं अंगडाई

तुम मेरे जीवन में इस तरह से हो आयी
करीब रहकर भी दूर क्षितिज सी लगती हो
तुम मुझसे कहती हो
मै तो हूँ चांदनी रात में
झील में उतर आई
खुबसूरत चन्दा सी एक परछाई

किशोर
kishor kumar

बुधवार, 8 अगस्त 2012

दास्तान-ए-मुहब्बत





एक दिन अचानक
क्षितिज के उस पार
तेरा कांत रूप दिखा था मुझे।
मैं दौड़ा था तुम्हें रोकने के लिये
अपना अवलम्ब बचाने के लिये।
पर काल के वायु-वृत ने
अपने आगोश में भर लिया था
और फेंक दिया था
क्षितिज के दूसरे किनारे पर।
फिर भी हिम्मत नहीं हारा था
चलता चला था तुम्हारी खोज में
पर जब उस छोर पर पहुँचा
तो इस छोर पर नज़र आई थी तुम।
बैठकर खूब रोया
मंदिरों में जाकर उपासना भी की
पर काल ने मेरी एक ना सुनी
तुम जा चुकी थी अज्ञात शांतवन में।
इस निरीह कुंज में
मैं अकेला रह गया था।
समय के आशुवत् परिवर्तन ने
बहुतों को छीन लिया था मुझसे।
कोई लक्ष्य नहीं, कोई उमंग नहीं
बिन पतवार की नौका की भाँति
लगता रहा था
इस कगार से उस कगार पर।
सहसा गर्जना हुई थी
आकाशतल में
तारे और नक्षत्रवृंदों का समूह
चमकने लगे थे दिन में ही।
यह कैसा दिवस था
मैं कुछ सोच नहीं पा रहा था
हिमालय को बींधते
उल्कापिडों का अग्निवर्तन
विंध्य के जलप्रपातों का
उल्टा (उलटा) प्रवाह।
विज्ञान के सारे सिद्धांत
या ये कहें प्रकृति के जड़वत् नियम
क्या सही, क्या गलत
कुछ निर्धारित करना मुश्किल था।
भास्कर के अविखंडित प्रकाश में
तुम्हार नूर नज़र आया था।
मैंने लपकना चाहा था तुमको
तो देखा वास्तव में
मैं तुम्हारी ओर आ रहा हूँ।
पक्षियों की तरह उड़ते-उड़ते
जब मैं तुम्हारे पास पहुँचा
तो बहुत खुश हुआ था
क्योंकि मैंने अपनी मंजिल पा ली थी
जी कर ना सही मरकर।


शैलेश भारतवासी

सोमवार, 6 अगस्त 2012

शब्द ..... किसके हैं ये शब्द



पूरी पोस्ट एक ईमानदार अभिव्यक्ति है और अपनी पसंद को अपना मानना बिल्कुल गलत नहीं . सच भी है - कहना था हमें , कह गए वो ...

रश्मि प्रभा



प्रिय ब्लॉगर साथियों,

पिछले दिनों और उससे पहले भी कई लोगों की टिप्पणियाँ और मेल मिली जिसका आशय ये था कि क्या इस ब्लॉग कि सारी पोस्ट आप स्वयं लिखते है ? शायद और पाठकों के मन में भी ये सवाल कभी न कभी उठता होगा......तो आज पेश है मेरी तरफ से आप सबको ये जवाब -

मैं एक साधारण इंसान हूँ....सिर्फ एक ज़र्रा.....कोई कवि, लेखक या कोई शायर बनने या अपने को समझने कि जुर्रत और हिमाकत मेरी नहीं है.....हाँ उर्दू अदब और हिंदी साहित्य से मुझे बहुत लगाव
है, इसके आलावा मुझे आध्यात्मिकता से बहुत लगाव है खासकर सूफी दर्शन से......अपनी उम्र के हिसाब से शायद कुछ अधिक परिपक्व हो गया हूँ......जिंदगी में जो कुछ सुनता हूँ, पढता हूँ उसे बहुत करीब से महसूस करता हूँ बाकि जिंदगी ने बहुत कुछ सिखाया है......दिमाग कि बजाय दिल को ज़्यादा तरजीह देता हूँ.....इसलिए जो कुछ कहीं महसूस किया है वो आपसे बाँटने के लिए इस ब्लॉग कि शुरुआत कि और आज भी कभी फॉलोवर की संख्या या टिप्पणियों की गिनती पर कम ध्यान रहता है क्योंकि ये ब्लॉग मेरी अपनी आत्मसंतुष्टि का जरिया है......यहाँ जो गजले, नज्में, गीत, विचार, सूफियाना कलाम... आप पढ़ते हैं वो सारे के सारे मैं खुद नहीं लिखता या मैंने नहीं लिखे, कुछ संकलन है, कुछ मैंने खुद भी लिखे हैं......इसका हिसाब रखना ज़रूरी नहीं समझा कि क्या अपना था और क्या और किसी का क्योंकि मेरे लिए उसमे छिपे जज़्बात मायने रखते हैं, मैं उसमे खुद को महसूस करता हूँ...... जब मैं यहाँ कुछ प्रकाशित करता हूँ तो उसमे छिपे जज़्बात मेरे और सिर्फ मेरे होते हैं जिसे कभी तस्वीरों के माध्यम से तो कभी शब्दों के माध्यम से बाँट लेता हूँ........

मैं खुद कि तारीफ का भूखा नहीं हूँ.......क्योंकि मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि मेरे ब्लॉग - कलाम का सिपाही और खलील जिब्रान पर जो मैं प्रकाशित करता हूँ आप में से नब्बे फीसदी लोग उसे कभी न पकड़ पाते जिसे अगर मैं अपने नाम से प्रकाशित करता , पर मेरा ऐसा इरादा नहीं, बल्कि मैं तो ये चाहता हूँ कि ये चीजें आप तक पहुंचे ताकि आप उन सबसे भी रूबरू हो सके जो कहीं अछूता रह जाता है.......यहाँ हर किसी को समर्पित करने के लिए ब्लॉग बना पाना सम्भव नहीं है इसलिए जज़्बात एक प्लेटफ़ॉर्म है जहाँ कोई दायरा नहीं, कोई सीमा नहीं है, मेरा संकलन जो कई बरसों का है और बढता जाता है उसमे भी मैंने नामों को तरजीह कम दी है इसलिए कई का तो मुझे पता ही नहीं हैं, इतनी छोटी बातों पर मैंने ध्यान नहीं दिया कभी , उसके लिए माफ़ी का हक़दार हूँ |

आप सबसे गुज़ारिश है जिन्हें किसी पोस्ट कि खूबसूरती और उसमे उकेरे जज़्बात अपनी तरफ खींचते है उनका मैं तहेदिल से इस्तकबाल करता हूँ पर जो नामों में उलझे हैं और सिर्फ ये बताने या जताने कि तर्ज पर टिप्पणी छोड़ते हैं कि 'देखा हमने पहचान लिया न कि ये तुमने नहीं लिखा'........उनसे मैं यही कहूँगा हो सके तो इससे ऊपर उठें........यहाँ इस ब्लॉग पर अगर ग़ज़ल में शायर का तखल्लुस शेर में आता है तो वो ज़रूर आएगा......बाकी न मैंने कभी 'नाम' डाला था और न आगे 'नाम' डालूँगा चाहें वो मेरा ही क्यों न हो ........ये दहलीज़ कम से नामों से मुक्त रहेगी......लोगों से अनुरोध है कृपया व्यक्तिगत और अन्यथा न लें......शुक्रिया|
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अरे ....अरे ....नाराज़ न हों आपको खाली हाथ नहीं जाना पड़ेगा तो पेश है आज कि ये पोस्ट .........शब्दों पर अधिकार को लेकर........



शब्द....किसके हैं ये शब्द?
क्या तेरे, क्या मेरे ?
क्या कभी किसी के हुए हैं ?
ये शब्द.....

इस विराट में शब्द नहीं हैं,
है तो सिर्फ एक नाद
जो अनहत गूँजता है,
और उस नाद को
वर्णित करने के लिए ही तो
शब्दों के वस्त्र बनाते हैं हम,

फिर क्या फर्क है, कि किसी के
वस्त्र उजले हैं, और किसी के स्याह
क्या संसार के शब्दकोश में
कोई भी ऐसा शब्द है,
जो उस अनकहे
को अभिव्यक्ति दे,

क्यों है शब्दों की इतनी अहमियत ?
क्या केवल शब्दों को
क्रम देने से ही
शब्दों पर छाप पड़ जाती है ?
'सर्वाधिकार सुरक्षित' हो जाते हैं ?

कभी सोचा है तुमने की तुम
शब्दों पर अपने अधिकार
को सुरक्षित करते हो ....
क्या सच में तुम ऐसा कर सकते हो ?

क्या कभी कोई उस क्रम को थोड़ा
सा बिगाड़कर, थोड़ा इधर
या थोड़ा सा उधर सरकाकर
तुम्हारे 'सर्वाधिकार' को
'असुरक्षित' नहीं कर देता है
फिर कैसा अधिकार है ये ?

क्या कभी अनुमान किया है
कि इन शब्दों के माध्यम
से ही इस संसार में
प्रतिपल कितनी बकवास
की जाती है ?
कितनो के खिलाफ ज़हर
उगला जाता है?
कितने लोगों को लड़ाया
जाता है ?

अरे जागो,
शब्दों के पीछे मत भागो
ये तो सिर्फ एक जाल है,
शब्द अभिव्यक्ति का मात्र माध्यम हैं
और इन अधिकारों के चक्कर
में तुम वो तो भूल ही जाते हो
जिसको कहने के लिए
इन शब्दों का सहारा लिया गया,

थोड़ा सा गहराई में जाओ.....
थोड़ा सा डूबो उस रस में
जो शब्दों से परे है,
जैसे दिल की धडकन
बिना कहे कुछ कहती है,
जैसे साँसों की गरमी,
जैसे हाथों कि नरमी,
जैसे मतवाले नैनो की बोली
बिना बोले भी बोलती है,
------------------------------------------------------
अगर किसी के 'सर्वाधिकार सुरक्षित' में से कोई शब्द भटककर इधर आ निकला हो तो कृपया उसे खींच के यहाँ से ले जाकर सुरक्षित करें :-)

इमरान अंसारी

रविवार, 5 अगस्त 2012

पुरुष आए मंगल से, स्त्री कौन देश से आईं?







माधवी शर्मा गुलेरी

अक्सर कहा जाता है कि हम सब दुनिया की भीड़ में अकेले हैं, हम अकेले आए थे और अकेले ही जाएंगे। वैसे, इस अकेले आने-जाने के सफर के बीच हम अकेले नहीं रह पाते। लगभग हर इंसान देर-सवेर किसी संबंध में बंधता ही है। मनुष्य का सबसे पहला संबंध अपनी मां से होता है, फिर पिता, भाई, बहन, पत्नी, बच्चे और सगे-संबंधी उसके जीवन से जुड़ते हैं।

बाइबल के मुताबिक, ईश्वर ने सात दिन में कायनात पूरी रच दी थी। उसने जन्नत बनाई, धरती का सृजन किया, जीवजंतु व पेड़-पौधे तैयार किए, अलग-अलग मौसम रचे और इन सबकी हिफाजत के लिए मनुष्य का सृजन किया। खुदा ने जो पहला इंसान बनाया, उसे ‘आदम’ नाम दिया। फिर उसने एक खूबसूरत बगीचा तैयार किया, जिसका नाम ‘ईडन’ रखा। बगीचे में बेहतरीन पेड़ लगाए और आदम को इसमें रहने के लिए छोड़ दिया, लेकिन साथ ही उसे हिदायत दी गई कि वह एक पेड़ के सिवा बगीचे के किसी भी पेड़ से मनचाहा फल खा सकता है। आदम अकेला न रहे, इसलिए खुदा ने एक और इंसान रचा। यह एक औरत थी, जिसे हव्वा (ईव) नाम दिया गया।

आदम और हव्वा के अलावा, खुदा ने एक और जीव की रचना की, जो सांप था। सांप ने हव्वा को वर्जित पेड़ से फल खाने के लिए फुसलाया। इस पर हव्वा ने आदम से भी वो फल खाने के लिए कहा। फल खाकर दोनों को अच्छेबुरे का भान हुआ, लेकिन खुदा ने उन्हें इसकी सजा दी और उन्हें बगीचे से बाहर निकाल दिया। बाइबल के इसी हिस्से से आदम और हव्वा के सांसारिक जीवन की शुरुआत मानी जाती है।

हिंदू मान्यता के अनुसार, धरती पर पहला आदमी ‘मनु’ हुआ। मत्स्य पुराण में जिक्र है कि पहले ब्रrा ने दैवीय शक्ति से शतरूपा (सरस्वती) की रचना की, फिर शतरूपा से मनु का जन्म हुआ। मनु ने कठोर तपस्या के बाद अनंती को पत्नी रूप में प्राप्त किया। शेष मानव जाति मनु और अनंती से उत्पन्न हुई मानी गई है। भगवत पुराण में मनु और अनंती की संतानों का वृहद उल्लेख है। हालांकि ऋग्वेद में मनुष्य की कहानी कुछ और है। इसमें कहा गया है कि प्रजापति की पांच संतानों से मानव जाति आगे बढ़ी।

क्या हम सचमुच अलग-अलग ग्रहों से हैं?

अलग-अलग धर्मो के अलग-अलग मत हैं, मान्यताएं हैं, लेकिन उनमें एक सायता है कि पहले पुरुष आया, फिर स्त्री। दोनों में संबंध बना और संसार आगे बढ़ा। जब सब धर्मो के मत स्थापित हो चुके थे, तब 1990 में अमेरिकी लेखक जॉन ग्रे स्त्री-पुरुष से संबंधित एक नया मत लेकर आए। इस मत के अनुसार, पुरुष मंगल ग्रह से हैं और महिलाएं शुक्रग्रह से। उन्होंने इस विषय पर एक किताब लिख डाली, जो अपने समय की सर्वाधिक बिकने वाली किताब साबित हुई। इस पुस्तक की अब तक 70 लाख से अधिक प्रतियां बिक चुकी हैं। इसी किताब के मुताबिक, एक किस्सा यह भी है कि एक दिन मंगलवासियों ने टेलीस्कोप से शुक्रग्रह की तरफ झांका और वहां जो नजारा उन्हें दिखा, वह अद्भुत था। मंगलवासी शुक्रग्रह पर रहने वाली स्त्रियों को देखते ही उनके प्रेम में पड़ गए। आव देखा न ताव, मंगलवासियों ने एक स्पेसशिप ईजाद किया और शुक्रग्रह पर पहुंच गए। शुक्रग्रह की स्त्रियों ने भी उनका दिल खोलकर स्वागत किया। स्त्रियां पहले से जानती थीं कि एक दिन ऐसा आएगा, जब उनके हृदय प्रेम की छुअन महसूस करेंगे। दोनों वर्गो के बीच प्रेम पनपा और वे साथ-साथ रहने लगे। वे एक-दूसरे की आदतें समझने की कोशिश करने लगे। इस कोशिश में सालों बीत गए, लेकिन इस दौरान वे प्रेम और सौहार्द से रहे। एक दिन उन्होंने पृथ्वी पर आने का फैसला किया। शुरुआत में सब ठीक था, लेकिन धीरे-धीरे उन पर धरती का असर कुछ इस तरह होने लगा कि उनकी याददाश्त जाती रही। वे भूल गए कि वे दो अलग-अलग ग्रहों से आए प्राणी हैं, इसलिए उनकी आदतें और जरूरतें भी एक-दूसरे से जुदा होंगी। एक सुबह वे उठे तो पाया कि एक-दूसरे के बीच के अंतर को वे बिल्कुल भूल चुके हैं। यहीं से उनमें द्वंद्व की शुरुआत हुई, जो आज तक जारी है।

जॉन ग्रे ने पुरातन काल से चली आ रही मान्यताओं और पौराणिक धारणाओं से बिल्कुल जुदा एक बात कह दी। हालांकि ‘पुरुषों के मंगल ग्रह से और स्त्रियों के शुक्र ग्रह से’ होने की उनकी बात को एक खोज या सत्य के अन्वेषण के रूप में नहीं लिया गया है। ग्रे की बात को एक लेखक के औरत-मर्द को लेकर विश्लेषण या एक विचार के रूप में लिया गया है, पर उनका इस विचार को पेश करने का ढंग इतना मजेदार था कि लोग इसके दीवाने हुए बिना नहीं रह पाए। ग्रे ने अपनी पुस्तक में एक जगह लिखा है, ‘पुरुषों की शिकायत है कि जब वे किसी ऐसी समस्या का हल रखने की कोशिश करते हैं, जिसके बारे में महिलाएं बात करना चाहती हैं तो होता यह है कि महिलाएं उस समस्या के बारे में सिर्फ बात करना चाहती हैं, हल नहीं ढूंढ़ना चाहतीं।’

ग्रे कहते हैं कि स्त्री और पुरुष के बीच की समस्याओं का कारण उनका स्त्री और पुरुष होना है। लिंगभेद ही उनकी समस्याओं की जड़ है। अपनी बात को समझाने के लिए वे कहते हैं कि पुरुष मंगल से हैं और स्त्रियां शुक्र से.. और ये दोनों ही अपने ग्रहों के समाज और रीति-रिवाजों से बंधे हुए हैं। ये दोनों प्रजातियां इन्हीं ग्रहों के प्रताप की वजह से एक खास तरह का आचरण करती हैं। यही वजह है कि स्त्री-पुरुष का समस्याओं, तनावपूर्ण स्थितियों, यहां तक कि प्यार से निपटने का भी एक अलग अंदाज, एक अलग नजरिया है।

ग्रे ने स्त्री-पुरुष की बात की, उनके परस्पर संबंधों की बात की। ग्रे की तरह दुनिया के ज्यादातर बुद्धिजीवी, लेखक, विचारक और दार्शनिक अपने-अपने अंदाज में संबंधों के विषय में अपनी-अपनी बात कहते आए हैं, विचार और तथ्य पेश करते आए हैं, फिर भी स्त्री-पुरुष संबंधों का तानाबाना इतना जटिल और हर रोज नए रंग व आयाम दिखाने वाला है कि कोई एक धारणा या एक मत केवल कुछ समय तक ही वजूद और आकर्षण बनाए रख पाता है। समय के साथ हर विचार पर एक नया विचार और हर धारणा पर एक नई धारणा अपना प्रभाव दिखाने लगती है।

अनुभवों ने संबंधों को दी बेहतरीन अभिव्यक्ति

स्त्री-पुरुष के संबंधों को लेकर विभिन्न लेखकों, कवियों, बुद्धिजीवियों ने बहुत कुछ कहा है और इनमें से ज्यादातर के विचार उनके अपने अनुभवों और अपनी ज़िन्दगी की मथनी में मथकर बाहर आए हैं। इनमें से कवियों को तो उनके संबंधों ने ही कवि और लेखक बनाया है। अब चाहे वह भारत के मोहन राकेश हों या तुर्की के हिकमत।

मोहन राकेश अपने जीवन में स्त्रियों के साथ अपने संबंधों के दरिया में डूबते-तैरते रहे। उनकी यही छटपटाहट, यही कोशिश उनकी लेखनी में भी साफ नÊार आती है। ‘आषाढ़ का एक दिन’, ‘आधे-अधूरे’, ‘लहरों के राजहंस’ जैसे नाटकों और उनकी लिखी सैकड़ों उम्दा कहानियों में स्त्री-पुरुष के संबंधों का एक अनूठा जाल बुना गया है। ‘आषाढ़ का एक दिन’ में नायिका मल्लिका, नायक कालिदास से कहती है कि ‘मेरी आंखें इसलिए गीली हैं कि तुम मेरी बात नहीं समझ रहे। तुम यहां से जाकर भी मुझसे दूर हो सकते हो..? यहां ग्राम प्रांतर में रहकर तुम्हारी प्रतिभा को विकसित होने का अवसर कहां मिलेगा? यहां लोग तुम्हें समझ नहीं पाते। वे सामान्य की कसौटी पर तुम्हारी परीक्षा करना चाहते हैं। विश्वास करते हो न कि मैं तुम्हें जानती हूं? जानती हूं कि कोई भी रेखा तुम्हें घेर ले तो तुम घिर जाओगे। मैं तुम्हें घेरना नहीं चाहती, इसलिए कहती हूं, जाओ।’
जहां एक ओर मोहन राकेश अपने संबंधों को मूर्त-रूप में मौजूद होकर जीते रहे, वहीं हिकमत ने अपनी ज़िन्दगी का ज्यादातर हिस्सा जेल में बिताया। जेल में रहकर वे अपने जीवन में घटित स्थितियों, घटनाओं और संबंधों पर कविताएं रचते रहे। हिकमत की मनोदशा के एक पहलू की झलक तब मिलती है, जब वे कैदखाने से अपनी पत्नी को लिखते हैं —

सबसे खूबसूरत महासागर वह है
जिसे हम अब तक देख पाए नहीं
सबसे खूबसूरत बच्चा वह है
जो अब तक बड़ा हुआ नहीं
सबसे खूबसूरत दिन हमारे वो हैं
जो अब तक मयस्सर हमें हुए नहीं
और जो सबसे खूबसूरत बातें मुझे तुमसे करनी हैं
अब तक मेरे होंठों पर आ पाई नहीं।

इन पंक्तियों को पढ़कर ही भीतर उस सजायाता कैदी का दर्द सामने आता है, जिसका कसूर सिर्फ इतना था कि वह कविताएं लिखता था। ऐसी कविताएं, जो व्यवस्था और सरकार को पसंद नहीं आती थीं, लेकिन को जेल की उस अंधेरी, सीलन भरी ठंडी कोठरी में उनके संबंधों की गर्मी ने ताकत दी। उनके भीतर ऊर्जा और एहसासों का लावा बहाए रखा, जो उन्हें अपनी सदी का महान कवि और एक महत्वपूर्ण शिसयत बना गया।

प्रेम में विवाह और विवाह में प्रेम

मुक्त प्रेम, विवाह की कार्बन कॉपी है। अंतर यही है कि इसमें निभ न पाने की स्थिति में तलाक की आवश्यकता नहीं है। फ्रेंच लेखिका सिमोन और बीसवीं सदी के महान विचारक व लेखक ज्यां पाल सात्र्र का रिश्ता पूरी तरह से कुछ अलग तरह का था। वे कभी साथ नहीं रहे। पचास वर्षो तक उनका अटूट संबंध उनके लिए बहुधा सामान्य घरेलू जीवन जैसा ही था। वे लंबे समय तक होटलों में रहे, जहां उनके कमरे अलग अलग थे। कभीकभी तो वे अलग मंजिलों पर भी रहे। बाद में सिमोन अपने स्टूडियो में रहीं और सात्र्र अपना मकान खरीदने से पहले अपनी मां के साथ रहे। किसी स्त्रीपुरुष के बीच यह एक ऐसा संबंध था, जिसकी पारस्परिक समझ केवल मृत्यु के द्वारा ही टूटी। इन दोनों का प्रेम मुक्त ही नहीं था, बल्कि आनंदहीन, नीरस चीजों से उन्हें असंबद्ध और मुक्त रखता था। यही वजह है कि सात्र्र के साथ अपने संबंध को सिमोन ज़िन्दगी का सबसे बड़ा हासिल मानती थीं।

‘एक सफल विवाह से प्यारा दोस्ताना और अच्छा रिश्ता और कोई नहीं हो सकता..’ मार्टिन लूथर की यह बात सोलह आने सही है। किंतु आधुनिक जीवन में सफल विवाह के कुछ सबसे बड़े शत्रु उभरकर सामने आए हैं और उनमें से प्रमुख है — ईगो, दंभ और घमंड। इन तीनों शदों के अर्थो में कुछ भेद जरूर है, पर इनकी आत्मा एक है। इनका वार एक सा है, प्रहार एक सा है और इनका असर भी एक सा है। जब तक ये तीनों ज़िन्दगी हैं, सफल विवाह दम तोड़ता नÊार आता है। हम अपनी ईगो के चलते विवाह जैसे खूबसूरत रिश्ते की बलि चढ़ाने में भी नहीं हिचकिचाते। इसके विपरीत अगर ईगो को ही बलि की वेदी पर चढ़ा दिया जाए तो विवाह जैसा संबंध हमारे जीवन में नई रोशनी भर सकता है। ईगो को टक्कर देने के लिए हमारे पास कुछ हथियार हैं और वे हथियार हैं, प्यार और त्याग.. क्योंकि अगर प्यार है तो त्याग है, और त्याग है तो रिश्ता टूट ही नहीं सकता। बल्कि वह अच्छे से फले फूलेगा और मिठासभरा होगा। जहां दंभ है, वहां प्यार नहीं रह सकता, वहां हम एकदूसरे के साथ नहीं, एक दूसरे से मिलकर नहीं, बल्कि एक दूसरे से अलग होकर जी रहे होते हैं।

जुदा होकर भी..

वूडी एलन ने स्त्री पुरुष के संबंध की तुलना शार्क से की है। वे कहते हैं कि शार्क की ही तरह किसी रिश्ते को भी आगे बढ़ते रहना चाहिए, नहीं तो उसके दम तोड़ने की गुंजाइश है। उनके इस कथन में दम है। यह विचार आजकल के जन मानस के लिए उपयोगी साबित हो सकता है, क्योंकि अब अरेंज्ड मैरिज की जगह प्रेम विवाहों की बढ़ रही है। पर इस सबके बीच कुछ प्रेम ऐसे होते हैं, जो विवाह तक नहीं पहुंच पाते और ब्रेकअप का शिकार हो जाते हैं। ज्यादातर मामलों में इन ब्रेकअप्स की वजह बहुत छोटी होती है, लेकिन उस वक्त प्रेम में आकंठ डूबे प्रेमियों को वही छोटी वजहें बहुत बड़ी नÊार आती हैं और नतीजा होता है ब्रेकअप। लेकिन प्रेमी जोड़ा कुछ समय के लिए उन वजहों को अंदाज करके किसी शार्क की तरह आगे बढ़ता जाए और उस संबंध को विवाह तक ले जाए तो इस बात की बहुत संभावना है कि फिर वे कभी अलग न हों। इसके पीछे सबसे बड़ी वजह है विवाह के साथ पैकेज के रूप में आई समझदारी और सहनशीलता। इसका एक दूसरा कारण भी है कि विवाह किसी भी अफेयर से बड़ा संबंध होता है। हम किसी छोटे-बड़े कारण के चलते अफेयर को ब्रेकअप में बदल सकते हैं, लेकिन उन्हीं कारणों के चलते विवाह को तलाक में बदलने से पहले कई बार सोचते हैं। हर इंसान अपने संबंध को बचाने के लिए जी-जान लगाता है और समय के साथ विवाहित पुरुष-स्त्री जानने लगते हैं कि संबंध इतना कमजोर नहीं होता, जो छोटे छोटे झगड़ों की भेंट चढ़ जाए, लेकिन यह समझने के लिए सहनशीलता चाहिए और वह आती है विवाह के बाद ही।


प्रेम की धुरी पर घूमता है, संबंधों का चक्का

विवाह संबंध इंसान को परिपक्व बनाता है। आपको अपने आसपास कई वर्गो के कई लोग यह कहते मिल जाएंगे कि जो प्रेम-संबंध उन्होंने विवाह के बाद महसूस किया, वह पहले कभी महसूस नहीं किया। नोबेल पुरस्कार विजेता ब्रिटिश लेखक हैरॉल्ड पिंटर अपनी पत्नी के लिए लिखते हैं,
मर गया था और जिंदा हूं मैं
तुमने पकड़ा मेरा हाथ, अंधाधुंध मर गया था मैं
तुमने पकड़ लिया मेरा हाथ
तुमने मेरा मरना देखा और मेरा जीवन देख लिया
तुम ही मेरा जीवन थीं, जब मैं मर गया था
तुम ही मेरा जीवन हो और इसीलिए मैं जीवित हूं..

ऐसी बात अपनी पत्नी से गहन प्रेम संबंध के बाद ही किसी लेखक की कलम से निकल सकती है। कुछ ऐसा ही प्रेम-संबंध इमरोज ने अमृता प्रीतम के लिए महसूस किया। वह अपने संस्मरण में कहते हैं, ‘कोई भी रिश्ता बांधने से नहीं बंधता। प्रेम का मतलब होता है एक-दूसरे को पूरी तरह जानना, एक-दूसरे के जज्बात की कद्र करना और एक-दूसरे के लिए फना होने का जज्बा रखना। अमृता और मेरे बीच यही रिश्ता रहा। पूरे 41 बरस तक हम साथ साथ रहे। इस दौरान हमारे बीच कभी किसी तरह की कोई तकरार नहीं हुई। यहां तक कि किसी बात को लेकर हम कभी एक-दूसरे से नाराज भी नहीं हुए।’

इमरोज आगे कहते हैं कि ‘अमृता के जीवन में एक छोटे अरसे के लिए साहिर लुधियानवी भी आए, लेकिन वह एकतरफा मोहबत का मामला था। अमृता साहिर को चाहती थी, लेकिन साहिर फक्कड़ मिजाज था। अगर साहिर चाहता तो अमृता उसे ही मिलती, लेकिन साहिर ने कभी इस बारे में संजीदगी दिखाई ही नहीं।

एक बार अमृता ने हंसकर मुझसे कहा था कि अगर मुझे साहिर मिल जाता तो फिर तू न मिल पाता। इस पर मैंने कहा था कि मैं तो तुझे मिलता ही मिलता, भले ही तुझे साहिर के घर नमाज अदा करते हुए ढूंढ़ लेता। मैंने और अमृता ने 41 बरस तक साथ रहते हुए एक-दूसरे की प्रेजेंस एंजॉय की। हम दोनों ने खूबसूरत ज़िन्दगी जी। दोनों में किसी को किसी से कोई शिकवा-शिकायत नहीं रही। मेरा तो कभी ईश्वर या पुनर्जन्म में भरोसा नहीं रहा, लेकिन अमृता का खूब रहा है और उसने मेरे लिए लिखी अपनी आखिरी कविता में कहा है — मैं तुम्हें फिर मिलूंगी। अमृता की बात पर तो मैं भरोसा कर ही सकता हूं।’

संबंधों का सागर विशाल है। एक कुशल और अच्छा नाविक वही है, जो इस सागर में अपनी नाव तमाम हिचकोलों के बावजूद पार ले जाकर माने और वो जब भी इस सागर में डुबकी लगाए तो संबंधों का सबसे कीमती मोती ही निकालकर लाए। न केवल निकाले, बल्कि उसे सहेज कर भी रख सके, उसकी हिफाजत करे, उसका सम्मान करे।

शुक्रवार, 3 अगस्त 2012

मेरे दोस्त





मैं खुद को आज़ाद तब समझूँगी
जब सबके सामने यूँ ही
लगा सकूँगी तुम्हें गले से
इस बात से बेपरवाह कि तुम एक लड़के हो,
फ़िक्र नहीं होगी
कि क्या कहेगी दुनिया?
या कि बिगड़ जायेगी मेरी 'भली लड़की' की छवि,
चूम सकूँगी तुम्हारा माथा
बिना इस बात से डरे
कि जोड़ दिया जाएगा तुम्हारा नाम मेरे नाम के साथ
और उन्हें लेते समय
लोगों के चेहरों पर तैर उठेगी कुटिल मुस्कान

जब मेरे-तुम्हारे रिश्ते पर
नहीं पड़ेगा फर्क
तुम्हारी या मेरी शादी के बाद,
तुम वैसे ही मिलोगे मुझसे
जैसे मिलते हो अभी,
हम रात भर गप्पें लड़ाएँगे
या करेंगे बहस
इतिहास-समाज-राजनीति और संबंधों पर,
और इसे
तुम्हारे या मेरे जीवनसाथी के प्रति
हमारी बेवफाई नहीं माना जाएगा

वादा करो मेरे दोस्त!
साथ दोगे मेरा,
भले ही ऐसा समय आते-आते
हम बूढ़े हो जाएँ,
या खत्म हो जाएँ कुछ उम्मीदें लिए
उस दुनिया में
जहाँ रिवाज़ है चीज़ों को साँचों में ढाल देने का,
दोस्ती और प्यार को
परिभाषाओं से आज़ादी मिले.


आराधना चतुर्वेदी